लेखक-अश्विनी कुमार भटनागर
‘‘पक्का?’’ नादिरा ने अविश्वास से पूछा.
‘‘एकदम पक्का,’’ कहते हुए मोहित ने गहरी सांस ली.
अगले रविवार को जब दरवाजे की घंटी बजी तो दरवाजे की ओर दोनों ही झपट पड़े. वे बेसब्री से कामवाली का इंतजार कर रहे थे.
नादिरा ने दरवाजा खोला तो वह दंग रह गई, सामने अच्छे नाकनक्श वाली, सांवलीसलोनी, चुस्त सलवारकुरता पहने, 22-23 वर्ष की एक युवती खड़ी थी. उसे तो विश्वास ही नहीं हुआ कि यह कामवाली है.
‘नमस्ते,’ युवती ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘क्या मैं अंदर आ सकती हूं? मेरा नाम काजल है. मु झे कल्पनाजी ने भेजा है.’’
‘‘हांहां, आओ न,’’ नादिरा ने उतावली हो कर कहा.
खुद सोफे पर बैठते हुए नादिरा ने
काजल को सामने कुरसी पर
बैठने का इशारा किया. काजल ने ‘धन्यवाद’ कहा और शालीनता से बैठ गई. उस के होंठों पर मंद मुसकान थी.
‘‘ये मेरे पति हैं, मोहित,’’ नादिरा ने मोहित की ओर इशारा करते हुए कहा.
‘‘जी, नमस्ते,’’ मुसकारते हुए काजल बोली.
‘‘इस घर में अभी हम 2 ही हैं,’’ कहते हुए नादिरा ने बातचीत की भूमिका शुरू की.
‘‘कोई बात नहीं,’’ काजल ने शरारती मुसकान से कहा, ‘‘2 से 3 भी हो जाएंगे. मैं जो आ जाऊंगी.’’
नादिरा को अच्छा लगा. विनोदी स्वभाव उसे अच्छा लगता था, सो यह सुन कर वह हंस पड़ी, फिर बोली, ‘‘क्याक्या काम कर लेती हो? किसी के यहां पहले काम किया है?’’
‘‘जी नहीं, मैं ने अभी तक कहीं काम नहीं किया है. अभी कुछ मजबूरी है. रही बात तजरबे की, सो मैं घरेलू काम सारा कर लेती हूं,’’ काजल ने मुसकरा कर कहा, ‘‘हिंदुस्तानी लड़की हूं.’’
नादिरा ने काजल के इस वाक्य में व्यंग्य खोजना चाहा, पर काजल की मुसकान उसे भेद न सकी.