प्रियांशु मांबाप से कोई बात नहीं बताता था. पता नहीं क्यों? आखिरकार, रमाकांत और शारदा ने तय किया कि वही बेटे से बात करेंगे. अलगे रविवार को सभी लोग नाश्ता कर रहे थे. अखिला उन के साथ न नाश्ता करती थी, न खाना खाती थी. प्रियांशु उस का नाश्ताखाना उस के कमरे में दे आता था.
‘‘बेटा, तुम कुछ बताते नहीं हो. आखिर बहू को इस घर से या हम से क्या परेशानी है? हम तो उसे एक शब्द भी नहीं कहते. वह अपने मन की करती है, फिर तुम्हारे बीच लड़ाईझगड़ा...?’’ इतना कह कर शारदा चुप हो गईं. रमाकांत ध्यान से प्रियांशु का मुंह ताक रहे थे.
प्रियांशु ने अपना हाथ रोक कर कहा, ‘‘मम्मी, मैं स्वयं हैरान और परेशान हूं. वह कुछ बताती ही नहीं. बस, बातबात में गुस्सा करना और बात को बढ़ाते चले जाना उस का स्वभाव है. मैं चुप रहता हूं, तब भी चिल्लाती रहती है.’’
‘‘क्या वह स्वभाव से ही गुस्सैल और चिड़चिड़ी है?’’
‘‘हो सकता है, परंतु हम कुछ भी तो ऐसा नहीं करते, जिस से उसे गुस्सा आए.’’
‘‘कुछ समझ में नहीं आता,’’ रमाकांत ने पहली बार अपना मुंह खोला, ‘‘क्या मैं उस से बात करूं?’’
‘‘कर सकते हैं, परंतु वह बहुत बदतमीज है. जब मेरी नहीं सुनती, जो आप की क्या सुनेगी? कहीं गुस्से में आप की बेइज्जती न कर दे,’’ प्रियांशु ने कहा.
‘‘तो फिर उस के मम्मीपापा से बात कर के देखते हैं. कुछ तो उस के स्वभाव के बारे में पता चले,’’ रमाकांत ने आगे सुझाव दिया.
‘‘देख लीजिए, जैसा आप उचित समझें. मुझे तो कुछ समझ में नहीं आता. हर क्षण यही भय बना रहता है कि पता नहीं किस बात पर वह भडक़ जाए.’’
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