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मेरे ससुरालवाले तो रुष्ट हो कर अगले ही दिन लौट गए थे. बाकी को भी लौटना ही था. कुछ समय गुजरा तो नातेरिश्तेदार, जानपहचान वाले स्नेहा की शादी कर देने पर जोर डालने लगे. रिश्ते भी सुझाने लगे. असमय मनोज के साथ छोड़ कर चले जाने से मैं स्वयं को बेहद असहाय महसूस करने लगी थी. उस पर नातेरिश्तेदारों, अड़ोसपड़ोस के बढ़ते दबाव में मेरी जागरूकता और दृढ़ता तिनके की भांति बहने लगी थी. पर बेटियों के हौसले बुलंद थे. स्नेहा ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा कर दी कि जब तक वह अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाएगी तब तक शादी नहीं करेगी. एक बार फिर निर्लज्ज, चरित्रहीन जैसे विशेषणों की बौछार ने हम मांबेटियेां को भिगो डाला. पर बेटियों ने दृढ़ता से न केवल मुझे बल्कि खुद को भी संभाले रखा. उन के संयम और दृढ़ता ने मुझ में फिर से जीने का हौसला जगा दिया.

पर अब मैं और मेरा परिवार नातेरिश्तेदारों, अड़ोसपड़ोस की निगाहों में बुरी तरह खटकने लगा. हमारे सुखदुख में शामिल होना तो दूर की बात, लोगों ने हमें अपने सुखदुख में शामिल होने लायक समझना भी छोड़ दिया. ऐसे में जब भी मुझ पर नैराश्य के बादल हावी होने लगते हैं, बेटियां तुरंत मुझे घेर कर समझाइश पर उतर आती हैं. ‘हम तीनों हैं न मां आप के साथ? क्या हमारा साथ कम लगता है आप को? रही समाज की बात, तो वह आप के तो क्या, किसी के भी साथ स्थायी रूप से खड़ा नहीं है. कल को सफलता और संपन्नता ने हमारे कदम चूमे तो आज विरोध का नारा गुंजाने वाले ये ही लोग हमारे आगेपीछे घूमते नजर आएंगे. आप ने तो पढ़ा ही है,

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