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थाने में घुसते ही मेरी पुत्रवधू पार्वती का कर्कश स्वर मेरे कानों में शीशे की तरह पिघलता चला गया- ‘‘पापा जी, मुझे बचा लीजिए. इस बार मुझे बचा लीजिए. मैं आगे से ऐसा नहीं करूंगी. मुझे माफ कर दीजिए, प्लीज.’’

मैं ने एक बार पार्वती की ओर देखा इस भाव से कि कितनी बार यह सब करोगी? कितनी बार माफी मांगोगी? आंखों में आक्रोश और क्रोध था. संग ही निराशा के भाव भी थे कि यह सब क्यों है? क्यों ऐसा होता है? परंतु इस क्यों का मेरे पास कोई उत्तर न था. मैं आहत था. एक ओर मैं अपनी पत्नी का लहूलुहान चेहरा देख कर आ रहा था, इसी पार्वती का, जाने किस आवेश का परिणाम था. दूसरी ओर मेरी यह पुत्रवधु, जिसे मैं अपनी बेटी की तरह ब्याह कर लाया था, थाने में बंद पड़ी है. एक ओर मेरी जीवनसंगिनी, दूसरी ओर मेरे घर की लाज.

मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं किस का साथ दूं और किस का न दूं? दोनों ही तरह से मेरे घर पर ही प्रहार था. ‘सर, आप? प्रणाम सर.’ मैं चौंका, देखा, 2 महिला इंस्पैक्टर मेरे पावों में झुक कर आशीर्वाद प्राप्त करने को उद्यत थीं. मैं ने आशीर्वाद दिया परंतु वे अब भी जिज्ञासा लिए खड़ी थीं. कालेज में दोनों मेरी विद्यार्थी थीं. अभी 2 साल पहले ही इन्होंने पढ़ाई खत्म की थी. मैं इन को इस रूप में देखूंगा, मुझे उम्मीद न थी. फिर आशा बंधी, सबकुछ ठीक करने में ये सहायक होंगी.

‘सर, आप यहां कैसे?’ इंस्पैक्टर सीमा ने मेरी ओर सवाल उछाला और इंस्पैक्टर अमिता प्रश्नचिन्ह बनी खड़ी रही. ‘‘कहीं बैठने की जगह मिलेगी, तो मैं बताऊ.’’ “आइए सर, हमारे केबिन में आइए.’ उन के केबिन में जा कर मैं कुरसी पर बैठ गया. एक गिलास पानी पिया और आश्वस्त हो गया. इन दोनों इंस्पैक्टरों के कारण मैं ठीक कर ले जाऊंगा.

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