20 दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. चंडीगढ़ के लिए जब मैं प्लेन में बैठी तो आईएमए में सिखाई गई एकएक बात याद आने लगी. साम, दाम, दंड, भेद का प्रयोग करते हुए हमें अपनी लड़ाई खुद लड़नी है. भारतीय सेना बहुत अनुशासनप्रिय है. आप अफसर हैं. आप को ‘लीड फ्रौम द फ्रंट’ से काम करना है. आप को उन के वैलफेयर और अपने काम से प्रभावित करना है. आप को ध्यान रखना है कि आप के अंडर काम करने वाले जवान, जूनियर अफसर ठीक से काम करते हैं या नहीं.
उन को समय पर छुट्टी मिली है या नहीं. वे ठीक से रह रहे हैं या नहीं. उन को ठीक से खाना मिलता है या नहीं. या उन के व्यक्तिगत जीवन की समस्याएं जो उन के काम पर प्रभाव डाल रही हों, हल करनी हैं. यह सब हमारी डयूटी में आएगा.इतने में मोबाइल की घंटी बजी. प्लेन में बैठते ही मैं ने मोबाइल फ्लाइट मोड पर कर लिया था, ‘ हैलो.’‘मैम, जयहिंद. मैं चंडीगड़ से रीयर इंचार्ज सूबेदार राम सिंह बोल रहा हूं.’
‘जयहिंद, हां साहब, कहिए.’ किसी जूनियर अफसर से बात करने का यही तरीका था. उन को साहब कर के बुलाने की परंपरा है. चाहे हम जवानों और जूनियर अफसरों से सैल्यूट लेने का हक रखती हों.
‘मेरा मोबाइल नंबर आप के पास आ गया है, मैम. जैसे ही आप चंडीगढ़ में लैंड करें, कृपया मोबाइल करें. मैं आप को एयरपोर्ट पर लेने आ जाऊंगा.’‘ ठीक है, साहब.’‘ जयहिंद, मैम.’‘ जयहिंद.’
चंडीगड़ पहुंचने में हमें एक घंटा लगा. लैंड करते ही मैं ने सूबेदार को फोन किया. वे मुझे लगेज मिलने वाली जगह पर मिलेंगे. मैं ने उन को बता दिया था कि एक बक्सा और बैडहोल्डाल है.लगेज वाली जगह पर एक जवान और सूबेदार ट्रौली पर मेरा सामान ले कर खड़े थे. दोनों ने मुझे सैल्यूट किया. आधे घंटे बाद मुझे चंडीगढ़ ट्रांजिट कैंप छोड़ दिया गया. उन्होंने मुझे वे सारी चीजें दे दीं जो लेह में लैंड करते ही पहननी थीं. पहन कर ही उतरना था.