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पंडितजी अपने पुराने दिनों में डूबते ही जा रहे थे कि पंडिताइन शाम की चाय ले कर आ गईं. पंडितजी उठ कर बैठे और बोले, “भोजन कर लिया था न पंडिताइन, हम ने तो इतना छक कर खाया कि बैठने तक का दम नहीं बचा था. बड़े दिनों बाद इतना स्वादिष्ठ भोजन मिला था, दाल रोटी खाखा कर ऊब गए थे हम.”

“भोजन तो स्वादिष्ठ था ही. हमें तो उन की दी हुई साड़ी बहुत पसंद आई. अगली बार कहीं जाएं तो सूट ले कर आइएगा.”

अपनी नईनवेली दुलहन की फरमाइश सुन कर पंडित जी पहले तो हंसे, फिर मुसकराते बोले, “पंडिताइन, हम किसी से फरमाइश तो नहीं करते पर हां, देवीजी भी अब आधुनिक हो गइ हैं. उन्हें भी अब हर तरह के परिधान चढ़ाना पुण्यदायक होगा. ऐसा कह कर यजमान को देवीजी की मंशा बता देंगे. सो, कुछ लोग चढ़ावे में सूट भी ले ही आएंगे. आप चिंता मत करिए, हमें अपने यजमानों को डील करना बहुत अच्छी तरह आता है.”

पंडितजी अब शाम की पूजापाठ करने सोसाइटी के मंदिर की तरफ चल दिए. रास्ते में पंडितजी सोच रहे थे कि मई, जून, जुलाई के 3 महीने उन्हें बहुत भारी लगते हैं क्योंकि इन दिनों में कोई विशेष पर्व नहीं होता, जिस से उन की दानदक्षिणा पर भी ग्रहण सा लग जाता है, ऊपर से गरमी में लोग घर पर भी कार्यक्रम कम करते हैं. खैर, अब अगस्त से तो त्योहारों का सीजन शुरू हो जाएगा. बस, भगवान अपनी कृपा उन पर यों ही बनाए रखे. मंदिर में नित्यप्रति की पूजा कर के वे कुछ देर मंदिर में ही बैठते थे. सो, आज भी बैठ गए. मन फिर से पुराने दिनों में जा पहुंचा. कालेज की पढ़ाई करने वे खिलचीपुर से उज्जैन आ गए थे. यहां आ कर कुछ ही दिनों में वे समझ गए थे कि देश में सुरसा की तरह पांव पसारे बेरोजगारी की गिरफ्त में आने से बचने के लिए उन्हें या तो जीतोड़ मेहनत कर के आम युवाओं की तरह नौकरी के लिए कोशिशें करनी होंगी या फिर मां की तरह कोई जुगाड़ करना होगा. उज्जैन यों भी बहुत धार्मिक शहर है जहां हर चार कदम पर एक न एक मंदिर अवश्य मिल जाता है. इसी ऊहापोह के बीच वे एक दिन पास के ही मंदिर में जा पहुंचे. और मन ही मन बोले, ‘हे भगवन, अब तू ही रास्ता दिखा.’

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