दीवाली को धार्मिक त्योहार मानने की हमारी पुरानी परंपरा है और इस में पूजापाठ से धनधान्य पाने की कल्पना बहुत ज्यादा हावी रहती है. दीवाली असल में अब पूजापाठ, लक्ष्मीपूजन, स्नान, दानदक्षिणा का नहीं, खुशी का अवसर है. दीवाली ऐसा दिन है जिसे भारत के अधिकांश लोग कुछ नए से जोड़ते हैं और इस को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए.

दीवाली पर पूजापाठ से क्या लक्ष्मी मिलती है, इस पर अंधविश्वासों में फंसने से पहले कुछ जान लें.

सैकड़ों पौराणिक कथाएं हैं जो पूजापाठ व धनधान्य से जुड़ी हैं. वे सब अतार्किक और चमत्कारों वाली हैं. उन्हीं के चक्कर में लोग इस दिन बहुत सा समय और पैसा ही नहीं खर्च कर डालते, बल्कि बरबाद भी कर देते हैं.

एक कहानी देखिए- एक बार नारद मुनि ने वैकुंठ धाम पहुंच कर विष्णु से कहा कि प्रभु, पृथ्वी पर आप का प्रभाव कम हो रहा है. जो धर्म के रास्ते पर चल रहे हैं उन का भला नहीं हो रहा और जो पाप कर रहे हैं उन का खूब भला हो रहा है. यह सुन कर विष्णु ने कहा कि ऐसा नहीं है देवर्षि, नियति के अनुसार ही सब हो रहा है और वही उचित है. तब नारद ने कहा कि मैं ने स्वयं अपनी आंखों से देखा है. तब विष्णुजी ने कहा कि इस तरह की किसी एक घटना के बारे में बताओ.

तब नारद ने एक घटना का उल्लेख करते हुए बताया कि जब वे जंगल से गुजर रहे थे तब एक गाय दलदल में फंसी हुई थी. कोई उसे बचाने के लिए नहीं आ रहा था. उसी दौरान एक चोर आया. उस ने गाय को बचाया नहीं बल्कि उस पर पैर रख कर दलदल लांघ कर निकल गया.

आगे चल कर उसे सोने की मोहरों से भरी थैली मिली. फिर वहां से एक बूढ़ा साधु गुजरा. उस ने गाय को बचाने की पूरी कोशिश की और बचाने में कामयाब भी हो गया. लेकिन जब गाय को बचा कर वह साधु आगे गया तो एक गड्ढे में गिर गया. सो, बताइए, यह कौन सा न्याय है.

नारद की बात सुन कर प्रभु ने कहा कि जो चोर गाय पर पैर रख कर भाग गया था उस के भाग्य में तो खजाना था लेकिन उस के पाप के चलते उसे कुछ ही सोने की मोहरें मिलीं.

वहीं उस साधु के भाग्य में मृत्यु लिखी थी लेकिन उस ने गाय की जान बचाई. उस के इस पुण्य के चलते उस की मृत्यु टल गई और वह एक छोटी सी चोट में बदल गई. यही कारण था कि वह गड्ढे में जा गिरा.

ऐसे में इंसान का भाग्य उस के कर्म पर ही निर्धारित होता है. सत्कर्मों का प्रभाव ऐसा होता है कि दुखों और संकटों से मनुष्य का उद्धार हो जाता है.

इस कहानी में तर्क नहीं है. कहानी में उठाए गए सवालों का अतार्किक, इल्लौजिकल उत्तर विष्णु के मुंह से कहलवाया गया है ताकि कोई भक्त आपत्ति न कर सके.

दुखी और असंतुष्ट जीवन

आईटी और एआई के इस दौर में भी आम जिंदगी में इस तरह के पौराणिक किस्सेकहानियां चल रहे हैं और सोशल मीडिया पर दोहराए जा रहे हैं. ऐसे में यह सोचना लाजिमी है कि आखिर लोग क्यों इस हद तक तथाकथित भाग्य के मुहताज हैं कि वे तर्कों और कर्मों की उपेक्षा कर भाग्यवाद को बढ़ाने वाले किस्सों में फंस जाते हैं और अपनी उपलब्धि की वास्तविक खुशी को अनदेखा करते हुए ज्यादातर दुखी और असंतुष्ट रहना ही पसंद करते हैं. यह उन का ‘कम्फर्ट’ जोन है जो धार्मिक प्रचार की देन है.

पैसा लोग कमाते अपनी मेहनत से हैं लेकिन धर्म के बिचौलिए यह कह कर कायल कर देते हैं कि यह भगवान की देन है. इस की तह में एक साजिश है. पूजापाठ में पैसा खर्च करना होता है उन लोगों पर जो पूजापाठ कराते हैं.

यह एक धार्मिक टैक्स है, जिस का भुगतान लोग अपनी आमदनी के मुताबिक करते हैं. दीवाली पर भी दान दिया जाता है जो नकदी के अलावा अन्न के रूप में वस्त्र, भूमि, सोना, चांदी और गाय से ले कर गिलास और चम्मच तक होते हैं जिन्हें पंडेपुजारी लेते हैं. ये वे लोग हैं जो खुद मेहनत नहीं करते.

दुनिया का सब से चालाक वह व्यक्ति होगा जिस ने भगवान का आविष्कार किया और उस से भी ज्यादा वह चालाक होगा जिस ने भाग्य की कल्पना गढ़ी. भाग्य शब्द के माने बहुत साफ हैं कि होता वही है जो ईश्वर चाहता है. सुख, ऐश्वर्य, प्रसन्नता, पैसा वगैरह सब प्रभुकृपा से ही प्राप्त होते हैं और प्रभुकृपा उन्हीं लोगों पर होती है जो उस का पूजापाठ, भजन, ध्यान, आरती वगैरह करते हैं. अधिकतर लोगों ने बहुत सहज ढंग से बिना कोई तर्क किए मान लिया है कि दूसरी कई चीजों और सुखों की तरह पैसा और खुशी भी पूजापाठ से आते हैं, मेहनत से नहीं. मंदिर ही नहीं, मसजिदों, चर्च, गुरुद्वारों, बौद्ध विहार सब में यही होता है.

अगर ऐसा है तो फिर लोग पैसा कमाने के लिए मेहनत क्यों करते हैं, इस सवाल का जवाब बेहद जटिल और पेचीदा है जिस का कनैक्शन धर्म के ठेकेदारों ने सीधा भाग्य से जोड़ दिया है. जिंदगी भाग्यप्रधान है, इस वाक्य को महिमामंडित करते ऊपर बताई गई कहानी की तरह सैकड़ों-हजारों किस्से चलन में हैं. जिन का सार यह है कि अगर भाग्य में पैसा होगा तो आदमी को कुछ करने की जरूरत नहीं और अगर भाग्य में पैसा नहीं तो आदमी लाख पसीना बहा ले उसे पैसा नहीं मिलने वाला. इस की वजह से धर्म के बिचौलिए कि, ‘उन्हें पूजा करने पर भी कुछ नहीं मिला,’ अपने हर आरोप से निकल जाते हैं.

दीवाली पर खुशियां मनाई जानी चाहिए, रोशनी होनी चाहिए, मिलन होना चाहिए पर यहां से शुरू होता है पूजापाठ और अंधविश्वासों का बाजार भी, जिस की चपेट में हर कोई है.

असल में लोग जितने ज्यादा पूजापाठी और अंधविश्वासी होते जाते हैं उतनी ही खुशियां और पैसा भी उन से दूर होते जाते हैं. जो हर दीवाली लक्ष्मीगणेश की मूर्तियों के सामने बैठे घंटों पूजा करते रहते हैं उस से उन के पास लक्ष्मी यानी पैसा तो कभी आता नहीं, उलटे खर्च हो जाता है.

दीवाली महंगा त्योहार है जिस में पूजापाठ पर खर्च भी अनापशनाप होता है और लोग इसे खुशीखुशी इस आस में करते भी हैं कि आज कुछ हजार खर्च कर भी देंगे तो भगवान कल को उस से हजार नहीं तो सौ गुना कर के दे ही देगा.

जबकि, दीवाली मेहनत से मिलने वाले फल की उपलब्धि पर खुशी मनाने का त्योहार है, यह भाग्य चमकाने वाला नहीं. पूजापाठ से कुछ नहीं होता. इस के उदाहरण तो पौराणिक कहानियों में भी मिल जाते हैं.

ज्यादा अंधविश्वास, कम विकास

हर साल लक्ष्मीपूजन के बाद भी देश में क्यों भूखे हैं, क्यों गरीब हैं, क्यों लोग स्लमों में रहने को मजबूर हैं? इन सवाल का दोटूक जवाब यह निकलता है कि ये ज्यादा अंधविश्वासी हैं और अंधविश्वास इन की मेहनत पर पानी फेर देता है. हमारे यहां साइंटिस्ट नहीं हो रहे, कांवडि़यों, राम, कृष्ण और हनुमान सहित शिवभक्तों की भरमार है. दुनिया के बहुत देश इस तरह के अंधविश्वासों से गुजर कर विज्ञान और तर्क को अपना चुके हैं. जिस देश की पूरी पीढ़ी ही बुरी तरह से दकियानूसी, रूढि़वादी, पूजापाठी और अंधविश्वासी हो वह गरीबी को समाप्त नहीं कर सकता.

दुनिया में सब से ज्यादा और तेजी से अगर कोई देश तरक्की कर रहा है तो हर कोई जानता है कि वह चीन है जहां अनास्थावादी ज्यादा हैं जो न पूजापाठी हैं और न ही अंधविश्वासों में विश्वास करते हैं. वे विज्ञान और तर्क से जिंदगी चलाते हैं, इसलिए भाग्यवादियों के मुकाबले वे ज्यादा खुश रहते हैं. इस से मन का डर भी खत्म होता है कि ईश्वर को पूजापाठ के जरिए खुश करो तो वह मालामाल कर देगा और न करो तो कंगाल बना देगा. मेहनती व्यक्ति, मेहनती जाति और मेहनती देश इन पाखंडों से जितने दूर रहते हैं उतनी ज्यादा उन्नति करते हैं.

वर्ल्ड पौपुलेशन सर्वे 2023 के मुताबिक सब से ज्यादा 91 फीसदी नास्तिक चीन में हैं. ये लोग किसी ईश्वर, धर्म या पवित्र किताब के गुलाम नहीं हैं. नास्तिकों की संख्या के मामले में जापान दूसरे नंबर पर है. जापान के 86 फीसदी लोग किसी धर्म को नहीं मानते. स्वीडन तीसरे नंबर पर है जहां के 78 फीसदी लोग किसी धर्म या भगवान पर भरोसा नहीं करते.

इस शृंखला में भारत 60वें नंबर पर है जहां महज 6 फीसदी लोग ही खुद को नास्तिक बताते हैं बाकी 94 फीसदी भाग्यवादी और भगवानवादी हैं. वे किसी न किसी धर्म, ईश्वर, धर्मग्रंथ और चमत्कारी शक्तियों को मानते हैं जिन में ज्योतिष, तंत्रमंत्र वगैरह भी शामिल हैं. पूजापाठ, मंदिर, मसजिद, चर्च, गुरुद्वारे जैसे धर्मस्थल इन्हीं 94 फीसदी से गुलजार हैं. इन में भी बहुसंख्यक हिंदुओं का तो कहना ही क्या जिन का रोज कोई न कोई तीजत्योहार होता है. दीवाली को इस तरह के पूजापाठ के त्योहारों से अलग रखा जाना चाहिए. दीवाली चूंकि सब से बड़ा और खास त्योहार है इसलिए इस की चमकदमक देखते ही बनती है.

खुशी में भी फिसड्डी

अब एक और शर्म की बात खुशी की. दीवाली का त्योहार मशहूर है कि इस दिन लोग खुश रहते हैं, तरहतरह के पकवान खाते हैं, नए कपड़े पहनते हैं, आतिशबाजी चलाते हैं, घर रोशन करते हैं वगैरहवगैरह.

इसी साल 20 मार्च को जारी हुई वर्ल्ड हैप्पीनैस रिपोर्ट के मुताबिक 143 देशों में भारत 126वें नंबर पर है, यानी दुखियारों के मामलों और गिनती में हम टौप 20 में हैं. इस रैंकिंग में हम इतने नीचे हैं. इस का सीधा सा मतलब यह है कि देश के लोग खुश नहीं हैं. लीबिया, इराक, फिलिस्तीन और नाइजर जैसे देश भी भारत से बेहतर स्थिति में हैं. इस इंडैक्स के प्रमुख पैमाने अगर पूजापाठ होते तो तय है हम 7 साल से पहले नंबर पर काबिज फिनलैंड को भी धकिया देते लेकिन इस के प्रमुख पैमाने जीवन प्रत्याशा, सामाजिक बंधन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और भ्रष्टाचार हैं.

भष्टाचार में भी भारत दुनियाभर के देशों का गुरु है. ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल ने इसी साल 30 जनवरी को 180 देशों में भ्रष्टाचार पर एक रिपोर्ट जारी की है जिस के मुताबिक भारत में भ्रष्टाचार बढ़ा है.

करप्शन इंडैक्स में हम अब 93वें पायदान पर आ गए हैं जबकि 2022 में 85वें स्थान पर थे. 180वे नंबर पर रहने वाला सोमालिया सब से भ्रष्ट और पहले नंबर पर रहने वाला डेनमार्क सब से कम भ्रष्ट है जो खुशहाली के मामले में दूसरे नंबर पर है.

पूजापाठ से अगर खुशी आ रही होती, पैसा मिल रहा होता, सुख, समृद्धि, संपन्नता और स्वास्थ्य मिलते होते तो हैप्पी दीवाली कहने और सुनने दोनों में वाकई खुशी और संतुष्टि दोनों मिलते लेकिन ऐसा है नहीं, यह कई मौकों पर उजागर होता रहता है. कोरोनाकाल इस का जीवंत और बेहतर उदाहरण है.

कोविड से उजागर हुआ था सच

कोविड 19 का भयावह दौर लोग मुद्दत तक नहीं भूल पाएंगे, जब मौत हर किसी के सिर पर खड़ी थी. कब कौन मर जाए, इस की कोई गारंटी नहीं थी. कोरोना वायरस से बचने के लिए लोगों ने जम कर पूजापाठ किया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हुक्म पर खूब तालीथाली बजाई गई थी. लेकिन मौतों का सिलसिला बजाय कम होने के और बढ़ गया था. पूरी दुनिया सहित भारत भी दहशत में था. यह दहशत दोहरी इस लिहाज से थी कि कोरोना का कोई इलाज नहीं था और लोगों को सिवा भगवान के कुछ नहीं दिख रहा था जो खुद लौकडाउन के चलते ताले में बंद कर दिया गया था.

इस श्राप से बचाने के लिए कोई देवीदेवता, अल्लाह या जीजस या कोई और आगे नहीं आया तो लोगों का ऊपर वाले से भरोसा उठने लगा था और लोग दवाइयों पर विश्वास करने लगे थे. पहली बार लोगों को विज्ञान की अहमियत समझ आई थी और जब इस महामारी का वैक्सीन वैज्ञानिकों ने बहुत कम वक्त में खोज निकाला तो लोगों ने राहत की सांस ली. लेकिन बहुत कम लोगों ने ही विज्ञान और वैज्ञानिकों को इस का श्रेय दिया. अधिकतर लोग इसे भी भगवान की देन और लीला मानते रहे और सबकुछ सामान्य हो जाने के बाद फिर धर्मस्थलों पर जा कर धार्मिक टैक्स भरने लगे. यह ठीक वैसा ही था जैसे पैसा मिल जाने का श्रेय ऊपर वाले को दिया जाता है और न मिलने पर या कम मिलने पर लोग अपनी किस्मत को दोष देते खामोश हो जाते हैं.

भाग्य प्रधान विश्व रचि राखा

धर्म ने कभी लोगों को यह नहीं बताया और सिखाया कि मेहनत से खुशी और पैसा और उस से भी ज्यादा अहम आत्मसंतुष्टि मिलती है.

धर्म के दुकानदारों को मालूम है कि पैसा पेड़ पर नहीं उगता, इसलिए लोग इसे कमाएंगे ही कमाएंगे. उन का मकसद सिर्फ इतना रहता है कि लोग जितना भी कमाएं उस का बड़ा हिस्सा उन्हें धार्मिक टैक्स की शक्ल में देते रहें. जिस से उन्हें मेहनत न करनी पड़े.

सालभर लोग विभिन्न तीजत्योहारों पर चढ़ावा देते ही रहते हैं. उसे झटकते रहने के लिए दीवाली को लक्ष्मी का त्योहार बना डाला गया जिस से लोग मेहनत से हासिल की गई कमाई का श्रेय खुद न लेने लगें.

अब अगर मेहनत, किस्मत और खुशी की बात की जाए तो लोगों का यह पूछना बहुत आम है कि कई बार क्या, अकसर ही ज्यादा मेहनत करने वालों को कम पैसा मिलता है, ऐसा क्यों? अगर पैसा सिर्फ मेहनत से आ रहा होता और भाग्य का उस में कोई रोल न होता तो सब से ज्यादा आमदनी किसानों और मजदूरों की होनी चाहिए. यह सवाल कतई तर्कसंगत नहीं है जिस का पहला जवाब तो यही है कि क्या सभी पूजापाठियों को उम्मीद के मुताबिक पैसा मिलता है? जवाब है नहीं. अगर मिलता होता तो देश में कोई गरीब ही न होता.

पूजापाठ का रोग अब निचले स्तर तक महामारी सरीखा पसर गया है. गरीब से गरीब आदमी भी लक्ष्मीपूजन पूरे तामझाम से करता है, फिर भी वह गरीब है. उसे जो भी मिलता है वह उस की मेहनत से मिलता है और उस का भी बड़ा हिस्सा वह इन्हीं धार्मिक प्रपंचों में खर्च कर देता है.

रही बात कमज्यादा की, तो यह शिक्षा, स्किल और मेहनत के अलावा लगन और मिलने वाले मौकों पर भी निर्भर करता है. अधिकतर किसानमजदूर अर्धशिक्षित हैं, इसलिए कम कमा पाते हैं. उन का शोषण भी इसी अज्ञान और अशिक्षा के चलते जम कर होता है. उन्हें भी एक साजिश के तहत भाग्यवादी बना दिया गया है और अब हिंदू एकता के नाम पर फुसलाया जा रहा है. इस के लिए उन में मुसलमानों का डर जम कर फैलाया जा रहा है.

अधिकतर गरीब छोटी जातियों वाले हैं जिन के दिमाग में सदियों से ठूंसठूंस कर यह बात भर दी गई है कि तुम पिछले जन्मों के कर्मों और पापों के चलते छोटी जाति वाले और गरीब हो और अगर अगले जन्म में इस का दोहराव नहीं चाहते तो इस जन्म में दानपुण्य और पूजापाठ करते रहो, सारी दरिद्रता दूर हो जाएगी.

जो मामूली तादाद में दलित आरक्षण के चलते सरकारी नौकरियों में आ कर ठीकठाक जिंदगी जी रहे हैं वे भी यथास्थिति बनाए रखने के लिए पूजापाठी होते जा रहे हैं. एक तरह से उन्हें अछूत सवर्ण होने की मान्यता मिलने लगी है. रही बात मिडल क्लास की, तो उन्हें यह कहानी सुना कर बहला दिया जाता है कि भिखारी था जो रोज भगवान के नाम पर भीख मांगता रहता था लेकिन उसे पेट भरने और जिंदा रहने लायक ही भीख मिलती थी.

एक बार विष्णु और लक्ष्मी भ्रमण पर निकले तो लक्ष्मी को उस भिखारी पर दया आ गई. पहले उन्होंने विष्णु से कहा कि हे नाथ, यह भिखारी दिनभर आप का नाम लेता रहता है. इस के बाद भी इतना दरिद्र है, ऐसा क्यों? इस पर विष्णु ने कहा कि धन इस के भाग्य में ही नहीं है तो मैं भी कुछ नहीं कर सकता. यह हमेशा ही गरीब रहेगा. इस जवाब पर लक्ष्मी ने कहा तो ठीक है, मैं इसे धनवान बनाए देती हूं. जिस रास्ते से भिखारी को गुजरना था उस पर लक्ष्मी ने पैसों और गहनों की पोटली रख दी कि भिखारी इन्हें उठाएगा और उस की गरीबी दूर हो जाएगी. इस पर विष्णु मंदमंद मुसकराते हुए तमाशा देखते रहे.

उस दिन भिखारी को लगा कि अगर अंधे हो कर भीख मांगी जाए तो ज्यादा मिलेगी, इसलिए वह आंखें बंद कर चलने की प्रैक्टिस करने लगा और आंखें बंद किए ही रास्ता पार कर गया. वे पोटलियां उसे दिखी ही नहीं.

इस तरह की कहानियां जानबूझ कर लिखी गई हैं ताकि लोग पूजापाठ और भाग्य पर अपना विश्वास कायम रखें. जबकि दीवाली का त्योहार नई उमंगों, नए प्रकाश, नए रिश्तों, नए उत्साह का त्योहार है. यह ऐसा त्योहार है जिस में शहर के शहर, गांव के गांव चमचमाने लगते हैं. यह हताशा और गरीबी पर आशा और परिश्रम का गुणगान करने वाला त्योहार है जिसे पूरा देश मिल कर मनाता है.

रोशनी व खुशियों का त्योहार

दीवाली धन का सम्मान करने का दिन है. उस धन के सम्मान का दिन, जिसे आप ने मेहनत से पाया है और इसलिए उसे मनाने में कुछ ज्यादा करने से न कतराएं. बस, यह ध्यान रखें कि प्रकाश में, दीयों में, रोशनियों में, पटाखों में (जहां भी इन की अनुमति है) आप खुद ऐसा हादसा न कर बैठें जो खुशी को कम कर दे.

आप की दीवाली प्रकाशमयी हो, आप को दीवाली हर नई खुशी दे, यह आप को स्फूर्ति दे, यही इस खुले त्योहार का आमंत्रण है.

यह ऐसा त्योहार है जिसे लोग घरों में बंद रह कर नहीं मनाते, घर को बाहर से भी प्रकाशमय कर के मनाते हैं. वे यह बताते हैं कि उन की रोशनी अमावस्या की काली रात को दूर कर सकती है. यह अंधेरे पर आदमी के परिश्रम का अवसर है. जीभर कर दीवाली मनाइए. पूरी रात मनाइए. सब के साथ मनाइए. पूरी तैयारी के साथ मनाइए. पूरे वर्ष अच्छे दिनों की कामनाओं के साथ मनाइए.

यह अकेला अवसर है जिस दिन आप अपने घर को बाहर से रोशन कर के अपनी खुशी अनजानों के साथ सांझ कर सकते हैं.

इतने गरीब हैं हम

दुनियाभर में हम कहां खड़े हैं, इस की शुरुआत प्रतिव्यक्ति औसत आय से करें तो आईएमएफ की इसी एक जुलाई को जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारतीयों की औसत आमदनी 2.28 लाख रुपए है जबकि उस की जीडीपी 3.94 ट्रिलियन डौलर है. इसी को बड़े गर्व से हमारे प्रधानमंत्री और उन की सरकार अकसर गाया करते हैं कि आज हम दुनिया की 5वीं सब से बड़ी इकोनौमी हैं. 28.78 ट्रिलियन डौलर की पहले नंबर की जीडीपी वाले अमेरिका की प्रतिव्यक्ति औसत आय भारत से लगभग 31 गुना ज्यादा 71.30 लाख रुपए है. इस लिस्ट में अमेरिका 1960 से टौप पर है. जीडीपी के मामले में चीन दूसरे नंबर पर है, जहां प्रतिव्यक्ति औसत आय 10.97 लाख रुपए है.

जरमनी की जीडीपी 4.59 ट्रिलियन डौलर है लेकिन वहां प्रतिव्यक्ति औसत आमदनी 45.34 लाख रुपए है. जीडीपी के मामले में जापान 4.11 लाख ट्रिलियन डौलर के साथ चौथे नंबर पर है जहां प्रतिव्यक्ति औसत आय 27.67 लाख रुपए है. यूके की जीडीपी भारत के बाद 6ठे नंबर पर 3.50 ट्रिलियन डौलर है लेकिन वहां प्रतिव्यक्ति औसत आय 42.65 लाख रुपए है. फ्रांस की जीडीपी 3.13 ट्रिलियन डौलर है और प्रतिव्यक्ति औसत आय 39.55 लाख रुपए है. ब्राजील 2.33 ट्रिलियन डौलर की जीडीपी के साथ 8वें नंबर पर है लेकिन उस की प्रतिव्यक्ति औसत आय 9.48 लाख रुपए है. 9वे नंबर पर इटली है जिस की जीडीपी 2.33 ट्रिलियन डौलर और प्रतिव्यक्ति औसत आय 33.05 लाख रुपए है. टौप 10 देशों में 10वें नंबर पर कनाडा है जिस की जीडीपी 2.24 ट्रिलियन डौलर है लेकिन प्रतिव्यक्ति औसत आमदनी 45.62 लाख रुपए है.

जाहिर है, हमारे देश के कर्णधार 5वीं सब से बड़ी अर्थव्यवस्था का फटा ढोल पीटते रहते हैं लेकिन वे यह नहीं बताते कि प्रतिव्यक्ति औसत आय के मामले में हम फिसड्डी क्यों हैं. घोषित तौर पर जिस देश में 80 करोड़ और अघोषित तौर पर कोई 120 करोड़ लोग गरीब हों उस देश के लोगों को पूजापाठ करने की नहीं बल्कि मेहनत करने की जरूरत है.

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