शाम को जब केशव बाबू घर पहुंचे, तो नीता ने मुसकराते हुए उन का स्वागत किया. यह एक अच्छा संकेत था. केशव बाबू को अच्छा लगा. नीता ने कहा, ‘‘आप को मालूम है न?’’
‘‘क्या?’’ उन्होंने मन की खुशी को दबाते हुए पूछा.
‘‘अनिका की नौकरी लग गई है.’’
‘‘हैं,’’ वे आश्चर्य प्रकट करते हुए मुड़े, ‘‘मुझे तो नहीं मालूम. तुम्हें कैसे पता चला?’’
‘‘अनिका ने स्वयं फोन कर के बताया है. आप को नहीं बताया?’’
‘‘नहीं, चलो, कोई बात नहीं. तुम को बता दिया तो मुझे बता दिया,’’ वे सामान्य दिखने की चेष्टा करते हुए बोले. बहुत दिनों बाद उन के घर में खुशियों ने अपने पंख फैलाए थे. अनिका की परीक्षाएं समाप्त हो गईं. उसे होस्टल खाली करना था. केशव बाबू उसे कार से स्वयं लेने गए थे. नीता भी जाना चाहती थी, परंतु उन्होंने मना कर दिया. लौटते समय रास्ते में केशव बाबू ने अनिका की पसंद की कुछ चीजें खरीदीं, उसे उपहार जो देना था. जानपहचान वालों के लिए मिठाई के डब्बे खरीदे और जब वे घर पहुंचे तो नीता उन्हें दरवाजे पर ही खड़ी मिली. कार के रुकते ही वह बाहर की तरफ लपकी और अनिका के कार से उतरते ही उसे अपने गले से लगा लिया. अनिका भी मां के गले से इस तरह लिपट गई जैसे सालों से उन के ममत्व, प्रेम और स्नेह को तरस रही थी. ‘‘मेरी बेटी, मेरी बेटी.’’ इस के बाद नीता का गला भर आया. उस की आंखों में आंसू उमड़ आए. उसे लग रहा था, जैसे अपनी खोई हुई बेटी को पा लिया हो.