अभी थोड़ी देर पहले मेरी बेटी सुरभि जो बात मुझे सुना कर गई वह मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी. वह तो कह कर जा चुकी थी, लेकिन उस के शब्दों की मार मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी, ‘‘सारी गलती आप की है मम्मी, आप ही इन बातों की जिम्मेदार हैं,’’ और उस की आखिरी कही बातें तो मुझे अंदर तक तोड़ गई थीं, ‘‘आप लाइफ में बैलेंस नहीं रख सकीं, मम्मी.’’
सालों पहले का दृश्य मेरी आंखों के सामने किसी फिल्म के दृश्य की तरह घूम गया. मेरे पापा डा. सुमित बंसल के अस्पताल की गिनती शहर के बड़े अस्पतालों में होती थी. वह आर्थिक और सामाजिक स्तर पर जितने सफल थे, उन का वैवाहिक जीवन मुझे उतना ही असफल लगता था. सुनंदा के नाम से मैं डा. सुमित की इकलौती बेटी थी. बचपन से मातापिता के बीच लड़ाई- झगड़ा देखते रहने के बावजूद मैं कभी यह नहीं समझ पाई कि उन दोनों में गलत कौन था. मम्मी को पापा से एक ही शिकायत थी कि वह घर को समय नहीं देते और उन की यह शिकायत बिलकुल सही थी. तब मेरी समझ में यह नहीं आता था कि आखिर पापा इतने व्यस्त क्यों रहते हैं? आखिर सारी दुनिया के पुरुष काम करते हैं पर वे तो इतने व्यस्त नहीं रहते. पापा के पास किसी फंक्शन पार्टी में जाने का समय नहीं होता था. वह हम दोनों मांबेटी को साथ जाने के लिए कहते लेकिन मम्मी उन के साथ जाने पर अड़ जातीं और जाने का कार्यक्रम कैंसिल हो जाता. मम्मी के आंसू बहने शुरू हो जाते तो पापा चिढ़ कर वहां से उठ जाते. एकदूसरे की बातें सुनना और समझना तो दूर उन दोनों को अपनी बात कहने का ढंग भी नहीं था.