मोहब्बत जिंदगी का एक खूबसूरत अहसास है और यह कभी भी जाति, धर्म, रंग या उम्र देख कर नहीं किया जाता. पर क्या आप जानते हैं कि आज भी हमारे देश में इंटरकास्ट लव मैरिजेज करने वालों की संख्या महज 5% ही है. 95% लोग अपनी जाति के दायरे में रह कर ही शादी करते हैं. नेशनल काउंसिल औफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च और यूनिवर्सिटी औफ मैरीलैंड की एक हालिया स्टडी से पता चलता है कि भारत में 95% शादियां अपनी जाति के अंदर होती हैं. यह स्टडी 2011-12 में इंडियन ह्यूमन डिवलपमैंट सर्वे द्वारा कराए गए सर्वे पर आधारित है. सर्वे में 33 राज्यों व केंद्रशासित क्षेत्रों के शहरी तथा ग्रामीण इलाकों में स्थित 41,554 घरों को शामिल किया गया था. जब इन घरों की महिलाओं से पूछा गया कि क्या आप की इंटरकास्ट मैरिज हुई थी, तो सिर्फ 5% ने ही हां में जवाब दिया. शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण इलाकों की तुलना में स्थिति थोड़ी बेहतर है.
अपनी जाति में शादी करने वालों में मध्यप्रदेश के लोगों की संख्या सब से ज्यादा 99% रही जबकि हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ में यह 98% था. भारत में यद्यपि कानूनी तौर पर अपनी जाति से बाहर शादी को मान्यता प्राप्त है. इंटरकास्ट मैरिज पर 50 साल पहले ही कानून पास किया जा चुका है. फिर भी लोग ऐसा करने का साहस नहीं जुटा पाते.
इस की मुख्य वजह है कि ऐसा करने पर अपने ही समुदाय द्वारा इन का जीना हराम कर दिया जाता है. इस सोमवार, झारखंड की काजल नामक लड़की के घरवालों के साथ महज इस वजह से मारपीट की गई, क्योंकि काजल ने सुबोध कुमार नामक दूसरी जाति के लड़के से लवमैरिज की थी. इस बात को 2 वर्ष हो चुके हैं. शादी के वक्त दोनों बालिग थे और इस रिश्ते को उन के परिवार वालों की स्वीकृति भी मिली हुई थी. फिर भी उन के समुदाय के दूसरे लोगों को यह बात हजम नहीं हो रही थी.
गांव के कुछ दबंग व्यक्तियों द्वारा उन्हें धमकियां दी जाती थीं. दंडस्वरूप उन्होंने रुपयों की भी मांग रखी. गत 16 मई को उन का आक्रोश इतना उबला कि 4-5 लोग लाठियां ले कर काजल के पिता एस. प्रजापति के घर पहुंच गए. काजल के मांबाप और दोनों भाइयों को बंधक बनाया और जम कर पिटाई की. घटना के बाद घायलावस्था में पूरा परिवार रोताबिलखता थाने पहुंचा.
दिल की आवाज सुनने का यह हश्र सिर्फ काजल का ही नहीं हुआ है, ऐसे हजारों लाखों युवक युवतियां हैं, जिन्हें अपनी जाति से बाहर शादी करने की सजा भुगतनी पड़ती है. उन के साथ र्दुव्यवहार व हिंसा होती है. उन्हें शारीरिक व मानसिक रूप से इतना प्रताडि़त किया जाता है कि कई दफा थक कर वे स्वयं ही जान दे देते हैं और यह सब करने वाले सामान्यता उन के परिवार के लोग नहीं वरन उन की जाति और गांव के लोग ही होते हैं. कई दफा प्यार करने वाले ऐसे युवकयुवतियां औनर किलिंग का शिकार भी बनते हैं. भले ही हम आधुनिक होने का कितना भी दंभ भर लें मगर सच तो यह है कि हमारी सोच वर्षों पुरानी मान्यताओं व धार्मिक रूढि़वादी परंपराओं के दलदल में फंसी हुई है. हम दिखाने को भले ही कितने भी प्रगतिशील बन जाएं मगर जब बात शादी की आती है तो जाति व्यवस्था के नाम पर युवापीढ़ी के साथ अन्याय करने से नहीं चूकते.
जरा सोचिए, भारत में करीब 3000 जातियां और 25000 उपजातियां हैं. शादी के वक्त न सिर्फ जाति वरन उपजाति का भी खयाल रखना पड़ता है. इस के बाद जाहिर है, हर इंसान की अपनी खास पसंद होती है. उसे विशेष भाषा, लुक्स, आर्थिक स्थिति, प्रोफेशन, उम्र, सामाजिक पृष्ठभूमि वगैरा भी देखना होता है. जाहिर है, इन सब के बीच चुनाव करना बहुत कठिन हो जाता है. विकल्प सिमट जाते हैं. नतीजा यह निकलता है कि मांग और पूर्ति का सिद्धांत काम करने लगता है और विवाह के बाजार में लड़कों की कीमत आसमान छूने लगती है. यहीं से दूसरी सामाजिक बुराइयां भी पैदा होने लगती हैं.
पहली बुराई जो पैदा होती है, वो है दहेज प्रथा. दहेज के नाम पर महंगे, घरेलू सामान, गहने, कपड़े, गाडि़यां आदि की व्यवस्था कर पाना सब के लिए आसान नहीं होता. नतीजा यह होता है कि शादी का खौफ उस के जन्म के साथ ही सताने लगता है. बहुत से लोगों को शादी के लिए उधार/लोन लेना पड़ता है तो कुछ रिश्वत ले कर भी लड़के वालों की मांग पूरी करते हैं. जो सुरसा के मुंह की भांति बढ़ती ही जाती है. अपनी जाति में दहेज दे कर शादी करने के बावजूद भारी संख्या में बेकसूर लड़कियां मारी जाती हैं. वर्ष 2012-14 के बीच की स्थिति देखें तो, करीब 25,000 महिलाएं दहेज प्रथा की वजह से मारी गईं या फिर इनलौज द्वारा किए गए अत्याचारों से त्रस्त हो कर आत्महत्या करनी पड़ी.
नेशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के डाटा के मुताबिक देश में वर्ष 2012, 2013 एंड 2014 में क्रमशः 9038, 10,709 और 10050 केसेज डाउरी प्रोहिबिशन एक्ट 1961 के अंतर्गत रजिर्स्ड हुए. नतीजा यह होता है कि लोग बेटी को जन्म देने से भी हिचकने लगते हैं और कन्या भू्रण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयां पैदा होती हैं. इस के विपरीत यदि अपनी ही जाति में शादी करने का सामाजिक दबाव न हो तो संभवतः युवकयुवतियां ज्यादा बेहतर ढंग से अपने जीवन साथी का चुनाव कर सकेंगे. बेमेल शादियां कम होंगी. दहेज जैसी प्रथाओं का तांडव घटेगा और अलगअलग संस्कृतियों के मेल से एक ज्यादा खूबसूरत समाज की रचना संभव हो सकेगी.