देखो रश्मि, मैं ने अपनी बेटी को बेटे की तरह पाला है. उसे उस की काबिलीयत का पैसा मिल रहा है. इतने सालों की उस की कड़ी मेहनत, मेरा मार्गदर्शन अब जा कर रंग लाया है. वह सब किसी दूसरे के लिए क्यों फुजूल में फेंक दिया जाए?’
मैं स्तब्ध रह गई, जीजी की कितनी ही चीजें जीजाजी की बहनें मांग कर ले जाती थीं. हम लोगों की तरफ से दिए गए उपहार ‘उफ’ तक मुंह से न निकालते हुए जीजी ने अपने देवरों को उन के मांगने पर दे दिए थे. मां कभी पूछतीं, ‘आरती, वह पेन कहां गया, जो तुम्हें पिछली दीवाली में भैया ने दिया था.’
जीजी बेहद विनम्रता के साथ कहतीं, ‘रमन भैया ने परीक्षा के लिए लिया था... पसंद आ गया तो पूछा कि मैं रख लूं भाभी. मैं मना कैसे करती, मां.’
एक बार भैया दीदी के लिए भैयादूज पर एक बढ़िया धानी साड़ी लाए थे. तब जीजी की सहेली अरुणा दीदी भी उन से मिलने के लिए आई थीं. उन्होंने छूटते ही कहा, ‘मत दो इस पगली को कुछ भी. साड़ी भी ननद ने मांग ली तो दे देगी.’
तब जीजी ने अपनी मुसकान बिखेरते हुए कहा था, ‘वे भी तो मेरे अपने हैं. जैसे मेरे भैया, मेरी रश्मि... मेरी अरुणा...’
अब उसी जीजी की बेटी को पिता से क्या सीख मिल रही थी. मैं ने जीजा की ओर देखा. वह काम में मगन थीं. जैसे उन्होंने सुना ही न हो.
मुकुंद कहते हैं, ‘मैं कुछ ज्यादा ही आशावादी हूं, दीवार से सिर टकराने के बाद भी दरवाजे की टोह लेती रहती हूं. जीजी के बारे में मैं कुछ ज्यादा भावुक भी तो हूं. शिवानी, हालांकि कुछ नकचढ़ी है, फिर भी बचपन से उसे देखने के कारण उस से लगाव भी तो हो गया है. इसलिए बारबार प्रस्ताव ले कर आती हूं.’
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