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आज रमण प्रसाद का मन खिन्न था. वे जब सुबह उठे तब तो मन अच्छाभला था. बहू ने चाय भी अच्छी ही बनाई थी. अखबार में भी कोई बुरी दिल दहला देने वाली खबर न थी. नहाधो कर भी समय पर तैयार हो गए थे लेकिन फिर जब बहू ने कुश को स्कूल आनेजाने के लिए स्कूल वैन लगवा लेने की बात छेड़ी तो उन का मन खिन्न हो गया.

सुबह रमण प्रसाद का नित्यक्रम था अपने 7 वर्षीय पोते को एक्टिवा पर बैठा कर स्कूल छोड़ आने और फिर दोपहर होने तक वापस ले आने का. सुबह साथसाथ पार्क पर जाने का नित्यक्रम तो 2 साल पहले जीवनसंगिनी रमा के गुजर जाने के बाद से ही बंद हो गया था. उन का बेटा शेखर भी अकसर औफिस के काम से दौरे पर घर से बाहर रहता और घर पर होने पर भी उन से कम ही बात करता था. घर में अकेले उदास से बैठ हुए ससुरजी के चेहरे पर खुशी की दो लकीरें चितरने के उद्देश्य से बहू ने ही अपने बेटे कुश को स्कूल छोड़ आने और ले आने की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी. रमण प्रसाद का उदास मन पोते के साथ फिर से चहकने लगा. पिछले कई महीनों से एक्टिवा पर पोते को ले जाते हुए कभी भी छोटा सा भी एक्सिडैंट न हुआ पर कल स्कूल से आते हुए न जाने कैसे सामने से आती कार के नजदीक से निकलते हुए हाथ कांपा पर गिरतेगिरते बच गए. बातूनी पोते ने जब यह बात घर पर बताई तो आज बहू का फरमान आ गया.

“बहू, कुश के पीछे मेरा मन भी लगा रहता है. कल वाली घटना तो बस एक हादसा थी. तूने देखा न, मैं ने अपने पोते को खरोंच तक नहीं आने दी,” रमण प्रसाद ने अपने मन की बात की.

“पिताजी, आप की उम्र हो चली है. अब आप का इस तरह छोटे बच्चे को बैठा कर टूव्हीलर चलाना ठीक नहीं है. दुर्घटना कह कर थोड़े आती है.”

“अरे, अभी 64 ही तो पूरे हुए है. उम्र तो तब होती है जब बिस्तर से उठा ही न जाए. अच्छाभला, चलताफिरता हूं. तुम नाहक ही चिंता कर रही हो. कुछ नहीं होगा मेरे कुश को. इसे मैं ही स्कूल छोडऩे और लेने जाया करूंगा,” रमण प्रसाद ने बहू को विश्वास दिलाते हुए कहा.

“नहीं पिताजी, मेरा मन नहीं मानता. आप टूव्हीलर ले कर जाएंगे तो आप के न लौटने तक मेरा मन उस ओर ही लगा रहेगा. बेहतर यही होगा कि कुश स्कूलवैन से जाए. बात हो गई है. सोमवार से वह स्कूलवैन में ही जाएगा. आज आप छोड़ आइए. कल तो वैसे भी रविवार की छुट्टी है.”

बहू की बात सुन कर उदास मन से रमण प्रसाद ने चाबी फ्रिज के ऊपर से उठाई और बुझे मन से कुश को ले कर घर से बाहर निकल गए.

स्कूल प्रांगण के बाहर कुश को छोड़ कर रमण प्रसाद पास ही बने सार्वजनिक बगीचे के पास आ गए और टूव्हीलर वहीं नजदीक में पार्क कर बगीचे के गेट के पास खड़े हो गए. अपनी कलाई में बंधी घड़ी पर उन्होंने नजर डाली. पूरे 8 बज चुके थे. उन्होंने बगीचे के अंदर दूर तक नजर दौड़ाई. जौगिंग करने वालों के बीच उन्हें वह आज कहीं नजर न आ रही थी. उसे आज वहां न पा कर उन के चेहरे पर उदासी घिर आई. तभी पीछे से आ कर किसी ने हलके से उन की पीठ पर एक धौल जमाई. उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा.

“क्यों प्रसाद, इस उम्र में किस पर नजर बिगाड़ रहे थे.” सामने वह खड़ी थी जिसे रमण प्रसाद की नजरें खोज रही थीं. आज वह गुलाबी रंग की सलवारकमीज पहने हुए थी. उस पर उस ने कंधे पर काले रंग का दुपट्टा डाले हुए था. उसे देख कर रमण प्रसाद की आंखों में फिर चमक आ गई.

“अब इस उम्र में नजरें उतनी तेज कहां रहीं जो तुम्हारे अलावा किसी और पर नजर बिगाडूँ,” रमण प्रसाद ने उस के ही अंदाज में उसे जवाब दिया.

“ओह हो, जवानी के दिनों में तो भीगी बिल्ली बन कर रहते थे. बुढ़ापे में शेर कब से बनने लगे,” उस ने मुसकराते हुए रमण प्रसाद को चिढ़ाते कहा.

“छोड़ो वे सब बीती हुई बातें. आज तुम जौगिंग करने नहीं गईं. इधर कहां से आ रही हो?” रमण प्रसाद ने बात का रुख पलटते हुए कहा.

“बस, ऐसे ही मन न किया. पर फिर सोचा, तुम मेरा इंतजार करते बेवजह खड़े रहोगे, तो चली आई इस ओर तुम से मिलने. चलो, वहां गुमटी पर जा कर चाय पीते हैं.”

“हां, चलो, फिर पता नहीं अब कब मिलना हो,” उस की बात का जवाब देते हुए रमण प्रसाद ने साथ चलते हुए ठंडी आह भर कर कहा.

“क्यों, क्या हुआ? घर में बहू ने कुछ कह दिया क्या?” उस ने पूछा.

“नहीं, कुछ खास नहीं. पर अब से कुश स्कूलवैन में आयाजाया करेगा तो मेरा इस ओर आना लगभग बंद सा ही हो जाएगा,” रमण प्रसाद ने जवाब दिया.

“ओह,” उस ने अफसोस व्यक्त किया. फिर चाय की गुमटी तक पहुंचने तक दोनों के बीच चुप्पी छाई रही.

“वाक करने के बहाने तो कभीकभी इस ओर निकल सकते हो न तुम? वैसे भी कोई ज्यादा दूर तो है नहीं तुम्हारा घर यहां से?” उस ने गुमटी के पास लगी बैंच पर उन के साथ बैठते हुए पूछा.

“सुनंदा, मेरी फिटनैस तुम्हारी तरह नहीं है जो घर से दूर 4 किलोमीटर चल कर आ सकूं. तुम ठहरी पहले से ही खेलकूद वाली, सो, इस उम्र में आ कर भी तंदुरुस्त हो,” रमण प्रसाद ने चाय का कप अपने हाथ में लेते हुए उस की बात का जवाब दिया.

“मैं कहां तुम्हें चल कर आने को कह रही हूं. अपना टूव्हीलर ले कर आना न,” सुनंदा ने चाय का एक घूंट गले से नीचे उतारा.

“उसी की तो सब रामायण है. कल कुश को स्कूल से ले जाते वक्त थोड़ा सा बैलेंस बिगड़ गया था. हुआ कुछ न पर कुश ने सारी बात बहू और बेटे से कह दी. बस, तब से टूव्हीलर न चलाने का फरमान आ गया,” रमण प्रसाद ने चाय का खाली कप एक तरफ रखते हुए कहा, “अब इस उम्र में मुझ से कार खरीद कर चलाना सीखना न हो पाएगा. बेटे ने तो होंडा सिटी खरीद रखी है पर वह मैं ने कभी नहीं चलाई,’’ रमण प्रसाद ने कहा.

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