26 नवंबर को संविधान दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने बुद्धिजीवियों से भरी एक सभा को संबोधित करते हुए बड़े ही भावुक अंदाज में एक बात पूछी, ‘‘अगर देश विकास की तरफ अग्रसर है तो देश में और अधिक जेलें बनाए जाने की जरूरत क्यों है? इन की संख्या तो कम हो जानी चाहिए?’’ सवाल के निहितार्थ गहरे और गंभीर हैं. राष्ट्रपति जिस पृष्ठभूमि से आती हैं वहां उन्होंने जो कुछ देखा, सहा और महसूस किया, वह सब उन की बातों में ?ालकता है.
कुछेक अपवाद छोड़ दें तो अकसर यही देखा गया है कि देश के सर्वोच्चतम संवैधानिक पद पर बैठे राष्ट्रपति लिखित, औपचारिक भाषण देने के अलावा अपने मन की भावना प्रकट करने से परहेज करते हैं. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के नक्शेकदम पर चलते हुए सरकारी परंपरा को निभाने के साथ ही अपने दिल की बात को सार्वजनिक रूप से कहने का जो हौसला जुटाया है, वह हमारे लोकतंत्र के लिए एक मिसाल है. सभा के सामने उठाए गए उन के इस सवाल पर केंद्र सरकार, गृह मंत्रालय, सभी राज्य सरकारों, देशभर के न्यायालयों, सुप्रीम कोर्ट और पूरी पुलिस व्यवस्था को सोचने और विचार करने की जरूरत है.
देश में जेलों की संख्या बढ़ने का मतलब साफ है कि देश में क्राइम का ग्राफ बढ़ रहा है. इस का मतलब है कि लोग पहले से कहीं अधिक संख्या में आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो रहे हैं. बढ़ती आबादी कुछ हद तक इस के लिए जिम्मेदार हो सकती है लेकिन जिस प्रकार के दावे केंद्र सरकार द्वारा किए जा रहे हैं उन के विपरीत लोगों के पास रोजगार नहीं है, वे शिक्षित नहीं हैं, उन के पास घर चलाने के लिए संसाधन नहीं हैं, बच्चों के भूखे पेट भरने के लिए रोटी नहीं है, इसलिए वे अपराध के रास्ते इख्तियार कर रहे हैं. ऐसे में मोदी सरकार के विकास के दावे बेमानी हैं. भारत सरकार युवाओं को रोजगार से जोड़ने की बात कह कर जो ढोल पीट रही है वे बातें ढोल की तरह ही खोखली हैं. विवादास्पद दार्शनिक रहे ओशो रजनीश ने बरसों पहले कहा था, ‘‘अगर आप को किसी देश के चरित्र का पता लगाना है तो वहां बनी जेलों की गिनती कर लीजिए. जितनी ज्यादा जेलों की संख्या होगी, उतना ही ज्यादा वहां के लोगों का चरित्र गिरा हुआ होगा और वहां अपराधों का बोलबाला होगा.’’
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