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आज सुबह से ही पंडित दयाशंकर बहुत बेचैन थे. उन की समझ में ही नहीं आ रहा था कि कहांक्या गड़बड़ हो गई भगवन की पूजा में या फिर आज के सारे यजमान दिल की जगह दिमाग से काम लेने लगे हैं जो गत पूरे महीने से उन के पास कहीं से कोई न्योता नहीं आया. वैसे तो हर दूसरे तीसरे दिन ही नामकरण, गृहप्रवेश, सत्यनारायण की कथा या फिर सुंदरकांड के लिए उन के पास निमंत्रण आते ही रहते हैं जिन्हें वे बड़ी ख़ुशीख़ुशी मैनेज भी कर लेते हैं. इन आयोजनों से उन की रोजीरोटी बड़े मजे से चलती रहती है. पर इस बार तो अति ही हो गई. पूरा महीना होने को आया किसी ने कुछ करवाया ही नहीं.

यों तो रोज ही वे 3 सोसाइटियों के मंदिर में सुबहशाम पूजापाठ करने जाते हैं जिस की उन्हें हर माह 8 हजार रुपए प्रति सोसाइटी के हिसाब से तनख्वाह मिलती है. सो, 24 हजार रुपए कुल तनख्वाह और ऊपर से चढ़ावे के तीनों सोसाइटीयों से 3 से 4 हजार रुपए तक आ जाया करते हैं पर असली कमाई तो यजमानों द्वारा घर बुला कर पूजापाठ करवाने से होती है जिस में वीवीआईपी ट्रीटमैंट, बढ़िया खाना, दानदक्षिणा और फलमेवा आदि मिलते हैं. यही सब सोचतेसोचते उन की आंख लगी ही थी और जब तक कि वे गहरी निद्रा में जा पाते तभी उन के मोबाइल की घंटी बज उठी. उन्होंने फोन उठाया तो सोसाइटी की ही एक निवासी मिसेज गुप्ता का फोन था.

“कैसे हैं पंडितजी? हम लोग कुछ दिनों पूर्व ही कैलाश मानसरोवर की यात्रा कर लौटे हैं, सोच रहे हैं कि कथा करवा लें. आप बताइए, कब करवाना ठीक रहेगा?”

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