राइटर- डा. कुसुम रानी नैथानी
सुबहसवेरे इशिता का फोन देख कर अनमने भाव से रजत ने काल रिसीव की.
“हैलो पापा, मैं इशिता बोल रही हूं. आज से ठीक 10 दिन बाद मैं कोर्ट मैरिज कर रही हूं. हो सके तो आप आशीर्वाद देने आ जाएं.”
उस की बात सुन कर रजत ने पूछा, “यह अच्छी बात है कि तुम अपना घर बसाने जा रही हो. परंतु लड़का क्या करता है?"
“अशरफ और मैं एक ही विभाग में समीक्षा अधिकारी हैं.“
”क्या तुम गैरधर्म में शादी कर रही हो?”
“जी. अशरफ बहुत अच्छा लड़का है. आप को उस से मिल कर अच्छा लगेगा.”
“उन लोगों से इस से ज्यादा उम्मीद भी क्या की जा सकती थी?” रजत गुस्से से बोले.
“इस रिश्ते से घर पर सब खुश हैं. आप की खुशी का मुझ पर ज्यादा असर नहीं पड़ता. सिर्फ बताने के लिए
मैं ने आप को फोन किया है.”
“उन के सिर से तो बहुत बड़ा बोझ उतर गया होगा.”
“मैं और दी उन के लिए नहीं आप के लिए बोझ थीं. उन्होंने हमेशा हम दोनों बहनों को पलकों पर बिठा कर रखा,” इतना कह कर इशिता ने फोन रख दिया.
रजत की बात सुन कर प्रज्ञा बौखला गई और बोली, “इन के नानानानी ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा. हमारी पगड़ी उछालने का मौका मिल गया उन्हें. बिरादरी में कितनी बदनामी होगी हमारी? तुम उसे रोकते क्यों नहीं हो?”
“मेरे रोकने से वह नहीं रुकेगी. यह बात तुम भी समझती हो और मैं भी,” इतना कह कर वे बाहर चले गए.
रजत का मूड बहुत खराब था, लेकिन बात उन के हाथ से निकल चुकी थी.