बचपन में सुना था और उस के बाद कई बार महसूस भी किया था कि अपने मन की आवाज दबाना आसान नहीं होता. सच भी है न, मनुष्य दुनिया से मुंह छिपा सकता है, लेकिन अपनी ही चेतना को झूठ समझना और उसे ठगना आसान नहीं होता. जब से बैंक में नौकरी मिली है, कुछकुछ ऐसा महसूस होने लगा है जैसे एक परिवार से निकल कर किसी दूसरे परिवार में चला आया हूं. 2 दिन का सफर तय कर मैं यहां चला आया, पंजाब की एक शाखा में. मेरा घरपरिवार तो दूर है, लेकिन वह भी मेरा परिवार ही है, जो मेरे आसपास रहता है.
हम 3 साथी एक घर में रहते हैं और ठीक सामने रहता है हमारे ही बैंक का एक अधिकारी, केशव. घर के दरवाजे आमनेसामने हैं, इसलिए आतेजाते उस से आमनासामना होना लाजिमी है.इतवार की छुट्टी थी और हम तीनों सहयोगी हफ्तेभर के कपड़े आदि धोने में व्यस्त थे, तभी केशव आया और अपने कपड़ों से भरी बालटी रख गया. किसी जरूरी काम से वह जालंधर जा रहा था.
‘‘मेरे कपड़े धो देना और सामने इस्तिरी वाले को दे देना. मुझे शायद देर हो जाए,’’ कह कर जाते समय वह इतना भी नहीं रुका कि मैं कुछ कह सकूं. यह देख मेरे दोनों सहयोगी मुसकराते हुए मुझ से बोले, ‘‘आज जरूरी काम तो होना ही था, रीना जो वापस आ गई है, साहब की लैला. बेचारा जालंधर तो जाएगा ही न.’’
‘‘क्या…? कौन रीना…?’’ उन की बात काटता हुआ मैं बोला.‘‘अरे वही, जो आजकल नकदी पर बैठती है, वही पिंजरे की मैना… और कौन?’’ कह कर उचटती सी नजर डाल दोनों अपने काम में व्यस्त हो गए.बेमन से मैं ने केशव के कपड़े धो तो दिए, लेकिन अच्छा नहीं लगा था कि केशव ने क्या सोच कर अपने गंदे कपड़े मेरे आगे पटक दिए.
वह रात को देर से आया और मेरा खाना भी चट कर गया. मैं मां को फोन करने गया था. लौटने पर जब खाने का डब्बा खोला तो उस में रोटियां नहीं थीं. हैरान रह गया मैं. ‘‘क्या बाई ने आज मेरी रोटियां नहीं बनाई?’’ मैं ने जोर से कहा.‘‘बनाई थीं यार, केशव खा गया, खुद तो घर पर था नहीं. रोटियां बना कर जब बाई लौट गई, तब वह यहां आया और तुम्हारी रोटियां खा गया.’’
‘‘तो, मैं क्या खाऊंगा?’’ अवाक रह गया मैं. केशव से मेरी बातचीत बहुत कम होती, क्योंकि उस इनसान का व्यवहार ही असहनीय था मेरे लिए. मैं नयानया था, शायद इसीलिए केशव ने मुझ पर ऐसा काम लादा था. उस के बाद भी कर्ई बार उस ने अनुचित कामों के लिए मेरी तरफ घूर कर देखा था. मैं कुछ इस तरह से ना कहते हुए बोला, ‘क्षमा कीजिएगा, केशवजी, यह काम मेरा नहीं है.’
‘तुम्हारा अधिकारी हूं मैं,’ वह रोब से बोला.‘अधिकारी हैं तो क्या आप गंदगी हम से साफ कराएंगे? कैसी बचकानी बातें करते हैं आप, साहब? ऐसी छोटी बातें करना आप को शोभा नहीं देता. समय आने पर हम भी अधिकारी बन जाएंगे, तब क्या नए आए लड़कों से बदतमीजी से पेश आएंगे. अगर आप अधिकारी हैं, तो आप को अपना बड़प्पन नहीं खोना चाहिए.’
निरुत्तर हो गया केशव. उस ने तब तो कुछ नहीं कहा, मगर बैंक में उस का व्यवहार मेरे साथ दिनप्रतिदिन कड़वा ही होता गया.विचित्र मानसिकता थी केशव की. हमारी ही एक सहयोगी रीना के साथ उस का प्रेमप्रसंग चल रहा था. उस के साथ अकसर वह बतियाता रहता था और छुट्टी का दिन तो वह सदा जालंधर जा कर ही बिताता था.