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‘‘कौन जानता है प्रतीक को आज की तारीख में? वहीं वह खुद लेखन के क्षेत्र का प्रमुख हस्ताक्षर बन कर शोहरत का पर्यात बन चुकी थी. बड़ा गुमान था प्रतीक को अपने काबिल इंजीनियर होने पर... लकीर का फकीर कहीं का. मध्यवर्गीय मानसिकता का शिकार... जिन्हें सिर्फ इंजीनियरिंग और कुछ दूसरे इसी

तरह के प्रोफैशन ही समझ में आते हैं. लेखन, संगीत और आर्ट उन की सोच से परे की बातें होती हैं.

नहीं चाहिए था उसे दिखावे का हीरो अपनी जिंदगी में. रही बात अकेलेपन की तो राहें और भी थी. उस ने निश्चित किया कि वह दिल्ली लौट कर किसी अनाथ बच्ची को अपना लेगी... गोद ले कर उसे अपना उत्तराधिकारी... अपने सूने आंगन की खुशबू बना लेगी.

खुशबू को अपराजिता के आंगन में महकते हुए करीब 10 साल हो गए थे. जिस दिन अपराजिता किसी बच्चे की तलाश में अनाथाश्रम पहुंची थी तो उस 4-5 साल की पोलियोग्रस्त बच्ची की याचक दृष्टि उस के दिल को भीतर तक भेद गई थी. उस रात आंखों से नींद की जंग चलती रही थी. सारी रात करवटें लेतेलेते बदन थक गया था. दूसरे दिन बिना विलंब किए अनाथाश्रम पहुंच गई अपराजिता जरूरी औपचारिकताएं पूरी करने के लिए.

अगले कुछ महीनों तक गंभीर कागजी कार्यवाही को पूरा करने के बाद वह कानूनी तौर पर खुशबू को अपनी बेटी का दर्जा देने में कामयाब हो गई. हैरान रह गई थी अपराजिता दुनिया का चलन देख कर तब. किसी ने छींटाकशी की कि उस का दिमाग खराब हो गया है जो वह यह फालतू का काम कर रही है.

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