"मैडम, मैं यह काम अपनी इच्छा से नहीं कर रहा हूं. कोविड के कारण सुखीरामजी दो साल से अपने मातापिता से नहीं मिले थे. अब पाबंदियां हटीं और सबकुछ खुला तो वे उन से मिलने गांव चले गए. मुझ से उन्होंने कुछ दिनों के लिए मंदिर की देखभाल करने काआग्रह किया था. इसलिए ही मैं मंदिर का कार्यभार संभाल रहा हूं."
"लेकिन, तुम सुखीरामजी के इतने करीबी कैसे हो गए कि तुम्हें यहां रख कर वे अपने गांव चले गए?"
"मैडम, सुखीरामजी की कोरोना काल में मंदिर बंद रहने पर क्या दशा हो गई थी, यह जानने कोई भी भक्त नहीं आया, जबकि मंदिर में उस के पहले खूब भीड़ रहती थी. सुखीरामजी के परिवार की भूखों मरने की नौबत आ गई थी. उस समय न तो चढ़ावा आ पा रहा था और न ही किसी प्रकार का दान. मेरा घर मंदिर के बगल में ही है. पंडितजी की ऐसी दशा मुझ से देखी न गई. यों तो मैं भी कोई मोटा वेतन नहीं पाता, किंतु सोचा कि जितना भी पाता हूं, उस में अपने परिवार के अतिरिक्त 4 लोगों का पेट तो भर ही सकता हूं. पंडितजी, उन की पत्नी, 10 वर्षीय पुत्र व 5 वर्षीया पुत्री इन दो वर्षों में मुझ पर ही निर्भर थे. आप बताइए कि मुझ से अधिक कौन निकट हो सकता था उन के?”
शैलजा ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि माधव पुनः बोल उठा, "सुखीरामजी का कहना था कि किसी और पंडित को यदि वे यह काम दे कर जाएंगे तो लौटने पर संभव है मंदिर वह हथिया ले.