मंगलोर के एमनेशिया नामक पब/कैफे में लड़कियों पर ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ राम के नाम पर बनाई गई सेना के उपद्रवियों के हमले के बाद जो बहस छिड़ी है, वह खुद एक भ्रम का शिकार है : यदि लड़कियों पर हमले की निंदा हो रही है तो दूसरी ओर ‘भारतीय संस्कृति’ की प्रशंसा.

पब कल्चर भी चर्चा का, कहना चाहिए किचकिच का, विषय है, क्योंकि वहां लड़कालड़की बराबरी का व्यवहार करते हैं, मादक द्रव्य का भी चाहें तो बराबरी से सेवन कर सकते हैं और एकदूसरे से छू जाने व एकदूसरे का हाथ पकड़ने आदि से भी परहेज नहीं करते.

यहां एक बात बिलकुल शुरू में ही स्पष्ट हो जानी चाहिए और वह यह कि हम 2 परस्पर विरोधी व्यवस्थाओं में जी रहे हैं. एक ओर तथाकथित भारतीय संस्कृति है, तो दूसरी ओर भारतीय संविधान है.

श्रीराम सेना के सदस्यों की निंदा करते हुए कई लोग यह कहते हैं कि उस स्वयंभू सेना को यही नहीं मालूम कि भारतीय संस्कृति है क्या. ये उस के रक्षक बनने के योग्य तो तब बनेंगे जब पहले उस के असली स्वरूप से परिचित हों.

भारतीय संस्कृति एक अपरिभाषित चीज है. अत: जिसे जो बात सिद्ध करनी होती है, वह उसी को भारतीय संस्कृति से जोड़ कर उस का रक्षक बन जाता है. श्रीराम सेना वाले लड़कियों पर हमले को भारतीय संस्कृति के विपरीत कदम कह रहे हैं.

भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के बाद इस निर्णय पर आसानी से पहुंचा जा सकता है कि इस में स्त्री की स्वतंत्रता की घोर निंदा की गई है. अत: पब पर हमला करने वाले यद्यपि सभ्यता व संविधान की दृष्टि से चाहे खलनायक हैं, ‘भारतीय संस्कृति’ की दृष्टि से वे महानायक नहीं तो नायक अवश्य हैं.

आइए, महान भारतीय संस्कृति में स्त्रियों की स्थिति क्या है, देखें.

मनुस्मृति ने बहुत स्पष्ट शब्दों में स्त्री को पुरुष के अधीन रहने का आदेश दिया है, क्योंकि भारतीय संस्कृति स्त्री के किसी प्रकार के मानवाधिकार की बात नहीं करती है और न समझती है. अत: मनु का कहना है:

अस्वतंत्रा: स्त्रिय: कार्या: पुरुषै: स्वैर्दिवानिशम,विषयेषु च सज्जत्य: संस्थाप्या आत्मनो वशे.(मनु स्मृति, 9/2)

अर्थात पुरुषों को चाहिए कि वे रातदिन स्त्रियों को अपने अधीन रखें, उन्हें स्वाधीन (स्वतंत्र) न रहने दें. उन्हें तरहतरह के विषयों में लिप्त होती हुई को अपने वश में करें.

मनु ने औरत की हर अवस्था के लिए उस के पुरुष पहरेदार नियुक्त करते हुए कहा है :

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने,रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति. (मनु स्मृति, 9/3)

अर्थात जब स्त्री बच्ची होती है तब पिता उस की रक्षा करता है, जब वह युवती होती है तब पति उस की रक्षा करता है और जब वह वृद्धा होती है तब पुत्र उस की रक्षा करते हैं, क्योंकि स्त्री स्वतंत्र रहने के योग्य नहीं है.

यह भारतीय संस्कृति का ऐसा आदेश है जो आज तक यहां (भारतीय संविधान के बावजूद) लागू है. जितनी लड़कियों की परिजनों द्वारा अपने सम्मान की रक्षा के लिए हत्याएं की जाती हैं, वे सभी इसी आदेश की बलि चढ़ती हैं.

इस दृष्टि से मंगलोर में मनुस्मृति के ही श्लोकों को व्यवहार में लाया गया है. भारतीय संस्कृति में नारीजीवन का इकलौता उद्देश्य संतान पैदा करना है. कालिदास ने रघुकुल के आदर्श पुरुषों का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे सिर्फ संतान पैदा करने के लिए स्त्री ग्रहण करते थे-विवाह करते थे यथा – प्रजायै गृहमेधिनाम् (रघुवंश, 1/7), इसीलिए प्राय: यह कहा जाता है कि मां बनना नारीत्व की पराकाष्ठा है कि मां बन कर नारी का जीवन सफल हो जाता है.

इसी संकुचित दृष्टि के चलते भारतीय संस्कृति में नारी के किसी पुरुष के साथ सिर्फ गुप्त या प्रकट यौन संबंधों की ही कल्पना की जाती है, अन्य किसी मानवीय संबंध 2 भिन्न लिंगी जिम्मेदार व्यक्तियों की इनसानी मैत्री की नहीं.

हमारे चिंतक इस मामले में कितने अस्वस्थ मन वाले और कितने तंग नजर आ रहे हैं, इस का अंदाजा उन के इस निष्कर्ष से भलीभांति लग जाता है :

स्त्री घी के घड़े के समान है और पुरुष तपते अंगारे के समान है. दोनों पासपास होंगे तो घी पिघलेगा ही. अत: बुद्धिमान स्त्री और पुरुष को एक जगह इकट्ठे न होने दें. मनु के नाम पर प्रचलित निम्नलिखित श्लोक में यही बात कही गई है :

‘घृतकुंभसमा नारी तप्तांगारसम: पुमान्,तस्माद् घृतं च वह्निंश्च नैकत्र स्थापयेद् बुधे:

मनुस्मृति में कहा गया है कि आदमी को अपनी मां, बहन तथा पुत्री के साथ भी अकेले में नहीं बैठना चाहिए क्योंकि इंद्रियां बहुत बलवान हैं, वे विद्वान व्यक्ति को भी अपने वश में कर लेती हैं :

‘मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्,बलवानिदिं्रयग्रामो विद्वांसमपि कर्षति.’ (मनुस्मृति, 2/215)

दूसरे शब्दों में, भारतीय संस्कृति के कर्णधारों, ऋषिमुनियों, धर्मगुरुओं आदि ने अपने पुरुषों को ऐसे संस्कार दिए हैं कि उन्हें उन पर इतना भी एतबार नहीं कि वे एकांत में अपनी मां, बहन, पुत्री आदि को भी छोड़ेंगे या नहीं कि वे उन के मामले में भी संयम से काम लेंगे या नहीं.

जब हिंदी के प्रसिद्ध कवि पंत ने कहा था : ‘‘योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित’’, तो उन्होंने इसी मानसिकता पर चोट की थी कि जिस के लिए नारी के साथ सिर्फ एक ही संबंध (यौन संबंध) संभव है और अन्य कोई मानवीय संबंध नहीं.

‘भारतीय संस्कृति’ के दीवाने ऐसे ‘पवित्र’ लोग तंगदिली व दूर की नजर के खराब होने की वजह से जब कहीं किसी लड़के या लड़की को एकसाथ देखते हैं, चाहे वे कैफे में हों या पार्क में, बस में हों या सड़क पर, बस, उन के गंदगी भरे दिमाग में उबाल शुरू हो जाता है- एक के बाद एक नीच विचार, एक के बाद एक घटिया कल्पना उन के मन को आ घेरती है और दिमागी गंदगी के उसी उबाल में वे ‘धर्म’ और ‘संस्कृति’ की रक्षा के लिए हर नीचता को कर गुजरते हैं.

उन का दुखांत यह है कि वे समझते हैं कि नीच विचारों की उन के दिमाग में आने वाली बाढ़ उन के धर्मात्मा होने का दैवी साक्ष्य है, जबकि यह वस्तुत: उन की बीमार मानसिकता के लक्षण हैं और उन्हें इलाज की जरूरत है ताकि वे सभ्य समाज में ठीक से रहने के योग्य हो सकें.

अब प्रश्न यह है कि क्या देश में शासन मनुस्मृति का है या भारतीय संविधान का? इस की ओर हम बाद में आएंगे. पहले भारतीय संस्कृति के एक दूसरे पक्ष को पेश कर के उस का चित्र पूरा कर दें. जो कुछ पबों में होता है, वह भी भारतीय संस्कृति का अंश है तथा जो बहुत कुछ उन में नहीं होता, वह भी भारतीय संस्कृति है, परंतु वह सब करने वाला ‘समर्थ’ होना चाहिए, क्योंकि समर्थ को वह सब करने का पूरा अधिकार है और भारतीय संस्कृति ऐसे समर्थ के आगे नतमस्तक हो जाती है. उसे सिरआंखों पर उठा लेती है.

श्रीमद् भागवत महापुराण में आता है कि कृष्ण की रासलीला आदि की कथाएं सुन कर राजा परीक्षित, जो अर्जुन का पोता था, ने शुकदेव मुनि से प्रश्न किया था कि कृष्ण परमात्मा का अवतार थे और वह धर्म की स्थापना तथा अधर्म के विनाश के लिए दुनिया में आए थे. जो स्वयं धर्म की मर्यादाएं स्थापित करने वाले थे और उस के रखवाले थे, उन्होंने दूसरों की स्त्रियों से रासलीला के नाम पर ‘अभिमर्शन’ (स्पर्श, संपर्क, बलात्कार, संभोग-आप्टे का संस्कृत हिंदी कोश) क्यों किया? यदुपति (कृष्ण) ने निसंदेह यह ‘जुगुप्सित’ (निंदनीय, घृणित, जघन्य) काम किया :

‘संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च,

अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वर:

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताऽभिरक्षिता,

प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम्

आप्रकामो यदुपति: कृतवान् वै जुगुप्सितम्.’ (भागवतपुराण, 10/33/27-29)

इस पर उसे समझाते हुए शुकदेव मुनि कहते हैं कि जो समर्थ होते हैं, वे इस तरह का साहस (घोर अपराध, जघन्य कार्य) व धर्म के विपरीत काम करते हुए देखे गए हैं, परंतु समर्थवानों व तेजस्वियों को यह सब करने पर भी कोई दोष नहीं लगता, जैसे अग्नि गंदे पदार्थ खा कर भी दूषित नहीं होती.

‘धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्, तेजीयसां न दोषाय, वह्ने: सर्वभुजो यथा.’ (भागवत 10/33/30)

यहां शुकदेव ने अपनी बात को सही साबित करने की धुन में उदाहरण जड़ अग्नि का दिया है, जबकि साहस और धर्मविरोधी काम करने वाला चेतन व्यक्ति होता है, फिर गंदे पदार्थ यदि आग में जलाएंगे तो उस से सारा वायुमंडल, सारा वातावरण, दूषित होगा जो सब के लिए हानिकारक सिद्ध होगा. परंतु समर्थ लोगों के द्वारा फैलाए जाने वाली गंदगी का औचित्य सिद्ध करने वाले मुनि को वातावरण के प्रदूषण के बारे में न पता है और यदि हो भी तो फिकर नहीं.

यही बात तुलसीदास ने भी दोहराई है : समरथ कहं नहिं दोष गुसांई, रवि पावक सुरसरि की नाई.

तुलसीदास ने आग के साथ सूर्य और नदी को भी जोड़ दिया है और कहा है कि चाहे जो भी गंदगी सूर्य की धूप में या नदी में फेंको, उस से न सूर्य गंदा होता है, न नदी.

इस तरह की धार्मिक शिक्षाओं के फलस्वरूप ही गंगा, यमुना आदि नदियां ‘सैप्टिक टैंक’ बनी हुई हैं और उन का पानी अनेक घातक रोगों का वाहक बना हुआ है. इन्हीं शिक्षाओं के कारण समाज नैतिक प्रदूषण से बुरी तरह ग्रस्त है.

शुकदेव मुनि का आगे कहना है कि जिस में सामर्थ्य न हो, वह न तो साहस करे और न ही धर्मविरोधी कोई कार्य करे. यदि ऐसा करना हो तो उसे सामर्थ्यवान बनना चाहिए.

‘नैतत्स्माचरेज्जातु मनसाऽपि ह्यनीश्वर:’  (भागवतपुराण 10/33/31)

अंत में शुकदेव मुनि का कहना है कि जो लोग समर्थ होते हैं, उन की ‘कथनी’ तो पूरी तरह सत्य होती है, परंतु उन की ‘करनी’ (आचरण) कुछ हद तक ही सत्य (ठीक) होती है, सारी की सारी नहीं. अत: साधारण आदमी को सामर्थ्यवान लोगों के द्वारा बताए मार्ग पर तो चलना चाहिए, पर उन का आचरण पूरी तरह से अनुकरणीय नहीं मानना चाहिए. यही बुद्धिमानों के लिए उचित है :

‘ईश्वराणां वच: सत्यं तथैवाचरितं क्वचित्, तेषां यत्स्ववचो युक्तं बुद्धिमांस्तत्समाचरेत्. (भागवतपुराण, 10/33/32)

दूसरे शब्दों में, आम आदमी के लिए यह एक तरह का पैमाना है, एक तरह का कानून है और शक्तिशाली, तेजस्वी व समर्थ के लिए दूसरी तरह का. पब में आम आदमी के जाने पर ‘भारतीय संस्कृति’ को आपत्ति है, पर ‘समर्थ’ के वैसा करने पर उसे कोई एतराज नहीं. तभी तो मुंबई के ताज होटल पर हमला देश पर हमला कहा जाता है, परंतु पब पर भारतीय संस्कृति वाले खुद हमला करते हैं, क्योंकि पब में वैसे समर्थ लोग नहीं जाते जैसे ताज में जाते हैं, जबकि हैं ताज और पब (एमनेशिया कैफे) पर हमला करने वाले-दोनों ही आतंकवादी. तभी तो वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह ने लिखा है कि ‘पब पर हमला करने वाले फंडुओं को उन के महल्लों में ले जा कर उन के नितंब नंगे कर के पीटना चाहिए और उन के मुंह पर थप्पड़ मारने चाहिए.

कोई इस से सहमत हो या असहमत, इतना तो स्पष्ट है कि आतंकवादियों को क्योंकि उन की अपनी ही भाषा में बात समझ में आती है, अत: उन्हें उन की ही भाषा में उन की करतूतों का जवाब देना किसी भी तरह अनुचित नहीं कहा जा सकता. यदि वे लोगों के न मानवाधिकार समझते हैं न उन की मौलिक स्वतंत्रताएं, तो फिर उन के मानवाधिकार व उन की स्वतंत्रताएं कैसी? जो पेशेवर लोग आतंकवादियों के मानवाधिकार की रट लगाते हैं, वे समाज के आस्तीन के सांप हैं, जो आतंकवादियों से भी ज्यादा खतरनाक हैं.

जब राम को लौटाने के लिए भरत वन को जाते हैं तो भरद्वाज मुनि के आश्रम में उन का व उन के साथ आए लोगों का जैसा स्वागत होता है वैसा आम आदमी के लिए करना वर्जित ही नहीं, निंदित भी है, पर मुनि एक समर्थ आदमी हैं और वह समर्थ राजकुमार अथवा कार्यकारी शासक का स्वागत करता है, अत: उस के सेवक नहीं, बल्कि उस की सेविकाएं भरत के सैनिकों को पुकारपुकार कर कहती हैं : जिसे सुरा (शराब) पीनी हो वह सुरा पीए, जिसे मांस खाना हो वह भक्ष्य पशुओं का मांस खाए. जिस की जो इच्छा हो वही भोजन करे.

‘सुरां सुराणा: पिबत, मांसानि च सुमेध्यानि भक्ष्यन्तां यो यदिच्छति.’

(वाल्मीकि रामायण अयोध्याकांड, 91/52)

फिर एकएक आदमी को 7-7, 8-8 स्त्रियां उबटन मलमल कर नहलाती हैं और बड़े नेत्रों वाली सुंदरी रमणियां उन लोगों के पैर दबाती हैं तथा उन के भीगे शरीरों को वस्त्रों से पोंछ कर उन्हें स्वादिष्ठ पेय पिलाती हैं.

उच्छेद्य स्नापयन्ति स्म नदीतीरेषु वल्गुषु,

अप्येकमेकं पुरुषं प्रमदा: सप्त चाष्ट च.

संवाहंत्य: समापेतुर्नार्यो विपुललोचना:,

परिमृज्य तदानयोनयं पाययन्ति वरांगना: (वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड, 91/53-54)

यहां भारतीय संस्कृति में एकएक आदमी को 7-7, 8-8 औरतें नहलाती हैं, कोई लेटे हुए के पैर दबाती है, कोई नहाए हुए का शरीर पोंछती है. यह सब किसी पब में नहीं, मुनि के आश्रम का हाल है, क्योंकि वह समर्थ है. पब हमारे यहां तब होते नहीं थे, आश्रम जो होते थे.ऋषिमुनियों के आश्रमों में जाने पर आम आदमी के लिए पवित्र बने रहने, मन में काम वासना को जरा भी न आने देने आदि का आदेश है. पर यदि आप समर्थ हैं तो आप वहां वह सबकुछ कर सकते हैं जो पब तक में भी नहीं होता.

संस्कृत के महान कवि कालिदास ने अपने ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ में लिखा है कि विश्वामित्र, ऋषि या मुनि, तपस्या कर रहा था. उस ने मेनका नामक स्त्री को देखा और तप छोड़ कर काम के चक्कर में पड़ गया. एक लड़की को जन्म दिया. उसे वन में छोड़ कर दोनों भाग गए, जैसे आज लड़कियों से पीछा छुड़ाने के लिए कई लोग बच्ची को रेलगाड़ी में छोड़ देते हैं, स्टेशन पर छोड़ देते हैं या मंदिर के पास छोड़ देते हैं. यह प्राचीन भारतीय परंपरा है.

कण्व ऋषि करुणावश उस लड़की को पालता है और उसे शकुंतला नाम देता है. जब कण्व कहीं गया हुआ था तब ‘महान’ राजा दुष्यंत ने आश्रम में प्रवेश किया और उस लड़की के साथ विश्वामित्रमेनका वाली सारी कामक्रिया दोहरा दी. ध्यान रहे, यह सब आश्रम में हुआ, पब में नहीं. कण्व जब आश्रम में वापस आता है तो वह इस सब के लिए किसी को भलाबुरा नहीं कहता, क्योंकि जिस ने यह सब किया वह समर्थ है, वह राजा है. अत: कण्व ऋषि कहता है :

‘वत्से, दिष्ट्या धूमोपरुद्धदृष्टेरपि यजमानस्य पावकस्यैव मुखे

आहुतिर्निपतिता सुशिष्यपरिदत्तेव विद्या अशोचनीयासि में संवृत्ता.

अद्यैव त्वाम् ऋषिपरिरक्षितां कृत्वा भर्त्तु: सकाशं विसर्जयामि.’

(अभिज्ञानशाकुंतलम्, अंक 4)

अर्थात, हे पुत्री, जिस की दृष्टि हवन के धुएं से रुंध गई थी, उस यजमान की भी आहुति (इधरउधर न पड़ कर) अग्नि के मुख में ही पड़ी है. किसी अच्छे शिष्य को दी हुई विद्या के समान तू मेरे लिए निश्ंचिंतता का कारण बनी है. आज ही मैं तुझे ऋषियों के साथ तेरे पति के पास पहुंचा दूंगा.

कण्व द्वारा भेजी शकुंतला को राजा दुष्यंत पहचानने से ही मना कर देता है. पति द्वारा त्यागी हुई वह अकेली औरत वन में रहती है और एक पुत्र को जन्म देती है, जिस का नाम भरत था. बहुत वर्षों बाद, बूढ़ा होने पर, राजा उसे अपना लेता है और भरत को राजसिंहासन पर बैठा कर खुद तप कर के परलोक सुधारने के लिए वन को चल देता है. कहते हैं इसी भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत है और इसी भारत की संस्कृति ‘भारतीय संस्कृति’ है.

यदि यह कहानी वास्तव में ऐसी ही थी, यदि भारत नाम दुष्यंत के उसी पुत्र के नाम पर पड़ा है तो स्पष्ट है कि इस की नींव में निहित है – नारी की घोर उपेक्षा, उस पर ढाए गए अत्याचार, पुरुष की कामुकता और आश्रम की अक्षमता. यह उस बेटी-शकुंतला के प्रति कू्रर उपहास है जिसे उस के मांबाप (एक तथाकथित ऋषि व तपस्वी और दूसरी तथाकथित अप्सरा) पैदा होते ही फेंक कर भाग जाते हैं. उस पत्नी की व्यथाकथा है जिसे एक राजा आश्रम में (पब में नहीं) विवाह से पूर्व ही गर्भवती बना कर बाद में त्याग देता है, उस मां की करुण कहानी है जो पति द्वारा त्यागी जाने पर वन में अकेली रहती हुई बच्चे को जन्म देती है, पालती है और पता नहीं कैसे जीवन को ढोती है.

श्रीराम की पत्नी सीता के साथ भी यही हुआ था : जन्मी तो अज्ञात मांबाप ने खेतों में फेंक दी. राजा जनक ने पाल ली, क्योंकि उस के संतान नहीं थी. पति के साथ वनवास के लिए गई तो रावण उठा कर ले गया, बावजूद इस के कि उस का पति ‘भगवान’ था. रावण की कैद से सुग्रीव की सेना की मदद (ध्यान रहे, तब रामसेना तो कोई थी ही नहीं और न उस ने सीता को छुड़ाया) से छुड़ाया तो उसे श्रीराम ने स्वीकार करने से इनकार कर दिया, वह अग्नि में कूद गई. अग्निपरीक्षा के बाद उसे राम अपने साथ अयोध्या तो ले आए पर वहां से उसे फिर गर्भावस्था में ही वन में पहुंचा दिया गया, जहां उस ने वाल्मीकि ऋषि की दया से दिन काटे और बच्चों को जन्म दिया. बाद में वहीं धरती के गर्भ में, किसी दरार व गहरी खाई आदि में, समा गई.

शकुंतला हो या सीता, भारतीय संस्कृति में नारी की यही करुण कहानी है: अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध आंखों में पानी. (मैथिली शरण गुप्त)

बाद में दुष्यंत ने भरत को इसलिए नहीं अपना लिया था कि उस के अंदर का ‘समर्थ’ मर्द बदल गया था बल्कि इसलिए अपनाया था कि उस की और कोई संतान पैदा नहीं हुई थी. इसी इकलौते पुत्र को अपने जीवन की संध्या में अपना लेना एक विवशता थी क्योंकि उसे ऐसा कोई चाहिए था जो राज्य का उत्तराधिकारी हो, जो उस की अंत्येष्टि करे और उसे श्राद्ध के नाम पर मरणोपरांत पंडों को रसद मुहैया करे. श्रीराम ने भी ऐसी विवशता में ही सीता के पुत्रों को अपनाया था. यदि शकुंतला की संतान पुत्री होती तब भी दुष्यंत ने उसे मुंह नहीं लगाना था.

कालिदास ने लिखा है कि बालक दुष्यंत शेर के बच्चे से खेला करता था. अतीतवादी लोग इसे बहुत बढ़ाचढ़ा कर पेश करते हैं कि इस देश के लोग बहुत बहादुर हैं कि यहां बच्चे तक शेरों से खेला करते थे.

वस्तुत: यह बड़ाई की नहीं, विवशता की बात थी. अब जब बेचारी शकुंतला वन में अकेली रहती थी तो उस पति द्वारा परित्यक्ता को कौन मुंह लगाता, कौन अपने बच्चों को उस के बच्चे के साथ खेलने की अनुमति दे सकता था, जो विवाह के बिना ही जन्मा था. ऐसे में उसे शेर या सियार जो मिला, वह अबोध बच्चा उसी से खेलने का संभव है कभी प्रयास कर बैठा.

जो लोग भरत की इस विवशता को उस गरीब की वीरता बना कर पेश करते हैं वे लोग शकुंतला के साथ हुआ व उस पर किए गए हर अन्याय पर परदा डालने का प्रयास करते हैं.

यदि सचमुच यहां के बच्चे शेरों से खेलने वाले होते तो संस्कृत बनाने वाला पाणिनि मुनि शेर के हाथों न मरता, मीमांसा शास्त्र का रचयिता जैमिनि मुनि हाथी द्वारा न मारा जाता और छंदशास्त्र का प्रणेता पिंगल मगरमच्छ द्वारा न निगला जाता.

पंचतंत्र में कहा गया है :

‘सिंहोव्याकरणस्य कर्तुरहरत्प्राणान् प्रियान् पाणिने:

मीमांसाकृतमुन्ममाथ सहसा हस्ती मुनिं जैमिनिम्,

छंदोज्ञाननिधिं जघान मकरो वेलातटे पिंगलम्,

अज्ञानवृतचेतसामतिरुषां कोऽर्थस्तिरश्चां गुणै:?’ (पंचतंत्र, मित्रसंप्राप्ति:, 36)

(व्याकरण के कर्ता पाणिनि के प्राण शेर ने हर लिए, मीमांसाशास्त्र के कर्ता जैमिनि को सहसा हाथी ने कुचल दिया और छंदशास्त्र के ज्ञाता पिंगल को मकर (मगरमच्छ) ने मार डाला. अज्ञानी व क्रोधी जानवरों को गुणों से क्या लेनादेना है?)

यदि विवाह से पहले सेक्स अपराध है, कुंआरी मां बनना पाप है तो वह पुरुष ‘भारतीय संस्कृति’ में निंदनीय क्यों जो इस सारे काम के दौरान औरत के साथ होता है और बहुत बार उसे बहकाने की भी पहल करता है? वह पुरुष यदि जीवन की संध्या में ऐसे संबंधों की संतान पिंडदान व श्राद्ध करने वाला और कोई न होने की स्थिति में अपना वारिस बना लेता है तो क्या वह संतान सिर्फ इसलिए महान बन जाएगी कि वह लड़का था, लड़की नहीं? और क्या इसीलिए उस का नाम इस महान देश पर थोप दिया जाए?

क्या इस से उस औरत पर ढाए गए सब अत्याचार मिट जाएंगे और वह ऐयाश राजा दूध का धुला बन जाएगा? सभ्य जगत में अन्यत्र तो शायद कहीं ऐसा न हो, परंतु अपने यहां यह सब संभव है. तभी तो ऋषि के आश्रम में भी वह सबकुछ जो पबों तक में भी नहीं होता, करने वाले ‘धर्मात्मा’ राजा की भारतीय संस्कृति में न कहीं निंदा की गई मिलती है और न उपेक्षा, बल्कि उस के छुट्टे सांडपने की प्रशस्ति गाते हुए उन की अवैध संतान का नाम देश पर चिपका दिया गया.

आश्रम में सेक्स करने पर राजा को न किसी ने मारापीटा, न कोई दूसरी सजा दी. भरद्वाज मुनि के आश्रम में शराब भी चली, मांस भी उड़ा और पराए मर्दों को औरतों द्वारा मलमल कर नहलाया भी गया, परंतु किसी वेदशास्त्र में, किसी पुराण में, किसी स्मृति या धर्मशास्त्र में इस की कहीं निंदा नहीं की गई और न ही कभी कोई टुच्चा इस के विरुद्ध बोला. आगे बढ़ने से पहले यह बात भी समझ लें कि क्या समर्थ औरतों यानी राजपरिवार की औरतों को भी शकुंतला की तरह विवाहपूर्व संबंधों की कीमत कभी चुकानी पड़ी है?

कुंती को लें, जिस ने विवाह से पहले, कुंआरी अवस्था में कर्ण को जन्म दिया था. वह भी बच्चे को उसी तरह फेंक आई थी जैसे आज भी अनेक औरतें/लड़कियां विवाह से पहले जन्मे बच्चे को फेंक आती हैं. ऐसे बच्चे कभी कूड़े के ढेर पर मिलते हैं, कभी शौचालयों में, कभी खेतों में या ऐसी ही दूसरी जगहों पर. यह हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति का अंग है.

संस्कृत के व्याकरणों में एक नियम है कि कन्या (कुंआरी) के पुत्र को ‘कानीन’ कहते हैं : कन्याया: कानीन च (अष्टाध्यायी, 4-1-116). इस के उदाहरण दिए जाते हैं : कर्ण: कानीन: अर्थात कर्ण कुंआरी का पुत्र था. कानीनो व्यास: अर्थात व्यास कुंआरी का पुत्र था. (देखें, अष्टाध्यायी की व्याख्या काशिकावृत्ति:) पर कुंती को कभी जलील नहीं होना पड़ा क्योंकि वह समर्थ थी, अर्थात राजपरिवार की थी. यदि वह आम स्त्री होती तो शकुंतला की तरह खाक छानती फिरती, न कि पांडु की रानी बनती. इस मामले में कर्ण को ‘अवैध मां’ के स्थान पर ‘अवैध संतान’ का कलंक ढोना पड़ा.

ध्यान रहे, कुंती के विवाहोपरांत पैदा हुई संतानें भी उस के पति पांडु की न हो कर नियोग द्वारा उत्पन्न थीं. कबीर के जीवन से भी यही पता चलता है कि उन्हें भी उन की जन्म देने वाली मां तालाब के किनारे फेंक गई थी. यह अलग बात है कि कर्ण और कबीर अपने गुणों से लोगों के मनों पर छा जाने में सफल रहे, परंतु भारतीय संस्कृति ने बच्चों को जन्म दे कर फेंकने की जो ‘महान’ देन दी है, वह आज तक जारी है. हमारा यह आग्रह नहीं है कि लोग पबों में अवश्य शराब पिएं, मांस खाएं, बल्कि हमारा कहना है कि जो वहां शराब पीते या मांस खाते हैं, उन्हें रोकने का श्रीराम सेना या ऐसे किसी अन्य स्वयंभू संगठन को क्या अधिकार है? किस संवैधानिक प्राधिकरण ने इन टुच्चों को दूसरों के मौलिक अधिकारों और आजादी में हस्तक्षेप करने के लिए अधिकृत किया है?

शराब, मांस आदि न अवैध पदार्थ हैं और न कानून ये किसी लिंग के लिए वर्जित हैं. अत: किसी टुच्चे को क्या अधिकार है कि वह यह तय करे कि कौन क्या पिए, क्या खाए?

जो हिंदू तालिबानी शराब और मांस पर आपत्ति करते हैं और पबों पर लड़कियों से छेड़छाड़ करने व हफ्ता लेने के लिए दबाव बनाने के छिपे एजेंडे के तहत घपले करते हैं, वे प्राय: सभी ‘चाय’ पीते हैं. उन के घरों में उन की मांएं, बहनें, पत्नियां, बेटियां आदि सब चाय पीती हैं. कई कौफी भी पीती हो सकती हैं.

हमारा पूछना है कि ‘चाय’ कैसे भारतीय संस्कृति बन गई और ‘सुरा’ (शराब) कैसे उस भारतीय संस्कृति के बाहर की चीज बन गई जिस में आदर्श ‘सुर’ (देवता) हैं और वे सुर इसीलिए कहलाते हैं कि वे सुरा पीते हैं – सुराप्रतिग्रहाद देवा: सुरा इत्यभिविश्रुता: (रामचरितम्)?

भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ जानते हैं कि हमारे यहां तो शराब से किया जाने वाला एक विशेष यज्ञ है. वेदों के व्याख्याग्रंथ, शतपथब्राह्मण (12-1-3-7) में आता है कि सौत्रामणी यज्ञ ऐसा यज्ञ है जो शराब (सुरा) से किया जाता है :

‘सुरावान् वा एष बर्हिषद् यज्ञो यत् सौत्रामणी.’   (शतपथ ब्राह्मण)

इसीलिए भारतीय संस्कृति का आदेश है : सौत्रामण्यां सुरां पिबेत् (सौत्रामणी यज्ञ में सुरा (शराब) पिएं.)

यज्ञ पतिपत्नी दोनों मिल कर करते थे, अत: स्पष्ट है कि स्त्रियों के लिए भी सुरा वर्जित नहीं थी. उन्हें यह याज्ञिक व धार्मिक आदेश सुरापान का स्पष्ट आदेश व अनुमति देता है.

शराब के लिए तो हमारे यहां संस्कृत में 100 शब्द हैं, परंतु ‘चाय’ के लिए तो भारतीय संस्कृति में एक भी शब्द नहीं है: ‘चाय’ शब्द तो फारसी का है जो लोग चाय पीते हैं, वे भारतीय संस्कृति का कैसे पालन करते हैं?

यद्यपि किसी भी अनाधिकृत व्यक्ति को किसी के लिए यह निर्धारित करने का अधिकार नहीं है कि वह क्या पिए या क्या खाए, तथापि इतना तो बिलकुल स्पष्ट है कि जो खुद ‘चाय’ पीता हो, वह भारतीय संस्कृति के नाम पर दूसरों को किसी भी पेय से रोकने की स्थिति में नहीं है.

पब कल्चर के विरोध के नाम पर लड़कियों से गुंडागर्दी करने वाले भारतीय संस्कृति के स्वयंभू ठेकेदार कहते हैं कि लड़कियां जीन न पहनें, वे सलवारकमीज पहनें, वे साड़ी पहनें.

इस विषय में 2 बातें ध्यान में रखने योग्य हैं : क्या सलवारकमीज भारतीय संस्कृति है? क्या संस्कृत में कोई शब्द है सलवार और कमीज के लिए? क्या ये दोनों कपड़े हम ने मुसलमानों से नहीं अपनाए? जिन्हें ‘भारतीय संस्कृति’ वाले ‘म्लेच्छ’ कहते नहीं अघाते, क्या उन की नकल कर के सलवारकमीज पहनना भारतीय संस्कृति बन जाएगा? भारतीय संस्कृति के पास जीन्स या पैंट के मुकाबले का क्या है कोई परिधान? बस में चढ़नाउतरना हो, स्कूटरमोटरसाइकिल चलाना हो, खेलकूद में भाग लेना हो, जल्दीजल्दी चलना हो-क्या पैंट व जीन्स के मुकाबले का कोई पहनावा है?

भारतीय संस्कृति वाले कहते हैं कि साड़ी पहनो. साड़ी कितनी ‘पवित्र’ इन ‘भारतीय संस्कृति वालों’ ने रहने दी है, यह देखना हो तो महाभारत के पृष्ठ खोलें. द्रौपदी की पूरी साड़ी को उतारा गया था और उतारने वाले भी भारतीय संस्कृति के ही पात्र थे.

द्रौपदी 5 पतियों की सांझी पत्नी थी, जो सिर्फ भारतीय संस्कृति में संभव है. फिर भी उस की साड़ी भारतीय संस्कृति के तत्कालीन एकमात्र दरबार हस्तिनापुर में उतारी गई. वहां भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, विदुर आदि कौनकौन नहीं बैठे थे तब? अब क्या उसे पहनने के लिए लड़कियों को इसलिए विवश किया जा रहा है कि उसे उतारना जीन्स या पैंट उतारने की अपेक्षा ज्यादा आसान है?

दूसरों के लिए भारतीय संस्कृति के नाम पर डै्रस कोड लागू करने की बात करने से पहले इन स्वयंभू ठेकेदारों को खुद कुरतापायजामा पहनना बंद करना होगा, पैंटकमीज पहननी बंद करनी होगी, जेबों में मोबाइल और पैन रखना बंद करना होगा, क्योंकि यह सब तो भारतीय संस्कृति नहीं है. शंकराचार्य के अनुसार तो गली में पड़े चिथड़ों की गुदड़ी और मृग की खाल ही सब से श्रेष्ठ वस्त्र है : रथ्याचर्पटविरचितकन्य:, अजिनं वास:.

इस के बाद भी इन्हें यह हक किसी प्रकार भी नहीं मिल जाता कि वे दूसरों के मानवाधिकारों व उन की मौलिक आजादी का हनन करते हुए उन के लिए डै्रस कोड निर्धारित करें. वे ज्यादा से ज्यादा यह कह सकते हैं कि आप कथित भारतीय परिधान पहन सकते हैं-लंगोट या कौपीन पहन कर अपने को धन्यधन्य बना सकते हैं, क्योंकि शंकराचार्य ने कहा है कि कौपीन पहनने वाले भाग्यवान होते हैं. ‘कौपीनवन्त: खलु भाग्यवन्त:.’ पर तब उन्हें बस, रेल, कार, स्कूटर, मोटर साइकिल, साइकिल आदि सब प्रकार की सुविधा को त्यागना होगा और रथ, हाथी, घोड़े आदि की सवारी करनी होगी. ऐसा नहीं कि आप दूरदर्शन पर भी आएं और भारतीय संस्कृति की भी धौंस दें. क्या दूरदर्शन भारतीय संस्कृति है?

आप ऐसा नहीं कर सकते कि जहां सुविधा हो वहां अभारतीय संस्कृति की पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार करने की कोशिश करें और अन्य मामलों में भारतीय संस्कृति का राग अलापें-मीठामीठा हड़प, कड़वाकड़वा थू-नहीं चलेगा.

यह युग मानवतावाद, विज्ञान और धर्मनिरपेक्ष संविधान का युग है, न कि मनमानी बातों को भारतीय संस्कृति के नाम पर थोपने का. संविधान ने अनुच्छेद 13 में कहा है कि जो भी पहले से प्रचलित रस्मोरिवाज, रूढि़यां, नियम, प्रथाएं, धार्मिक बातें आदि संविधान में प्रतिपादित प्रावधानों के विपरीत हैं वे संविधान के लागू होते ही निरस्त हो गई हैं. इसीलिए भारतीय संस्कृति में आम प्रचलित रही बहुपत्नीप्रथा को अपनाकर अब कोई न दशरथ की तरह 3-3 पत्नियां रख सकता है और न 5 आदमी एक द्रौपदी से शादी कर सकते हैं.

भारतीय संस्कृति की महिमामंडित स्त्री प्रथा अब कानूनन अपराध बन गई है. शूद्रों के कानों में लाख व रांगा पिघला कर डालने वाला अब जेल की हवा खाता है. शूद्र और लड़की को अब न कोई वेद पढ़ने से रोक सकता है न मंदिर में जाने से, न कोई किसी से छूतछात कर सकता है और न लिंग जाति, धर्म आदि के आधार पर भेदभाव. अब कोई राम शूद्र शंबूक को तप करने के ‘अपराध’ में हत्या नहीं कर सकता है और न कोई द्रोण किसी एकलव्य को अंगविच्छेद के लिए उकसा कर दंडित हुए बिना रह सकता है. निर्वाचित हो कर जो लोग सत्ता के सिंहासन पर बैठते हैं, वे संविधान की रक्षा करने की कसम खाते हैं. यदि वे कसम खाने के बाद उस की परवा नहीं करते और हिंदू तालिबानों को मरखने सांडों की तरह छुट्टा छोड़ते हैं तो वे संवैधानिक पदों पर बने रहने के हकदार नहीं हैं. इस का सोचसमझ कर प्रयोग करना चाहिए और ऐसे तत्त्वों को सत्ता में आने से रोकना चाहिए जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तालिबानीकरण की कुत्सित चाल चल रहे हैं.

कुछ कमअक्ल जो इस या उस सेना के नाम पर गुंडागर्दी करते हैं, वे सत्ता के दलालों के हाथ की कठपुतलियां हैं. इन के असली आका परदे के पीछे से अपना छिपा एजेंडा लागू करवा रहे हैं. परंतु उन्हें पहचानना दुष्कर काम नहीं है. यह बहुत अच्छी तरह और आसानी से समझा जा सकता है कि किस प्रदेश में किस दल की सरकार है और जिन का तालिबानीकरण का एजेंडा किस मात्रा में लागू हो रहा है. यह भी स्पष्ट है कि कौन से दल इस तालिबानीकरण के समर्थक नहीं हैं, इस के विरोध में खड़े हैं.

यदि युवा वर्ग वोट के अधिकार का समय पर सही इस्तेमाल करता है तो समय रहते तालिबानीकरण को रोका जा सकता है, अन्यथा संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता, मौलिक अधिकार आदि मिट्टी में मिल सकते हैं. पाकिस्तान के तालिबानियों की करतूतें सब के सामने ही हैं.

ऐसा नहीं है कि हम भारतीय संस्कृति के शत्रु हैं या हमारी प्रिय संस्कृति अभारतीय है. हम केवल उन लोगों का विरोध करते हैं जो संस्कृति को विकृत कर केवल नकारात्मक पक्षों को ही उछालते हैं और उन्हें ही समग्र मानने के लिए जोर डालते हैं या अपनी मनमानी बातों को भारतीय संस्कृति का नाम दे कर गुंडागर्दी के बल पर लोगों पर थोपने की कोशिशें करते हैं.

प्रत्येक संस्कृति में सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष होते हैं. पर आने वाली पीढि़यां उन में से सकारात्मक पक्ष को अपना लेती हैं और नकारात्मक पक्ष की उपेक्षा कर देती हैं. छुआछूत, सतीप्रथा, बालविवाह, लड़की के जन्म को अशुभ मानना, विधवाविवाह का वर्जित होना, पुरुषों जैसी नियोगप्रथा आदि ऐसे नकारात्मक पक्ष हैं कि इन पर कोई भी भारतीय संस्कृतिवादी गर्व नहीं कर सकता. अत: आज इन में से कुछ चीजें यदि दंडनीय अपराध घोषित हो चुकी हैं तो कई दूसरी वर्जित की कोटि से निकाल कर ‘पालन करने योग्य’ बना दी गई हैं.

भारतीय संस्कृति की आज हमें सकारात्मक बातों की जरूरत है, न कि उन की जिन के कारण हमारा पतन हुआ. उपनिषद के ऋषि ने कहा है कि तुम्हें हमारी सब बातों, हमारे सब आचरणों का न अनुकरण करना चाहिए न अनुसरण, क्योंकि हम भी तो इनसान हैं और हम से भी तो गलती संभव है. अत: तुम्हें हमारे केवल उसी पक्ष का, हमारी उन्हीं बातों का पालन करना चाहिए जो ठीक हों, जो सकारात्मक और भली हों. दूसरी बातों अर्थात हमारे चरित्र के काले व अंधेरे पक्षों का कदापि अनुकरण व अनुसरण नहीं करना चाहिए:

‘यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवतव्यानि, नो इतराणि.

यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि.’ (तैत्तिरीय उपनिषद्, 1/11)

मनु ने कहा कि न मांस खाने में कोई दोष है, न मद्यपान करने में कोई दोष है तथा न मैथुन करने में ही कोई दोष है. इन चीजों की ओर प्राणियों का झुकाव स्वाभाविक है:

‘न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने, प्रवृत्तिरेषा भूतानाम्’  (मनुस्मृति, 5/56)

वात्स्यायन मुनि ने अपने कामसूत्र में कहा है कि काम (सेक्स) का जीवन में वही स्थान है जो भोजन (आहार) का है. यदि कोई बिना भोजन के रहे तो भूख से मर जाएगा. उसी तरह यदि कोई काम को वर्जित घोषित कर दे, उसे जीवन से निकाल दे तो जीवन ही मुर्दा हो जाएगा. इसलिए वात्स्यायन कहते हैं :

‘शरीरस्थितिहेतुत्वादाहारसधर्माणो हि कामा:’ (कामसूत्र, 1-2-37)

महाभारत में एक जगह कहा गया है, सब चीजें मनुष्य के लिए हैं, मनुष्य उन के लिए नहीं है. अत: जो गलत चीजें हैं उन्हें थोपने की जिद नहीं करनी चाहिए : ‘न हि मानुषात्परतरं हि किंचित्’ (महाभारत)

जिस का आहार और विहार (खाना और टहलना) ठीक मात्रा व सही अनुपात में होता है, जो सही समय पर सोता है और सही समय पर जागता है, ऐसे व्यक्ति की दिनचर्या उस के अनेक दुखों को दूर कर देती है. वह अनेक रोगों, शारीरिक अस्वस्थताओं से बच जाता है :

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु, युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा. (गीता, 6/17)

जिस तरह सोने को तपा कर, काट कर और कसौटी पर रगड़ कर उस के ठीक या खराब होने के बारे में हम निश्चय करते हैं, उसी तरह हर बात को भलीभांति समझ कर, उस का विश्लेषण कर के, उस के ठीक या गलत होने का निश्चय करना चाहिए. किसी बात को उस के कहने वाले के प्रति आदर या उस से डर के कारण आंख मूंद कर स्वीकार नहीं करना चाहिए.

‘तापाच्छेदाच्च निकषात्सुवर्णमिव पंडिता इह,

परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मदवचो न तु गौरवात्.’

इसीलिए ‘निरुक्त’ में कहा गया है कि तर्क ही आप का अब मार्गदर्शक ऋषि होगा : ‘एतं तर्कमृषिं प्रायच्छन्’ (निरुक्त 13/3)

इसी बात को थोड़ा दूसरे ढंग से कालिदास ने कहा है, ‘‘सज्जन न तो यह मानते हैं कि क्योंकि यह पुरानी चीज (प्रथा, कथन, शास्त्र आदि) है, अत: यह ठीक ही होगी और न यही मानते हैं कि नई चीजें (रस्में, रिवाज, प्रथाएं, संस्थाएं आदि) गलत ही होती हैं. अच्छे लोग दोनों चीजों का भलीभांति विश्लेषण कर के उन में से जो सही हो उसे स्वीकार करते हैं और जो गलत या खराब हो उसे त्याग देते हैं. परंतु मूढ़ लोग दूसरों के कहेसुने के अनुसार चल पड़ते हैं और अपने दिमाग से काम नहीं लेते :

‘पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्,

संत: परिक्ष्यान्यतरद् भजंते मूढ: परप्रत्ययनेयबुद्धि:.

(मालविकाग्निमित्रम्, 1/2)

धर्म या संस्कृति सदा एक सी नहीं रहती, बल्कि अवस्था (हालात) के अनुसार सबकुछ धर्म भी बदलता है :न त्वेवैकांतिको धर्म:, धर्मो हि आवस्थिक: स्मृत:.  (महाभारत, शांतिपर्व)

इसीलिए कहा गया है कि शास्त्र मनुष्यों को नहीं पैदा करते, बल्कि मनुष्य ही शास्त्रों को लिखते व बनाते हैं और समय के अनुसार उन में संशोधन भी करते हैं :

‘न जातु जनयन्तीह शास्त्राणि मनुजान् क्वचित्,

मनुजा एव शास्त्राणि रचयति पुन: पुन:.’

(विविधार्थ, भारतरत्न डा. भगवानदास, पृ. 108)

लोगों की रुचियां अलगअलग होती हैं. किसी को कुछ अच्छा लगता है, किसी को कुछ. किसी की रुचि सीधी होती है, किसी की टेढ़ीमेढ़ी और कोई तरहतरह के मार्गों का अनुसरण करता है. इसलिए आप सभी पर न अपनी रुचि थोप सकते हैं और न कोई आप की पसंद को अपनी पसंद बना सकता है तथा न सब की रुचि एक जैसी हो सकती है :

‘भिन्नरुचिर्हि लोक:’ (रघुवंशम्, 6/30)

‘रुचीनांवैचित्र्यादृजुकुटिलनानाय-थजुषाम्’  (शिवमहिम्न: स्तोत्र में पुष्पदंत)

इस तरह भारतीय संस्कृति का यह सकारात्मक व रचनात्मक पक्ष विविध आयामों वाला है. हमें इस प्रगतिशील और मानवोपयोगी सकारात्मक पक्ष को ही आगे लाना चाहिए, न कि संकुचित, तुच्छ, नकारात्मक और मनमानी बातों को, क्योंकि उन से न भारतीय संस्कृति का भला होगा, न भारत का, जगहंसाई अलग होगी.

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