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राइटर- डा. कुसुम रानी नैथानी

बच्चों की हालत देख कर अमरनाथजी की भी आंखों में आंसू आ गए. लगता था, कई दिनों से वे नहाए नहीं और उन के कपड़े भी नहीं बदले गए थे.

दादी बोली, "मुझ से जितना बन पड़ता है मैं उतना ही कर सकती हूं. प्रज्ञा को तो शिवांश से ही फुरसत नहीं मिलती."

"अगर आप बुरा न मानें, तो क्या हम इन्हें अपने साथ ले जाते हैं?"

"इस में बुरा मानने की क्या बात है? ये अच्छे से पल जाएं, मैं तो इतना ही चाहती हूं...

"अच्छा होता, आप रजत से भी पूछ लेते."

"उस से क्या पूछना है? वह दो दिन के लिए बाहर गया हुआ है, फिर इन्हें छोड़ने कौन जाएगा? अच्छा होगा कि आप ही इन्हें अपने साथ ले जाएं."

शिवांश की मुंहदिखाई कर वे इशिता और शलाका को ले कर लौट आए. प्रज्ञा ने उन्हें रुकने तक के लिए नहीं कहा और न ही खाने के लिए पूछा. बच्चों की हालत देख कर उन्हें बड़ा तरस आ रहा था. अनायास ही इस समय उन्हें त्रिशाला याद आ गई थी.

रजत के आ जाने पर मां ने उसे पूरी बात बता दी. रजत को शायद ऐसे ही मौके का इंतजार था. उसे भी अब अपनी बेटियां बोझ स्वरूप लगने लगी थीं. प्रज्ञा तो पहले ही उन्हें यहां रखने के खिलाफ थी. मौके का

फायदा उठाते हुए वह बोला, "वे अपनी मरजी से बच्चों को ले कर गए हैं तो आगे से मैं भी उन्हें लेने नहीं जाऊंगा. वे मेरे लौटने का

इंतजार कर सकते थे."

प्रांजलि उन के लौट आने से बहुत खुश थी. उन के बिना उसे भी घर बड़ा सूनासूना लग रहा था. अमरनाथजी ने भी मन बना लिया था कि अब वे इशिता और शलाका को रजत के पास नहीं भेजेंगे. एक ही महीने में

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