दिवाकर जी ने एक बार फिर करवट बदली और सोने की कोशिश की लेकिन उन की कोशिश नाकाम रही, हालांकि देखा जाए तो बिस्तर पर लेटेलेटे वे पूरी रात करवटें ही तो बदलते रहे थे.
नींद उन से किसी जिद्दी बच्चे की तरह रूठी हुई थी. समझ नहीं पा रहे थे कि नींद न आने का कारण स्थान परिवर्तन है या मन में उठता पत्नी मानसी की यादों का रेला.
मन खुद ही अतीत के गलियारे की तरफ़ निकल गया जब बरेली में अपने घर में थे तो पत्नी मानसी से बोलतेबतियाते कब नींद की आग़ोश में चले जाते उन्हें पता न चलता. नींद भी इतनी गहरी आती कि मानसी कभीकभी तो प्यार से उन को कुंभकरण तक की उपाधि दे डालती.
सुबह होने पर भी नींद मानसी की मीठी सी झिड़की से ही खुलती क्योंकि मानसी द्वारा बनाई अदरक-इलायची वाली चाय की सुगंध जब उन के नथुनों में भर जाती तो वे झटपट फ्रैश हो कर पलंग पर ही बैठ जाते और फिर वहीं पर बैठ कर ही वे दोनों चाय का आनंद लेते. पीतेपीते वे मानसी की तरफ़ ऐसी मंत्रमुग्ध नज़रों से देखते मानो कह रहे हों कि तुम्हारे हाथ की बनाई सुगंधित चाय का कोई जवाब नहीं.
मानसी उन्हें अपनी ओर इस तरह ताक़तें देख कर लजा कर लाल हो जाती, जानती थी कि संकोची स्वभाव के दिवाकरजी शब्दों का प्रयोग करने में पूरी तरह अनाड़ी हैं, उन की इन प्यारभरी निगाहों का मतलब वह वखूबी समझने लगी थी.
वे दोनों एकदूसरे के प्यार में पगे जीवन का भरपूर आनंद उठा रहे थे. बेटे नमन की शादी कर वे अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर चुके थे. उन को रिटायर हो कर 6 महीने हो रहे थे, दिवाकरजी मानसी के साथ भारतभ्रमण का प्रोग्राम मन ही मन बना चुके थे. मानसी को अपने इस प्लान की बाबत बता कर वे सरप्राइज देना चाहते थे क्योंकि नौकरी की आपाधापी, फिर बेटे नमन को उच्चशिक्षा दिला कर सैटिल करने में ही उन की आय का अधिकांश भाग खर्च हो जाता था.
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