6 सितंबर को भारत में उस समय इंद्रधनुषी छटाएं बिखर गईं जब सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक रिश्तों को अपराध की श्रेणी से हटा कर उन पर कानूनी मुहर लगा दी. नागरिक अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के इस फैसले से धर्म की संकीर्णता की घुटन में छटपटा रहे प्रेमपरींदे कैद से मुक्त हो कर खुले आसमान में आजाद उड़ते नजर आने लगे. लाखों लोगों के होंठों पर सतरंगी मुसकानें खिल उठीं. समलैंगिक समुदाय में खुशी की लहर है. इस फैसले को ऐतिहासिक मानते हुए उदार और प्रगतिशील लोगों ने खुशी जाहिर की है.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सदियों पुरानी मान्यता, जड़ता और मूर्खता परास्त हो गई. यह फैसला नैतिकता के ठेकेदारों को करारा जवाब है. सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की संविधान पीठ द्वारा सर्वसहमति से सुनाया गया यह फैसला ऐतिहासिक है.
सुप्रीम कोर्ट को अपने ही फैसले को पलटना पड़ा है. दिल्ली हाईकोर्ट ने जुलाई 2009 में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था.
2009 में हाईकोर्ट में कांग्रेस सरकार की ओर से कहा गया था कि समलैंगिकता अनैतिक है. इसे अपराध की श्रेणी से बाहर किए जाने से समाज का नैतिक पतन होगा. धार्मिक मान्यताओं के आधार पर समलैंगिक संबंधों पर प्रतिबंध लगाने की केंद्र सरकार की दलील पर हाईकोर्ट नाराज हुआ और केंद्र को वैज्ञानिक दृष्टिकोण पेश करने का निर्देश दिया था. हालांकि ताजा फैसले में केंद्र सरकार ने डर कर कोई पक्ष नहीं लिया. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर छोड़ दिया ताकि उसे भगवा तत्त्वों का अंदरूनी विरोध न सहना पड़े.
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने धारा 377 के हिस्से को तर्कहीन, मनमाना और बचाव नहीं करने योग्य करार दिया. जजों के फैसले में व्यक्ति की पसंद, प्रेम, एहसास, यौन संबंध, निजता की खूबसूरत व्याख्या की गई है. फैसले में समाज की धार्मिक मान्यताओं, पूर्वाग्रहों, संकीर्णता की धज्जियां उड़ाई गई हैं.
मुझे वही समझें जो मैं हूं
अदालत का फैसला पढ़ने में बहुत रुचिकर है. सदियों से चली आ रही भ्रांतियां अदालत की व्याख्याओं के सामने टिक नहीं पाईं. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा समेत जस्टिस आर एफ नरीमन, ए एम खानविलकर, डी वाई चंद्रचूड़ और इंदू मल्होत्रा ने फैसले में कई विश्वप्रसिद्ध लोकतांत्रिक उदारवादियों, लेखकों, दार्शनिकों, बुद्धिजीवियों की बातों का जिक्र किया. उन्होंने जरमन चिंतक गेटे, शेक्सपियर, शेपेनहावर, जौन स्टुअर्ट मिल को उद्धृत किया है.
संविधान पीठ ने अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया की अदालतों के निर्णयों का भी हवाला दिया. फैसले में मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के अलावा अदालत ने इंडोनेशिया में मानवाधिकार और यौन रुझान तथा लैंगिक पहचान पर हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का भी जिक्र किया. 493 पृष्ठों के फैसले में न्यायाधीशों की ओर से यह प्रतिध्वनि उजागर हुई है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता, निजता के अधिकार सर्वोपरि हैं. कोर्ट ने कहा कि 2 व्यक्तियों के निजी और अंतरंग संबंध निजता है.
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपने फैसले में कहा कि संवैधानिक लोकतंत्र का उद्देश्य समाज का प्रगतिवादी बदलाव की अवधारणा रखता है. प्रगतिवादी व्याख्या में न केवल व्यक्तिगत अधिकारों और सम्मान से जीने की मान्यता शामिल है, यह ऐसा वातावरण भी तैयार करता है जिस में हर व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उत्थान का उचित अवसर मिलता हो. गरिमा, पहचान और निजता की सुरक्षा करना हमारे संविधान की पहचान है.
दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर ने अपनी बात जरमन कवि और चिंतक योहान गेटे को उद्धृत करते हुए लिखी है कि, ‘मैं जो हूं, सो हूं, इसलिए मुझे वही समझें, जो मैं हूं.’ इस के बाद वे जरमन विद्वान आर्थर शोपेनहावर की एक लाइन का जिक्र करते हैं कि, ‘कोई अपनी शख्सियत से पीछा नहीं छुड़ा सकता.’
शेक्सपियर के नाटक का हवाला दिया गया. फैसले में कहा गया कि नाटक का एक किरदार कहता है कि नाम में क्या रखा है. हम गुलाब को किसी और नाम से पुकारें, उस की महक वैसी ही रहेगी.
इस संवाद की मूल भावना यही है कि किसी भी चीज की मौलिक खूबियां माने रखती हैं न कि वह किस नाम से पुकारा जाता है. इस के अर्थ की गहराई में उतरेंगे तो समझ आएगा कि पहचान की सुविधा के लिए नाम भले ही जरूरी हो पर इस के पीछे सार वही पहचान का मूल है. बिना पहचान के नाम का काम सजावटी रह जाता है, इसलिए किसी के होने के लिए पहचान जरूरी है.
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि यह कानून 150 साल पहले बना. इस के 87 वर्षों बाद भारत आजाद हुआ और यह कानून आज तक बना रहा. समलैंगिक समुदाय को भी दूसरों की तरह समानता का अधिकार हासिल है. यौन प्राथमिकताओं को 377 के जरिए निशाना बनाया गया. राज्य का काम किसी नागरिक की निजता में घुसपैठ करना नहीं है.
माफी मांगे इतिहास
जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने कहा कि इतिहास को समलैंगिक समुदाय, समलैंगिकों के परिवारों से माफी मांगनी चाहिए. सदियों से हो रहे भेदभाव, यातना से इंसाफ मिलने में जो देरी हुई है उस के लिए माफी मांगनी चाहिए. इस समुदाय के लोगों को डर का जीवन जीने के लिए मजबूर किया गया. बहुसंख्यक समाज ने मान्यता देने में नासमझी की कि समलैंगिकता पूरी तरह से प्राकृतिक है और इंसानी यौन प्राथमिकताओं के विशाल दायरे का एक हिस्सा है. धारा 377 का गलत इस्तेमाल अनुच्छेद 12 से मिले समानता के मौलिक अधिकार, अनुच्छेद 15 से मिले बिना किसी भेदभाव के मौलिक अधिकार और अनुच्छेद 21 से मिले निजता के अधिकार से वंचित कर रहा था. समलैंगिकों को बिना किसी शिकंजे के जीने का अधिकार हासिल है.
कोर्ट ने यह भी कहा कि भारत ने एलजीबीटीक्यू अधिकारों के लिए अंतर्राष्ट्रीय संधियों पर दस्तखत किए हैं और उस के लिए इन संधियों के प्रति प्रतिबद्ध रहना जरूरी है.
2009 में हाईकोर्ट ने सहमति के आधार पर वयस्कों में समलैंगिक संबंधों को वैध ठहराया था, लेकिन 11 दिसंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया था. साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने 150 साल से अधिक पुराने कानून की धारा 377 पर फैसला करने का सवाल संसद पर छोड़ दिया था. 2013 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया था कि पिछले 150 से अधिक सालों में धारा 377 के तहत केवल 200 लोगों को ही दंडित किया गया है.
2009 में हाईकोर्ट द्वारा समलैंगिकता को वैध ठहराने पर दिल्ली के एक ज्योतिषी और भाजपा नेता बी पी सिंघल ने सुप्रीम कोर्ट में फैसले के खिलाफ याचिका दाखिल की थी.
संविधान पीठ ने 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना भी की. कहा गया कि किसी कानून को बनाए रखने का यह आधार नहीं हो सकता कि उस का दुरुपयोग बहुत कम हुआ है.
समलैंगिता अपराध नहीं
देश में धारा 377 को रानी विक्टोरिया के ब्रिटिश शासन के दौरान 1861 में लागू किया गया था. इस के तहत अगर कोई इंसान स्वेच्छा से अप्राकृतिक शारीरिक संबंध किसी महिला, पुरुष या जानवर के साथ स्थापित करता है तो उसे 10 साल से ले कर आजीवन कारावास के साथ जुर्माने का प्रावधान है. धारा 377 के अंतर्गत समलैंगिकता एक गैरजमानती अपराध है.
इस कानून से अमेरिका और यूरोप खुद को मुक्त कर चुके हैं. भारत और अन्य कई देशों में यह कानून अभी बना हुआ है. एक रिपोर्ट के अनुसार, करीब 72 देशों में आज भी समलैंगिकता अपराध है. पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, इंडोनेशिया, सिंगापुर, मौरीशस और अरब देशों में समलैंगिकता को ले कर कड़े कानून मौजूद हैं. ईरान, सूडान और सऊदी अरब जैसे देशों में मृत्युदंड का प्रावधान है.
हमारे यहां समलैंगिकता को ले कर व्यापक बहस छिड़ी. इसे ले कर कई गैरसरकारी संगठनों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया. 2015 में सांसद शशि थरूर ने संसद में निजी बिल रखा था, हालांकि यह बिल गिर गया था.
सब से पहले नाज फाउंडेशन ने आवाज उठाई थी. इस संगठन ने 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर समान लिंग के 2 वयस्कों के बीच यौन संबंध को अपराध घोषित करने वाले प्रावधान को गैरकानूनी बताया था. आईपीसी की इस धारा से संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के उल्लंघन और मौलिक अधिकारों के हनन का हवाला देते समलैंगिकता की पैरवी करते हुए अदालत से इसे खत्म करने की मांग की गई थी.
देश में समलैंगिकों की कोई आधिकारिक जनसंख्या नहीं है, पर 2012 में सुप्रीम कोर्ट में बताया गया था कि यहां एलजीबीटीक्यू की आबादी लगभग 25 लाख है. यह संख्या भारत की कुल जनसंख्या को देखते हुए मामूली है, फिर भी इन के अधिकारों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए.
पुराने समय से मौजूद है
ऐसा नहीं है कि धारा 377 का विरोध किसी खास जाति, धर्म या वर्ग के लोग कर रहे हैं. हिंदू, मुसिलम, ईसाई, सिख सभी धर्मों ने न सिर्फ समलैंगिकता को गंभीर माना है, भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक और सामाजिक मूल्यों को नष्ट करने वाला भी करार दिया.
वहीं हिंदू महासभा ने कहा कि यह हिंदू मूल्यों को खत्म कर देगा. उधर, देवबंद के मौलवियों ने इसे इसलाम के खिलाफ करार दिया.
समलैंगिक संबंधों को ले कर समाज का बड़ा हिस्सा धर्म, संस्कृति के नजरिए से बाहर नहीं निकल पाया है. धार्मिक ठेकेदारों ने उसे बाहर निकलने ही नहीं दिया. सदियों से लोगों के जीवन से जुडे़ हर फैसले धर्म द्वारा तय किए गए. हमारा समाज प्रेम को जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण, उम्र से जोड़ता है. समाज प्रेमविवाह पर अपना अधिकार समझता है, भले ही प्राचीन हिंदू मंदिरों में समलैंगिकता के चित्र उकेरे देखे जा सकते हों. पुरुषपुरुष, स्त्रीस्त्री, पुरुषपशु, स्त्रीपशु के यौन संबंधों वाली प्रतिमाएं देश के
कई मंदिरों में हैं. चर्च के पादरी, धार्मिकसामाजिक संगठनों, मठोंमंदिरों के तथाकथित कुंआरे, ब्रह्मचारी लोग खुद समलैंगिक संबंधों में लिप्त रहे हैं.
समलैंगिकता की बहस में धर्मों के पाखंड और दोहरे मानदंड की पोल खुलती रही है. पादरियों, मौलवियों, पंडों के कुकर्मों का आएदिन भंडाफोड़ होता आया है.
समलैंगिकता आदिकाल से सामाजिक व्यवस्था में मौजूद रही है. भारतीय गं्रथों में इस का उल्लेख है. वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में इस विषय पर खुल कर लिखा है. मनुस्मृति में इस पर दंडविधान है. भारतीय समाज में समलैंगिकता का वजूद खजुराहो से ले कर दक्षिण भारत के कई मंदिरों में उकेरी गई आकृतियों के रूप में देखा जा सकता है. हालांकि भारतीय समाज में समलैंगिकता को कभी खुलेतौर पर स्वीकार नहीं किया गया.
विज्ञान का मानना है कि समलैंगिकता की प्रवृत्ति पैदाइशी होती है. पैदाइशी होने के कारण इस में बदलाव नामुमकिन है. पारिवारिक दबाव में बहुत मामलों में बदलाव की कोशिशें की जाती हैं, पर ऐसा हो नहीं पाता.
धर्मों द्वारा विरोध का असली कारण यह है कि समलैंगिक रिश्तों से धर्म के व्यापारियों को कोई फायदा नहीं होता. कुंडली नहीं मिलानी होगी, मुहूर्त नहीं निकलेगा, फेरे नहीं होंगे. इन संबंधों के चलते बच्चे नहीं होंगे, तो दानदक्षिणा का सारा धंधा चौपट हो जाएगा. इसलिए पंडेपुजारियों, पादरियों, मुल्लामौलवियों, ग्रंथियों ने इसे पाप, अनैतिक कह कर इस का विरोध किया.
हर धर्म यह भी चाहता है कि हर सैक्स संबंध से बच्चे पैदा हों जो दान भी दें और धर्म की रक्षा के लिए लड़ें और मरें. समलैंगिक सैक्स के जरिए अपनी आवश्यकता पूरी कर लेंगे. पर बच्चे नहीं होंगे तो धर्म के ठेकेदारों को नुकसान होगा. हस्तमैथुन पर भी इसीलिए आपत्ति की जाती है पर चूंकि यह अकेले होता है, इसलिए इस पर रोक संभव नहीं है.
धर्म और नैतिकता के ठेकेदारों ने समलैंगिकता को पाप, अप्राकृतिक बताते हुए विरोध किया तो इसलिए कि उन की दुकानदारी पर मंदी आने का खतरा था.
दरअसल यह सरकार और धर्म का व्यक्ति की निजी जिंदगी में बेजा दखल है. कोई व्यक्ति बैडरूम में क्या कर रहा है, सरकार और धर्म उस का भी अधिकार अपने पास रख रहे हैं. यह व्यक्तिगत आजादी का हनन है. ऐसे और कितने काम हैं जहां धर्म और सरकार व्यक्ति पर नियंत्रण रखना चाहते हैं. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने सरकार और धर्म दोनों को इस मामले से दूर कर दिया है. जीवन का आधार मानवीय होना चाहिए. इस अधिकार के बिना दूसरे अधिकार औचित्यहीन हैं.
समाज को पूर्वाग्रहों से मुक्त होने की जरूरत है. संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संकीर्णता की जगह नहीं होनी चाहिए. दकियानूसी मान्यताओं को बदलने में ही भलाई है.