‘‘लेखन, भाषा, साहित्य ये हैं मेरे शौक... किसी वजह से 4 साल पहले मैं ने गलत लाइन पकड़ ली, लेकिन इस का यह अर्थ कतई नहीं कि मैं इस गलती के साथ उम्र गुजार दूं या इस के बोझ से दब कर दूसरी गलती करूं... अगर मैं ने तुम से शादी की तो वह मेरी एक और भूल होगी क्योंकि सच्चा प्यार करने वाले सामने वाले को ज्यों का त्यों अपनाते हैं. उन्हें अपने सांचे में ढाल कर अपनी पसंद और अपने तरीके उन पर नहीं थोपते.’’
‘‘भेजा फिर गया है तुम्हारा... जो समझ में आए करो मेरी बला से.’’ तमतमाया प्रतीक लंच बीच में ही छोड़ कर तेजी से कैंटीन से बाहर निकल गया. अपराजिता ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. इत्मीनान से अपना लंच खत्म करने में मशगूल रही.
अपराजिता हर संघर्ष से निबटने को तैयार थी. सच ही तो लिखा था नानी ने कि सांझ के मरे को कब तक रोएंगे. गलत शादी, गलत कैरियर में फंस कर जिंदगी दारुण मोड़ पर ही चली जानी थी... वह इस अंधे मोड़ के पहले ही सतर्क हो गई.
‘‘अपराजिता नानी ने तुम्हारे लिए कुछ पैसा फिक्स डिपौजिट में रखवाया था. अब तक मैं इस पौलिसी को 2 बार रिन्यू करा चुकी हूं. पर सोचती हूं अब अपनी जिम्मेदारी तुम खुद उठाओ और यह रकम ले कर अपने तरीके से इनवैस्ट करो,’’ एक शाम मौसी ने कहा.
‘‘जैसा आप चाहो मौसी. अगर आप ऐसा चाहती हैं तो ठीक है.’’
अपराजिता अब काफी हद तक आत्मनिर्भर हो चुकी थी. अब तक उस के 2 उपन्यास छप चुके थे. एक पर उसे ‘बुकर प्राइज’ मिला था तो दूसरे उपन्यास ने भी इस साल सब से ज्यादा प्रतिलिपियां बिकने का कीर्तिमान स्थापित किया. अब उसे खुद के नीड़ की तलाश थी. मौसी के प्रति वह कृतज्ञ थी पर उम्रभर उन पर निर्भर रहने का उस का इरादा न था.
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