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‘‘अरे, वह लाइट वाला आया क्या? कितनी बार फोन कर चुका हूं. केवल 2 दिन ही तो बचे हैं. अब तक तो चारों ओर लाइटें लग जानी चाहिए थीं. रंगबिरंगी जगमगाती लाइटों और सजावट से ही तो उत्सव की भव्यता का आभास होता है वरना एक आम दिन और एक खास दिन में कुछ फर्क ही महसूस नहीं होता,’’ समीर ने झल्लाते हुए कहा और एक बार फिर लाइट वाले को फोन मिलाया.

‘‘अरे भैया, गृहप्रवेश में केवल

2 दिन बचे हैं और आज से ही मेहमान आने शुरू हो जाएंगे और तुम अभी तक नहीं आए? भाई साहब, काम नहीं करना तो मना कर दो. हम किसी और से करवा लेंगे.’’

उधर से पता नहीं लाइट वाले ने क्या कहा कि समीर ने फोन बंद कर दिया और फिर फुरती से दूसरी ओर बढ़ा ही था कि दीप्ति की आवाज आई, ‘‘सुनो, जरा ड्राइवर को बुला देना. मुझे पार्लर जाना है. फेशियल करवा लूं. 2 दिनों बाद फंक्शन है, सो, चेहरे पर थोड़ा ग्लो आ जाएगा.’’

‘‘अरे भाई, आ जाएगा ड्राइवर और फिर ग्लो भी आ जाएगा पर पहले मु?ो एक बात बता दो कि घर में या बाहर कोई भी छोटामोटा फंक्शन हो, तुम महिलाएं सब से पहले ब्यूटीपार्लर की ओर क्यों भागती हो? अजी, मकान का नांगल है. सब लोग तुम्हें नहीं, मकान को देखेंगे.’’

‘‘बस, यही बात तो तुम मर्द आज तक सम?ा नहीं पाए. भई, मकान अपनी जगह है और मकानमालकिन अपनी जगह. सब मकान के साथसाथ मुझे भी तो देखेंगे. खासकर, तुम्हारे मित्र,’’ दीप्ति ने चुटकी ली तो समीर खिसिया गया.

‘अरे, याद आया, बुटीक वाली को भी तो फोन करना है. मेरा ब्लाउज तैयार किया या नहीं. यह तो शुक्र है कि साड़ी तैयार हो गई,’ दीप्ति बड़बड़ाई और बुटीक वाली को फोन करने में व्यस्त हो गई.

अभी वह फोन पर बात कर के हटी ही थी कि समीर फिर उस के पास आया, ‘‘सुनो, प्रेमा का फोन आया था. कल दोपहर 3 बजे वाली ट्रेन से आ रही हैं. साथ में कुंवर साहब तथा दोनों बच्चे भी हैं.’’ प्रेमा समीर की बहन थी.

‘‘अच्छी बात है. मैं ने वह बड़ा वाला कमरा साफ करवा दिया था. प्रेमा दीदी को वही कमरा दे देंगे. काफी बड़ा है. चारों आराम से रह जाएंगे,’’ दीप्ति ने कहा.

दीप्ति की बात सुन कर समीर बोला, ‘‘अभी तो एसी रूम ही खाली पड़े हैं.

मेरे खयाल से तो वही रूम देना ही ठीक रहेगा.’’

‘‘अरे, उन्हें कहां आदत है एसी में सोने की और बहुत से रिश्तेदार आएंगे जो एसी के बिना नहीं सो सकते. उन के लिए रखो,’’ दीप्ति ने कहा.

‘‘ठीक है, जैसा तुम मुनासिब समझ. मैं फोन कर के पता कर लूंगा कि ट्रेन कितने बजे पहुंचेगी, फिर हम उसी मुताबिक उन्हें लाने के लिए गाड़ी भेज देंगे.’’

‘‘फिर वही बात… अरे भई, गाड़ी भेजने की कहां जरूरत है? किसकिस को भेजोगे गाड़ी? कुंवरजी साथ हैं, औटो कर के आ जाएंगे. हमें और पचासों काम हैं. ऐसे फालतू पचड़ों में मत पड़ो. मेहमान आ रहे हैं, उन का स्वागत करना है. यह फालतू की तीमारदारी मत करो. अरे, यह ड्राइवर नहीं आया अभी तक. बेवजह देर हो रही है. पता नहीं पार्लर वाली फ्री होगी कि नहीं. फोन कर के पता करती हूं और पहले से अपौइंटमैंट ले लेती हूं.’’

इस तरह समीर और दीप्ति 2 दिनों बाद होने वाले अपने नवनिर्मित निवास के गृहप्रवेश के दौरान होने वाले कार्यक्रमों की तैयारी कर रहे थे और आने वाले मेहमानों की आवभगत करने की योजना बना रहे थे. समीर और दीप्ति का एक ही बेटा था जो मुंबई में किसी प्रतियोगिता की तैयारी कर रहा था

और इस आयोजन में शरीक नहीं हो पा रहा था.

समीर ने बहुत सोचसमझ कर यह मकान बनवाया था. कई वर्षों तक तो उस का खयाल था मकान बनवाना ही नहीं चाहिए क्योंकि जितना पैसा मकान बनवाने में खर्च होता है उसी पूंजी के ब्याज में आराम से एक किराए के मकान में रह कर घर खर्च भी निकाला जा सकता है और पूंजी सुरक्षित की सुरक्षित रहती है या फिर आजकल तो पैसों को इनवैस्ट करने के लिए म्यूचुअल फंड, क्रिप्टो या बिटक्वाइन जैसे प्लेटफौर्म्स भी हैं, पर फिर बच्चों के विवाह, सामाजिक प्रतिष्ठा और दीप्ति की जिद के आगे उसे ?ाकना पड़ा था और उस ने यह मकान बनवाने का निर्णय लिया था.

फिर भी उस का मानना यही था कि वह मकान पर जरूरत से ज्यादा खर्च नहीं करेगा. मकान सुविधा संपन्न अवश्य होगा पर सजावट और विलासिता के नाम पर पैसा खर्च करने में समीर का विश्वास नहीं था. वैसे भी, एक मध्यवर्गीय परिवार के लिए ऐसा ही मकान बनवा पाना संभव था.

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