अतीत की गौरवगाथा व स्वर्णिम इतिहास को अपने आंचल में समेटे पश्चिमी राजस्थान में थार के
विशाल रेगिस्तान में अंतिम छोर में बसा है जैसलमेर. इस के चारों ओर पहले कभी पालीवाल ब्राह्मणों के अत्यंत ही कलात्मक 84 गांव बसे हुए थे. वे सभी गांव एक ही रात में ऐसे उजड़ गए, जोकि आज तक फिर बसने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. पालीवालों के 84 गांव अब कलात्मक खंडहरों के रूप में ही नजर आते हैं.
इन 84 गांवों में पालीवालों के 20 हजार घर थे, जिन में करीब एक लाख एक हजार 340 परिवार रहते थे. पालीवालों के वीरान पड़े इन गांवों में भवन निर्माण कला सचमुच दर्शनीय हैं.

ये मकान वैदिक कालीन आर्यों तथा प्राचीन यूनानी कला के उत्कृष्ट नमूने हैं. आज से करीब 200 साल पहले जैसलमेर रियासत के तत्कालीन दीवान सालिम सिंह की हठधर्मिता व क्रूरता के साथसाथ धनलिप्सा के लिए मशहूर इस दीवान के हाथों इन पूरे के पूरे गांवों को एक ही रात में उजाड़ कर पालीवालों को यहां से जाने के लिए मजबूर कर दिया था. उन के जाने के बाद सालिम सिंह ने उन की अपार धन संपदा पर अपना अधिकार जमा लिया था.

बाद में कुछ अन्य जाति के लोगों ने कुछेक गावों में डेरा अवश्य डाला, लेकिन अधिकांश गांव आज भी शापित माने जाते हैं, जो वीरान व निर्जन अवस्था में हैं. वहां कोई भी बसने को तैयार नहीं है.
उजड़े हुए इन गांवों की विशेषता भी कम रोचक नहीं है. चारों तरफ रेत ही रेत व साल में लगभग 6 महीने यहां चलने वाली रेतीली आंधियों के बावजूद यहां रेत जमा नहीं होती, बल्कि पालीवालों द्वारा बसाए गए जिले के ओला गांव में तो हाथ धोने की रेत तक नजर नहीं आती है, जबकि गांव के चारों ओर रेत के टीले नजर आते हैं.

दरअसल, पालीवालों ने बड़ी ही बुद्धिमत्ता से छोटीछोटी पहाडि़यों के बीच अपने गांव नगर की भांति बसाए थे. इस क्षेत्र में होने वाली मामूली वर्षा का पानी भी सहेज कर रखा जाता था. यहां के बने तालाब भी उस पानी से भरे रहते थे, जो पूरे साल पालीवालों के सूखे कंठों की प्यास बुझाने में के लिए काफी थे. हालांकि यहां के पालीवाल मूलरूप से किसान थे व उन्होंने अपनी खेती के लिए सिंचाई प्रबंध ऐसी विधि से कर रखे थे कि वैज्ञानिक भी उन की क्षमता देख कर हैरान रह जाते हैं.

पालीवाल ब्राह्मणों के घरघर में उन्नत किस्म का पशुधन भी था, जिन में गाएं, ऊंट, बैल व घोड़े भी थे. यहां के गांवों में कलात्मक घुड़शालाएं भी हैं तथा हर घर के बाहर बैलगाड़ी खड़ी करने के लिए अलग से कमरे भी बने हुए हैं. यहां के वीरान गांवों में पीले पत्थरों से बने कलात्मक संगोष्ठी भवन भी देखे जा सकते हैं तो कई छतरियां भी.उन्नत किसान होने के साथसाथ पालीवाल समृद्ध व्यापारी भी थे. ये मुख्यत: अनाज, घी, ऊन व पशुधन की खरीदफरोख्त करते थे. पालीवाल समृद्धशाली तो थे ही, इसलिए अपने आप को लूटपाट से बचाने की भी इन में अनूठी कला थी. गांवों में इन के मकान कतारबद्ध बने हुए हैं.

इन मकानों में पहले मकान से ले कर आखिरी मकान तक एक ही सीध में आरपार आवाज पहुंचाने के लिए गोलाकार छेद (बारी) बने दिखाई देते हैं. यहां के गांवों में ‘खाबा’ तथा ‘कुलधरा’ नामक विशाल व्यापारिक मंडिया भी थीं. पालीवाल विदेशों से भी लेनदेन करते थे. व्यापार के लिए ऊंटों व बैलगाडि़यों को काम में लिया जाता था.ये लोग सिंध, बलूचिस्तान व अफगानिस्तान से व्यापार करते थे. साधन व धनसंपदा संपन्न होने के कारण ही पालीवालों का जीवन ऐश्वर्यपूर्ण था.

रेत के समंदर में पालीवालों के उन्नत गांव, कलात्मक भवन, विशाल तालाब, कीर्ति स्तंभ छतरियां, चौकियां, विशाल मंदिर, कुएं देवलियां, पटियाले, तुलसी चौरे इत्यादि क्या कुछ नहीं है इन के गांवों में. लेकिन अब सब कुछ सूना है व यहां पाकिस्तान से आए कुछ शरणार्थियों ने खाबा के पास अपने मकान जरूर बना लिए हैं, लेकिन मुख्य गांव तो अब भी जनशून्य ही हैं.

जैसलमेर के महारावल मूलराज द्वितीय के दीवान मेहता सालिम सिंह ने अपने अनवरत जुल्मों से भले ही पालीवालों को अपने गांवों से बेदखल कर दिया हो, लेकिन आज जब जैसलमेर के चारों ओर घनी आबादी हो और ऐसे में यह गांव अब भी सूने पड़े हों तो यह कौतूहल का विषय अवश्य बना रहता है.
विश्व के कोनेकोने से स्वर्णनगरी जैसलमेर में आने वाले देशी व विदेशी पर्यटक ये गांव देख कर हैरानी में पड़ जाते हैं.

ब्रिटिश जज सर गोडन सीलीन ने इन गांवों का अवलोकन कर पालीवालों के गांवों की तुलना ग्रीक के खंडहरों से की थी. यहां की मरूभूमि को समृद्ध और वैभवशाली बनाने वाले पालीवालों के यहां से जाने पर जैसलमेर की समृद्धि व श्रीवृद्धि भी यहां से हमेशाहमेशा के लिए चली गई. आधुनिकता के दौर में पता नहीं क्यों आज भी ये 84 गांव मानो शापित से ही लगते हैं?

लेखक- चैतन चौहान

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