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“अरे नहींनहीं, भाभीजी. इस में संकोच की क्या बात है. शादीब्याह तो जीवन की एक प्रक्रिया है, सो, हो गई. बाक़ी आप को तो पता ही है, हम तो भगवान के भक्त हैं, भाभीजी. मैं आप को आधे घंटे में फोन करता हूं पंचांग देख कर कि कब का शुभमुहूर्त है.” पंडितजी ने जल्दी से बात समाप्त कर के फोन काट दिया और कमरे में खुश होते हुए इधरउधर चक्कर काटने लगे. चक्कर काटतेकाटते वे सोच रहे थे, हे प्रभु, तू कितना ध्यान रखता है अपने भक्तों का. इतने दिनों से बढ़िया खाना और वीआईपी ट्रीटमैंट के लिए तरस गया था मैं. यों तो आजकल पंडिताइन खाना बनाती है पर एक तो वह नई है, दूसरे घर में कुछ भी बनाओ, खर्चा तो अपना ही होना है. यजमान तो जीभर कर खिलाते ही हैं, साथ ही, पंडिताइन के लिए बांध भी देते हैं. तभी उन्हें ध्यान आया कि अभी तो भाभीजी को फोन भी करना है. कहीं भाभीजी अपना मन बदल न दें. सो, उन्होंने फटाफट मिसेज गुप्ता को फोन मिला दिया,

”भाभीजी, कल का मुहूर्त सब से अच्छा है. वैसे भी तीर्थ से आने के बाद शीघ्रातिशीघ्र कथा करवा लेना चाहिए तभी तीर्थयात्रा सफल होती है.”

“पर पंडितजी, इतनी जल्दी सब व्यवस्था कैसे हो पाएगी?’’ मिसेज गुप्ता ने कुछ चिंतित स्वर में कहा.

“अरे भाभीजी, मेरे रहते आप उस की जरा भी चिंता मत कीजिए. आप तो, बस, आदेश कीजिए. पूजा की समस्त सामग्री मैं ले आऊंगा. आप सिर्फ पूजावाला भोजन और भगवान का भोगप्रसाद बना लीजिएगा.”

“ठीक है पंडितजी, तो कल ही रख लेते हैं. वैसे भी हमें आए एक सप्ताह हो ही गया है और अधिक लेट नहीं करते. सो, कल आप आ जाइएगा और हां, कल आप का और पंडिताइनजी का भोजन हमारे यहां से ही रहेगा,” मिसेज गुप्ता ने खुश होते हुए कहा.

“ठीक है, भाभीजी. मैं कल सुबह 10 बजे आ जाता हूं.”

“जी, पंडितजी.”

पंडितजी खुश होते हुए कल की तैयारी में लग गए. उन्होंने अपनी अलमारी खोली और पूजा में प्रयोग की जाने वाली समस्त सामग्री एक थैले में भर कर रख ली ताकि सुबह कोई हड़बड़ाहट न हो. कहते हैं न, मन चंगा तो कठौती में गंगा. सो, पंडितजी का मन आज तो बल्लियों उछाल ले रहा था, उस पर नईनवेली पत्नी बगल में हो तो फिर क्या कहने. सो, पंडितजी ने अपनी खूबसूरत पत्नी को खींच कर अपने सीने से लगाया और चैन की नींद सो गए.

अगले दिन सुबहसुबह बढ़िया कलफदार पीली धोती व पीला कुरता पहन, कंधे पर जरी के बौर्डर वाला गमछा डाल, बिना नाश्तापानी किए पंडितजी निकल पड़े अपने यजमान के घर. सत्यनारायन की कथा करा कर मिसेज गुप्ता ने डायनिंग टेबल पर पंडितजी के लिए थाली लगा दी. आहाहा, थाली में खीर, पूड़ी, हलवा, पनीर की सब्जी, बूंदी का रायता और पुलाव आदि देख कर तो पंडितजी की बांछें खिल गईं. तृप्त हो कर भोजन किया. मिसेज गुप्ता ने चलते समय एक टिफिन और बैग दिया और बोलीं, “पंडितजी, यह भाभीजी के लिए भोजन है. और यह चढ़ावे का सामान व आप दोनों के कपड़े हैं.”

पंडितजी ने ख़ुशीख़ुशी सामान लिया और मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया, हे प्रभु, तू ऐसे ही अपने इस भक्त की पुकार सुन लिया कर और हर दूसरेतीसरे दिन ऐसे ही यजमानों से अपनी मुलाकात करवा दिया कर तो अपनी घरगृहस्थी बढ़िया चलती रहेगी. अपनी शादी में मिली नई निकोर पल्सर बाइक पर पंडितजी ने अपना सामान बांधा और चल दिए. घर पहुंच कर तो उन के पास बैड पर लमलेट होने के अलावा कोई चारा ही न था क्योंकि महीनेभर बाद मिले इतने स्वादिष्ठ भोजन को पचाने के लिए अब विश्राम करना बेहद आवश्यक था. जैसे ही वे बैड पर लेटे, अचानक मन बरसों पहले अपने गांव खिलचीपुरजा पहुंचा जो मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले की एक तहसील थी. जहां परिवार में उन के अलावा 5 भाईबहन और थे.

परिवार के मुखिया यानी उन के पिता रामचरण एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क थे. और क्लर्क की मामूली सी तनख्वाह में 5 सदस्यीय परिवार का गुजारा कर पाना परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए बेहद चुनौतीभरा था. मां सुरती देवी 8वीं पास थीं पर दिमाग के मामले में वे अच्छेखासे पढ़ेलिखे को भी मात दे दिया करती थीं. एक दिन कमजोरी की वजह से सुरती देवी बेहोश हो गईं. जब उन्हें होश आया तो पाया कि गांव वाले उन्हें घेर कर खड़े हैं, कोई थाल में दीपक लिए उन की पूजा कर रहा है तो कोई उन के चरण पूज रहा है. होश आने पर सुरती देवी असहज हो उठीं और सिर पर पल्ला रख कमरे की तरफ दौड़ पड़ीं. तभी बाहर से आतीं कुछ आवाजें उन के कानों में पड़ीं, ‘आज गुरुवार है और सुरती भाभी पर तो वैसे ही देवीजी का हाथ है आज तो माताजी ने सुरती के रूप में खुद दर्शन दे दिए. बोलो, जय मां भगवती की.’

देवी और वे, उन के रूप में देवी, उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था. पर दिमाग बहुत तेजी से दौड़ रहा था. कुछ सोचविचार कर बेहोशी का परिणाम एक बार फिर देखने के लिए अगले गुरुवार को उन्होंने बेहोश होने की ऐक्टिंग कर डाली. यह क्या, इस बार तो आसपास के लोग ही उन के चारों तरफ जमा हो गए. पर इस बार होश में आने पर भी अंदर की तरफ दौड़ न लगा कर वे वहीं बैठीं रहीं. बस, अपने सिर का पल्ला थोड़ा ठीक कर लिया. पिछली बार की अपेक्षा इस बार देवी के रूप में उन के चरण छू कर कुछ मुद्रा भी लोगों ने चढ़ाई और कुछ फल आदि भी.

फिर क्या था, सुरती देवी पर हर गुरुवार देवी आने लगी. धीरेधीरे आसपास के गांवों से भी लोग देवी के दर्शन करने व अपनी समस्याएं ले कर उन के पास आने लगे. और अब देवी की कृपा से घर की आर्थिक विपन्नता भी काफी हद तक काबू में आने लगी थी. घर वाले भी खुश और आने वाले भी खुश. पंडितजी को याद आया कि उस समय वे गांव के स्कूल में ही 12वीं कर रहे थे जब एक दिन उन की मां सुरती देवी ने उन्हें अपने पास बैठा कर कहा-

‘देख बेटा, बहुत ज्यादा तो हम तुझे पढ़ालिखा नहीं पाएंगे और न ही तू पढ़ पाएगा. मैं चाहती हूं कि तू अब से मेरी मदद कर दिया कर. इस से मुझे तो आराम मिलेगा ही, साथ ही, तू लोगों को डील करना और मानसिकता को समझना सीख जाएगा. कल को कभी नौकरी नहीं लगी तो भगवान की सेवा कर के अपनी गुजरबसर तो कर लेगा. आने वाले नवरात्र से मैं नौ दिनों तक मां का दरबार लगाऊंगी, तुम उस में मेरी मदद करो.’

‘पर मां, मैं तेरी क्या मदद कर पाऊंगा, मुझे तो कुछ भी पता नहीं है.’

‘तू उस की चिंता मत कर, मैं सब बता दूंगी.’

‘ठीक है, तू जैसा कहे,’ कह कर वे अपने दोस्तों के साथ चले गए थे. 10 दिनों बाद जब नवरात्र का प्रथम दिन आया तो घर का नजारा पूरी तरह बदल चुका था. घर के बाहरी कमरे में देवी मां की बड़ी सी मूर्ति स्थापित की गई. शाम को मां सुरती देवी ने नहाधो कर सुर्खलाल साड़ी धारण की और उन्हें भी गेरुए रंग का एक धोती कुरता पहनने को दिया और साथ में, एक कटोरी में कुछ ज्वार के दाने. कमरे में सुगंधित अगरबत्ती और धूपबत्ती जला दी गई. जब भक्तजन आने लगे तो मां ने मुख पर घूंघट डाले, पीठ तक खुलेबालों को आगे किए हुए सिर को गोलाई में घुमाते हुए कमरे में प्रवेश किया. पिताजी ने हाथ जोड़ कर ‘अम्बे माता की जय’ का जोरजोर से जयकारा लगाना शुरू किया. पिताजी ने मां को पकड़ कर एक चौकी पर बैठा दिया. भक्तजन एकएक कर आते और मां को अपनी समस्या बताते और मां ज्वार के 1-2 या 5 दाने उन के हाथ पर रख देती और वे मां द्वारा बताए वाक्य दोहरा देते. ‘6 माह में आप की समस्या हल हो जाएगी या फिर रोज नहा कर देवी जी को पानी चढ़ाइए, समस्या दूर अथवा 3 माह तक बाल खोल कर 6 मुंह वाला दीया जलाइए. फिर देखिए परिणाम, माता की कृपा बरसेगी’ आदिआदि. इस के साथ ही, वे भक्त को हाथ में बांधने के लिए कलावा और सिर पर लगाने को भभूत भी देतीं. इस सब को पा कर भक्त इतना अभिभूत हो जाता कि उसे लगता कि उस की आधी समस्या तो मां के पास आनेभर से दूर हो गई है.

इन नौ दिनों में घर में साड़ी, रुपए, फल, मेवा आदि इतने आ जाते कि आगामी नवरात्र तक घर में किसी भी प्रकार की कोई कमी न रहती. और इस प्रकार देवी मां की कृपा से घर की आर्थिक विपन्नता जाती रही और भगवन की कृपा से दोचार वर्ष में ही 2 कमरों का घर तीनमंजिला बन गया. घर के बाहरी हिस्से में भगवन का एक मंदिर बनवाया जहां पर रोज ही सुबहशाम पूजापाठ होता. साथ ही, प्रति गुरुवार और नवरात्र के नौ दिन तक मां सुरती देवी पर मां अम्बे की कृपा बरसती और उस कृपा से हम सब चैन की जिंदगी जी पाते.

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