हाल ही में एक कहानी पढ़ी थी. एक अनपढ़ लड़का था, भेड़-बकरियां चरा कर या लोगों के छोटे-मोटे काम करके अपना गुज़ारा करता था. पास में ही एक बौद्ध मठ था जो अपने ज्ञान के लिए विख्यात था. एक दिन उस लड़के ने सोचा कि मेरा जीवन यूं ही व्यर्थ बीत जाएगा, क्यों न मठ में जाकर लोगों की सेवा करूं. काम का काम हो जाएगा और दो अक्षर ज्ञान के कानों में पडेंगे तो जीवन संवर जाएगा. बस जा पहुंचा मुख्य लामा के पास और जाकर बोला कि “मैं बरतन साफ करने से लेकर साफ-सफाई तक हर काम करने को तैयार हूं, पर आप मुझे अपनी शरण में ले लें”. लामा उसे ऊपर से नीचे देखते हुए बोले कि “हर इंसान को अपनी उपयोगिता सिद्ध करनी होती है. तुमको भी करनी होगी. तुममें कोई हुनर है?”
“हुनर. हुनर तो कोई नहीं लेकिन हां मुझे शतरंज खेलनी आती है. बचपन में सीखी थी.”
शतरंज मंगवाई गई और दोनों खेलने बैठ गए. “रुको, शतरंज का खेल शुरू करने से पहले एक शर्त रखते हैं कि जो जीतेगा वो हारनेवाले की नाक काटेगा. बोलो मंज़ूर है?”
लड़के ने हामी भर दी और खेल शुरू हुआ. लड़का लामा के सामने घबराया सा था सो हारने लगा. हारता गया, फिर उसकी नज़र तलवार पर पड़ी और शर्त याद आ गई. नाक कटने के डर से अब संभल कर खेलना शुरू हुआ और एक-एक करके बाजियां जीतने लगा. लामा के चेहरे पर चिंता के भाव आने लगे. आखिरी बाजी थी और जीत लड़के के पाले में थी. जैसे ही वो आखिरी बाजी चलने लगा. रुक गया. सोचने लगा कि अगर हारने पर मेरी नाक कट जाए तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा पर लामा की नाक कटी तो लोग इनका मजाक बनांएगे. हो सकता है शर्म के मारे लामा शिक्षा देना बंद कर दें. इससे कितने विद्यार्थियों का नुकसान होगा. और उसने अगली चाल गलत चल दी और हार गया. लामा मंद-मंद मुस्कराने लगे और बोले कि आज से तुम इस मठ में रह सकते हो. शिष्यों ने पूछा कि हारने पर नाक काटने की बजाए आप इसे निरक्षर को मठ में रख रहे हैं.