“तुम्हारे घर के पास एक जिम है न,” तभी सुनंदा की आंखों में चमक आ गई.
“हां, एक जिम है. तुम तो किसी और जिम में जाती हो,” रमण प्रसाद ने हां में सिर हिलाते हुए सुनंदा से पूछा. रमण प्रसाद सुनंदा की काफीकुछ आदतों से वाकिफ थे जो समय के साथ अब भी न बदली थीं.
“तुम इधर मेरे घर के पास नहीं आ सकते तो मैं उस ओर कभीकभी आ जाया करूंगी. मुझे तो तुम्हारी तरह परिवार और बच्चों का कोई बंधन न है,” सुनंदा ने रमण प्रसाद के पीछे खड़े होते हुए कहा.
रमण प्रसाद ने चाय वाले की तरफ 20 रुपए का नोट बढ़ा दिया और बगीचे के गेट की तरफ चलने लगे.
“अरे नहीं, वहां आसपास की परिचित बहुत सी महिलाएं और पुरुष आते रहते हैं. तुम इस उम्र में अपने पहनावे से वैसे ही मौडर्न लगती हो. ऐसे में किसी ने मुझे वहां तुम्हारे संग देख लिया तो बेवजह प्रश्न खड़े होंगे.”
“प्रसाद, तुम बिलकुल भी न बदले. वैसे के वैसे ही डरपोक हो. अब इस उम्र में कैसा डर.”
“बात डर की न है. बहूबेटा न जाने क्या समझ बैठें. तुम्हें तकलीफ लेने की जरूरत न है. मैं ही कोई न कोई बहाना कर आ जाया करूंगा,” चलतेचलते रमण प्रसाद और सुनंदा एक्टिवा के पास आ कर खड़े हो गए.
“यह बहादुरों वाली बात की न. जब भी आओ, एक कौल कर देना और रात को वीडियोकौल करूंगी,” सुनंदा ने कहा और वहां से जाने लगी. रमण प्रसाद एक्टिवा पर बैठे हुए उसे तब तक देखते रहे जब तक वह सडक़ पार कर पास की ही सोसायटी कंपाउंड के अंदर न चली गई. घर पहुंचते हुए पूरे रास्ते में उन के मन में सुनंदा से जुड़ी पुरानी बातें फिर ताजा होने लगीं. लगभग हर रोज ही सुनंदा से मिलने के बाद पुरानी बातें उन के जेहन से कूदकूद कर बाहर आने का प्रयत्न करने लगती थीं.