भारत से भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी मिटाने की अंतिम आस भी आस्ट्रेलिया ले गया. विश्व कप क्रिकेट के दौरान कामधंधा छोड़, मोहमाया से इतर, राष्ट्रीयता से ओतप्रोत 140 करोड़ भारतीयों की दीवानगी और उन के सपनों पर कंगारुओं द्वारा गरम पानी डालना देख कर मेरी तो आंखें भर आई हैं. काश, इंडिया जीत जाता की कसक को दिल में समेटे हर भारतीय दर्शक आस्ट्रेलिया को ट्रौफी ले जाते हुए ऐसे देख रहा था जैसे मोहल्ले के लौंडे की सेटिंग को कोई सरकारी नौकरी वाला दुल्हा ब्याह कर ले जाता है.

भारत और पड़ोसी देश पाकिस्तान तक दर्शकों का क्रिकेट के प्रति पागलपन ऐसा लग रहा था कि विश्व कप ट्रौफी आने से देश में खुशहाली और समृद्धि आ जाएगी और विजेता राष्ट्र विश्वगुरू बन जाएगा. वर्तमान डिजिटल वर्ल्ड में जहां प्रत्येक तीसरा मनुष्य वायरल होने के लिए व्यथित और व्यग्र नजर आ रहा है, समाजसेवी नेता की बजाय स्वयंसेवी के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपना रहा है तो इस वर्ल्ड कप और दर्शकों की खुमारी देख कर मेरे मन में भी एक इच्छा ने गर्भधारण कर लिया.

इच्छाओं का प्रजनन एक सतत और अनवरत मानसिक प्रक्रिया है. एक दबीदबी सी इच्छा मनमस्तिष्क में कुकुरमुत्ते की तरह पनप आई जो इस जीवन में पूर्ण होने से रही. ऐक्टर अथवा पौलिटिकल कैरेक्टर की बजाय मैं अगले जन्म में भारतीय क्रिकेटर बनना चाहता हूं. राष्ट्रीय मिठाई जलेबी की तरह गोलगोल घुमाने की बजाय इस इच्छा के पनपने का कारण भी बता देता हूं.

दरअसल, बचपन से ही हमें 'पढ़ोगेलिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगेकूदोगे बनोगे खराब..." की जन्मघुट्टी श्लोक पिलाया गया और हम ने खेल और खेलने वाले मित्रों से दूरी बनाते हुए सिर्फ कागज और कलम में जीवन को खपा दिया. जब हम मैट्रिक बोर्ड में स्टेट टौपर बनने के लिए ढिबरी की ज्योति और नेत्र ज्योति के साथ संघर्ष कर रहे थे तो पढ़ाईलिखाई से कोसों दूर खराब बनने की पथ पर अग्रसर हमउम्र के लड़के अंडर-17 के लिए तैयारी कर रहे थे.

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