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फिर रात हो उठती भयावह. रोनाधोना, चीखनाचिल्लाना, सिर पटकना-बदस्तूर जारी रहता. तीनों भैया मुझ से बड़े थे. उन के कमरे अलग थे जहां वे तीनों साथ सोते. मैं सब से छोटा होने के कारण अब भी मां के आंचल में था. कुछ हद तक मां मुझे दुलार कर या मेरे साथ अपनी बातें बता कर अकेलापन दूर करतीं. बंद पलकों में मेरी जगी हुई रातें सुबह मेरी सारी ऊर्जा समाप्त कर देतीं.

स्कूल जा कर अलसाया सा रहता. स्कूल के टीचर पिताजी से मेरी शिकायत करते. मैं क्याकुछ सोचता और सोता रहता, स्कूल भेजे जाने का कोई फायदा नहीं, मुझ से पढ़ाई नहीं होगी आदि. मेरी 8 वर्ष की उम्र और पिताजी की बेरहम मार, मां दौड़ कर बचाने आतीं, धक्के खातीं, फिर जाने मां को कितना गुस्सा आता. विद्रोहिणी सीधे पिताजी को धक्के देने की कोशिश करतीं. उलट ऐसा करारा हाथ उन के गालों पर पड़ जाता कि उन का गाल ही सूज जाता. फिर अड़ोसपड़ोस में कानाफूसी, रिश्तों को निभाने का आडंबर सब के सामने अजीब सी नाटकीयता और अकेले में फूला हुआ सा मुंह. सबकुछ मेरे लिए कितना असहनीय था.

क्यों नहीं मेरे पिताजी थोड़ा सा समय मेरी मां के लिए निकालते? क्यों नहीं उन की छोटीबड़ी इच्छाओं का खयाल रखते? क्यों मेरी मां इन ज्यादतियों के बावजूद चुप रहतीं? अकसर ही मैं सोचता.
धीरेधीरे फैक्टरी में काम करने वाले बाबुओं की बीवियां मेरी मां की पक्की सहेलियां बनती गईं. उन के साथ बाहर या पार्टियों में वक्त गुजारना मां का प्रिय शगल बन गया.

मेरे भाइयों की अपने दोस्तों के साथ एक अलग दुनिया बन गई थी, जहां वे खुश थे. शाम को जब वे खेल कर घर वापस आते तो अपनी पढ़ाई वे खुद कर लेते, खापी कर वे सब अपने कमरे में निश्ंिचत सोने चले जाते. मगर मैं मां के सब से करीब था, जरूरत की वजह से भी और अपनी तनहाई की वजह से भी. मेरे जन्म से पहले मेरी मां कैसी थीं, इस से मुझे अब कोई सरोकार न था लेकिन मेरे जन्म के कुछ सालों बाद परिस्थितिवश मेरी मां घरपरिवार की चखल्लस जल्दी से जल्दी निबटा कर शाम होते ही सहेलियों में यों खो जातीं कि मैं तनहा इन बेअदब अट्टहासों की भीड़ में तनहाई की दीवार से सिर पटकता कहीं खामोश सा टूट रहा होता.

रात के 11 बज रहे होते, मैं मां की इन गपोरी सहेलियों के बीच कहीं अकेला पड़ा मां के इंतजार में थका सा, ऊबा सा सो गया होता. तब अचानक किसी के झ्ंिझोड़ने से मेरी नींद खुलती तो उन्हीं में से किसी एक सहेली को कहते सुनता, ‘जाओजाओ, मां दरवाजे पर है.’ मैं गिरतापड़ता मां का आंचल पकड़ता. साथ चल देता, नींद से बोझिल आंखों को मसलते. घर पहुंच कर मेरे न खाने और उन की खिलाने की जिद के बीच कब मैं नींद की गुमनामी में ढुलक जाता, मुझे पता न चलता. नींद अचानक खुलती कुछ शोरशराबे से.

भोर के 3 बज रहे होते, मेरी मां पिताजी पर चीखतीं, अपना सिर पीटतीं और पिताजी चुपचाप अपना बिस्तर ले कर बाहर वाले कमरे में चले जाते. मां बड़बड़ाती, रोती मेरे पास सोई मेरी नींद के उचट जाने की फिक्र किए बिना अपनी नींद खराब करती रहतीं.

मैं जैसेजैसे बड़ा हो रहा था, दोस्तों की एक अलग दुनिया गढ़ रहा था. विद्रोह का बीज मन के कोने में पेड़ बन रहा था. हर छोटीबड़ी बातों के बीच अहं का टकराव उन के हर पल झगड़े का मुख्य कारण था. धीरेधीरे सारी बूआओं की शादी के बाद मेरी दादी भी अपने दूसरे बेटे के पास रहने चली गईं. मां का अकेलापन हाहाकार बन कर प्रतिपल अहंतुष्टि का रूप लेता गया. पिताजी भी पुरुष अहं को इतना पस्त होते देख गुस्सैल और जिद्दी होते गए. तीनों भाइयों की दुनिया में उन का घर यथावत था, लेकिन मुझे हर पल अपना घर ग्लेशियर सा पिघलता नजर आता था.

मैं एक ऐसा प्यारभरा कोना चाहता था जहां मैं निश्ंिचत हो कर सुख की नींद ले सकूं, अपनी बातें अपनों के साथ साझा करने का समय पा सकूं. मैं खो रहा था विद्रोह के बीहड़ में.
मैं इस वक्त 10वीं की परीक्षा देने वाला था और अब जल्दी ही इस माहौल से मुक्त होना चाहता था. सभी बड़े भाई अपनीअपनी पढ़ाई के साथ दूसरे शहरों में चले गए थे. मैं ने भी होस्टल में रहने की ठानी. उन दोनों की जिद भले ही पत्थर की लकीर थी लेकिन मेरी जिद के आगे बेबस हो ही गए वे. मेरे मन की करने की यह पहली शुरुआत थी जिस ने अचानक मेरे विद्रोही मन को काफी सुकून दिया. मुझे यह एहसास हुआ कि मैं इसी तरह अपने को खुश करने की कोशिश कर सकता हूं.

बस, जिस मां को मैं इतना चाहता था, जिसे अपनी पलकों में बिठाए रखना चाहता था, जिस की गोद में हर पल दुबक कर उन की लटों से खेलना चाहता था, उन की नासमझी की वजह से दिल पर पत्थर रख कर मारे गुस्से और नफरत के मैं उन से दूर भाग आया.

 

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