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दरवाजा खोलते ही एक संभ्रात सी महिला को सामने खड़ा देख मैं अचकचा गई. समझ नहीं पा रही थी बिना उस का मंतव्य जाने कैसे उस का सत्कार करूं. तभी पीछे से एक अर्दलीनुमा आदमी हाथों में गमला थामे आगे आया तो मेरी सोच के घोड़े की लगाम अपनेआप ही कस गई.

‘आप...मिसेज गुप्ता?’

‘ठीक पहचाना आप ने. इधर रख दो गमला. हां, अब जाओ, नीचे इंतजार करो.’ मिसेज गुप्ता ने नौकर को आदेश दे कर रवाना कर दिया तो मुझे अपने कर्तव्य का भान हुआ. मैं उन्हें ससम्मान अंदर ले आई. वे मेरी छोटी किंतु कलात्मक ढंग से सजी बैठक का मुआयना करने में व्यस्त हो गईं तो मैं भी अवसर का लाभ उठा चायनाश्ता तैयार कर लाई.

‘आप की कलात्मक अभिरुचि ने मुझे सम्मोहित कर दिया है,’ मिसेज गुप्ता कुछ ज्यादा ही प्रभावित नजर आ रही थीं.

‘अरे कहां, अब तो मुझ से ज्यादाकुछ हो ही नहीं पाता. ये सब तो बेटियों ने बनाया और सजाया है. मैं तो समझ लीजिए अपनी हर तरह की विरासत उन्हें सौंप कर सेवानिवृत्त हो गई हूं.’

दो महिलाओं में बातों का सिलसिला चल निकला तो फिर लंचटाइम हो जाने तक चलता ही रहा. तब तक हम दोनों एकदूसरे के घरपरिवार, पसंदनापसंद आदि के बारे में पर्याप्त जानकारी जुटा चुकी थीं. मैं ने उन से लंच के लिए रुकने का आग्रह किया पर वे पर्स संभालती बाहर निकल आईं. बाहर रखे गमले को देख उन्हें फिर कुछ याद आ गया. ‘मैं तो इस बोनसाई को धन्यवाद कहूंगी जिस की वजह से मुझे आप जैसी प्यारी सहेली मिलीं.’

‘अरे, आप तो मुझे शर्मिंदा कर रही हैं. दरअसल, पेड़पौधों से मेरा कुछ ज्यादा ही लगाव है. और वह बोनसाई तो मुझे सब से ज्यादा प्रिय था. इसीलिए उस के टूट जाने से मैं इतना आहत हो गई थी और अनजाने ही वह सबकुछ बोल बैठी थी.’ मैं वाकई शर्मिंदा थी.

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