पिछले 5 अंकों में आप ने भूमि की जाति, भूमि से भविष्य और भूमि पर कब निर्माण करें आदि के बारे में पढ़ा था जो बेसिरपैर का था. अब आगे शिल्पशास्त्र में क्या कहा गया है, उसे पढि़ए-
वास्तुशास्त्र या वास्तुनाग
शिल्पशास्त्र में ऐसीऐसी ऊटपटांग बातें लिखी गई हैं कि कोई भी तर्कशील व्यक्ति अपना माथा पकड़ ले. इस में ज्योतिषी, अंधविश्वास और छद्मविज्ञान का उपयोग किया गया है, जिस से हिंदू समाज को मूर्ख बनाया जा रहा है.
शिल्पशास्त्र में हर घर की जमीन के अंदर एक आदमी की कल्पना की गई है, जिसे ‘वास्तुपुरुष’ कहा गया है. इसी तरह हर घर की जमीन के अंदर एक नाग (सांप) की कल्पना की गई है, जिसे ‘वास्तुनाग’ कहा गया है.
इस नाग की स्थिति तीनतीन महीने के बाद बदलती है. तीन महीने मुंह पूर्व में, पीठ उत्तर में और पूंछ पश्चिम में. फिर तीन महीने पीठ पूर्व में, मुंह दक्षिण में और पूंछ उत्तर में है. इस तरह आगे के तीनतीन महीनों की भिन्नभिन्न स्थितियां हैं. (शिल्पशास्त्र 2/16).
यदि वास्तुनाग के सिर वाले स्थान पर (जो तीन महीने पूर्व दिशा है, तीन महीने उत्तर दिशा है) खुदाई की जाए, कोई पेड़पौधा आदि लगाने के लिए यदि जगह खोदी जाए तो इस से पत्नी और बच्चों का विनाश होता है. यदि उस स्थान को खोदा जाए जहां उस नाग का पेट पड़ता हो तो सभी प्रकार का सुख प्राप्त होता है. यदि उस की नाभि के स्थान को खोदा जाए तो गुप्तांगों का रोग होता है, घुटने पर खोदा जाए तो लंबे समय के लिए प्रवास मिलता है, उस की जंघा पर खोदा जाए तो क्षयरोग होता है और उस की पूंछ खोदने पर मृत्यु होती है.
दारापत्यप्रणाशो भवति च खनने मस्तके नागराजस्य,
श्रीसंपत्ति: प्रभुत्वं यदि हृदि जठरे सर्वभागैरूपेत:.
नाभिगात्रेरतिशभयदो गृह्यदेशे च रोगो,
जान्वो दीर्घप्रवासी क्षयमपि जघने पुच्छदेशे च मृत्यु:.
(शिल्पशास्त्रम् 2/21-22)
यहां शिल्पशास्त्र ने काफी गप्पें हांकी हैं. यहां सांप के घुटने और जांघ की बात कही गई है. ये दोनों टांग के हिस्से हैं. सांप की टांग होती ही नहीं तो उस के घुटने और जांघें कहां से टपक पड़ेंगी?
दूसरे, यह नाग (सांप) सचमुच का नहीं, बल्कि कल्पित है. इसी लिए शिल्पशास्त्र ने कहा है-
स्थाने स्थाने प्रकल्पन्ते विपाके नाग अंतक: (2/15)
अर्थात वास्तुनाग की कल्पना की जाती है (प्रकल्पन्ते).
प्रश्न है कि यह कल्पित नाग किसी का क्या कुछ बना या बिगाड़ सकता है? यदि सचमुच का भी नाग हो और उस के सिर पर खुदाई करें, कुदाल वगैरह चलाएं तो वह खुद मर जाएगा. इधर, उस कल्पित नाग के कल्पित सिर पर कुदाल चलाने के शिल्पशास्त्र आदमी की पत्नी व उस के बच्चों की मौत की घोषणा कर रहा है.
कल्पित नाग के उन अंगों पर खुदाई के अच्छेबुरे फल शिल्पशास्त्र ने बता दिए हैं, जो अंग सचमुच के नाग के भी नहीं होते. यह सारा कुछ ऐसे लगता है मानो शिल्पशास्त्र भांग के नशे में लिखा गया हो.
वास्तु पुरुष की पूंछ?
जैसे नाग के न घुटने होते हैं, न जांघ, उसी तरह पुरुष की पूंछ नहीं होती परंतु यदि भांग का सुरूर हो तो शायद यह सब संभव है. इसीलिए वास्तु (घर) में जैसे कल्पित नाग के न होने वाले अंगों के भी अच्छेबुरे फल बता दिए गए हैं, वैसे ही वास्तु पुरुष की पूंछ पर खुदाई न करने की बात कही गई है.
वास्तो: शिरसि पुच्छे च,
आयु : कामं खनन्नैव.
शिल्पशास्त्रम् 2/23
(वास्तु पुरुष की पूंछ और उस के सिर पर अपनी जिंदगी (उमर) चाहने वाला कभी खुदाई न करे.)
दो अध्याय समाप्त हो गए हैं. क्या आप ने शिल्प संबंधी कोई बात सम झी, सुनी या सीखी है, इस शास्त्र से?
तीसरे अध्याय में केवल दो बातें हैं. पहली है, जब आप घर बनाने के लिए खुदाई करने जा रहे हों तो आप को क्या दिखाई देने पर कैसा फल मिलेगा.
यदि तब ध्वज, वस्त्र आदि दिखाई दे तो धन प्राप्ति होती है, यदि जल से पूर्ण घड़ा दिखाई दे तो धन व स्वर्ग आदि प्राप्त होता है.
ध्वजवस्त्रपताकादि दर्शने धनसम्भव :
पूर्णकुंभे भवेद् वित्तं प्राप्रोति कनकादिकम्
शिल्पशास्त्रम् 3/1
परंतु यदि आप को कोई अपाहिज, भिक्षुक, विधवा, रोगी और लंगड़ा दिखाई दे और आप तब भी घर बनाना शुरू कर दें तो आप की मृत्यु निश्चित है :
हीनांगो भिक्षुकश्चैव वन्ध्या रोगार्त्तिखंजकौ,
दृश्यते चेद् गृहारंभे कर्त्तुश्च मरणं धु्रवम्.
शिल्पशास्त्रम् 3/3
यह ‘अपाहिज’ व ‘लंगड़े’ के प्रति दुर्भावना का परिचायक है, जबकि आज इन लोगों के लिए इस तरह के ठेस पहुंचाने वाले शब्द इस्तेमाल करना भी उचित नहीं सम झते. इन्हें ‘शारीरिक तौर पर चुनौतीपूर्ण’ कहते हैं. जो स्वयं भिखारी है, जो स्वयं विधवा है, जो स्वयं शारीरिक तौर पर परेशान हैं, वे बेचारे उस घर बनाने वाले की मृत्यु के कारण कैसे बन सकते हैं? क्या इन्हें देखने से ही गृहकर्ता के मुंह में पोटैशियम साइनाइड पहुंच जाएगी? इन्हें देखने से कितने गृहकर्ता या गृहस्वामी आज तक मर चुके हैं?
यह सारा कथन उक्त लोगों के प्रति अकारण द्वेषपूर्ण प्रचार है. हमें इस से बचना होगा.
इस अध्याय की दूसरी बात है उन अंधविश्वासों की सूची जो घर बनाते समय सूत्र (= धागे) के टूट जाने आदि से संबंधित हैं.
कहा है, यदि विस्तार करते समय सूत्र टूट जाए तो इस से मृत्यु होने की आशंका पैदा हो जाती है. अत: घर बनवाने वाले को चाहिए कि वह विधिविधान के साथ शांति कर्म (शांति के लिए पूजापाठ), हवन आदि करवाए :
सूत्रस्य छेदनात् क्षिप्रं दु:खं स्यान्मरणान्तकम्,
अतो विधिविधानेन शांतिहोमं तु कारयेत्. शिल्पशास्त्रम्, 3/4
जब सूत्र को गिनतीमिनती आदि के लिए फैलाया जाए, तब यदि गाय के रंभाने की आवाज सुनाई दे तो निश्चित है कि वहां धरती में किसी गाय की हड्डियां होंगी. इस के फलस्वरूप वास्तुपति (= गृहस्वामी) की मृत्यु निश्चित है :
सूत्रे बिस्तीर्यमाने तु धेनु: शब्दायते यदि,
गवास्थीन्यत्र
जानीयान्मृत्युर्वास्तुपतेर्भवेत्
शिल्पशास्त्रम्, 3/8
अब यदि सचमुच में धरती के नीचे किसी मृत गाय की हड्डियां हों भी तो कोई दूसरी जीवित गाय उस धरती पर सूत्र फैलाने के समय कैसे रंभा सकती है? धरती के नीचे की हड्डियों, उस के ऊपर के सूत्र तथा दूर स्थित किसी गाय, इन तीनों में आपस में क्या संबंध है? गाय को किस माध्यम से पता चलेगा कि उस स्थान पर गाय की ही हड्डियां हैं? अब यदि वे हैं भी और मान लो गाय को भी पता चल गया है, तब गाय या वे हड्डियां उस की मृत्यु का कारण कैसे हो सकती हैं, जो वहां घर बनवा रहा है?
लोग जब गाय के बछड़े को दूध नहीं देते या जब उस का बछड़ा मर जाने पर नकली बछड़ा वहां उस के आगे डाल देते हैं, तब तो गाय किसी की मृत्यु का कारण नहीं बनती, फिर वह गृहस्वामी की मृत्यु का कारण कैसे बन सकती है, जबकि उस ने उस गाय को मारना तो एक ओर रहा, कभी देखा तक भी नहीं? यदि गाय में किसी को मारने की दैवीय शक्ति है, तब तो ‘गौहत्या बंद करो’ के नारे लगाने की किसी को जरूरत ही नहीं, तब तो उन हत्यारों से गाएं खुद ही हिसाब बराबर कर लेंगी. हत्यारे को तो गाय मार नहीं सकतीं, परंतु जिस ने कुछ भी नहीं बिगाड़ा, उस की वह मौत ला देगी- ऐसा कोई घोर अंधविश्वासी ही मान सकता है, कोई स्वस्थ व सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति नहीं.
कुत्ता, गधा व कौआ
शिल्पशास्त्र कहता है कि यदि सूत्र विस्तार करते समय कुत्ते का रोना सुनाई दे तो इस का मतलब है कि गृहस्वामी शीघ्र ही कुत्ते के काटने से मारा जाएगा :
सूत्रे विस्तीर्यमाने तु कक्कुरो यदि रुघते,
अचिरेणैव कालेन शूना निहत एव स:
-शिल्पशास्त्रम् 3/9
जो कुत्ता खुद रो रहा है, वह अपना तो दुख दूर नहीं कर पा रहा. वह किसी दूसरे की मृत्यु का सूचक व कारक कैसे हो सकता है? आज तो टीके बन चुके हैं, कुत्ते के काटने की दवा के तौर पर. समय पर पूरा कोर्स करने से कोई नहीं मरता. अत: यह शिल्पशास्त्रीय कथन एकदम निरर्थक है.
यदि गधा रेंकता सुनाई दे तो जहां घर बनाते ही, उस स्थान को खाली कर जाओ और घर कहीं अन्यत्र बनाओ. यदि गृहस्वामी का मुख देख कर कौआ शब्द करने लगे तो उस की अचानक मृत्यु हो सकती है :
गर्दभो शब्दयते तत्र तद्गेहं परिवर्जयेत्,
काको दृष्ट्वा मुखं रौति धु्रवं मृत्युर्विनिर्दिशेत्.
-शिल्पशास्त्रम् 3/10
गधा यदि रेंकता है तो क्या वह गृहस्वामी से यह कहता है कि तुम यह जगह छोड़ कर चले जाओ और अन्यत्र घर बनाओ? यदि वह ऐसा कहता भी हो तो कोई दूसरा गधा भी उस की बात न मानेगा, इंसान की तो बात ही छोडि़ए. फिर शिल्पशास्त्र किस आधार पर उस जगह को छोड़ कर भागने के लिए कह रहा था? क्या यह भोलेभाले लोगों को इस तरह भगा कर खुद उन की भूमि को हथियाने का षड्यंत्र तो नहीं?
आगे कहा है कि यदि किसी गृहस्वामी को देख कर कौआ शब्द करे तो सम झो वह मृत्यु के आगे की सूचना दे रहा है. यह किस आधार पर कहा है? क्या कौआ मृत्यु के यहां संदेशहर का काम करता है? कौआ गृहस्वामी को देख कर चाहे रोटी का टुकड़ा मांगता हो, पर वास्तुशास्त्र को मृत्यु ही मृत्यु सर्वत्र दिखाई देती है. लोग इस तरह डरेंगे, तभी तो इन के जाल में फंसेंगे.
यदि सूत्र विस्तार करते समय सांप दिखाई दे तो सम झो वह गृहपति थोड़ा समय ही जीवित रहेगा और सांप के काटने से मरेगा :
सूत्रे विस्तीर्यमाने तु पन्नगो यदि दृश्यते,
अचिरेणैव कालेन सर्पेण निहतो धु्रवम्.
शिल्पशास्त्रम् 3/11
आज तो कई बड़ेबड़े होटलों में लोग चुन कर सांप का मीट खाते हैं, अपने ये शिल्पशास्त्र सांप दिखे जाने को ही मौत का वारंट बता रहे हैं. यदि सांप दिखाई दे गया है तो क्या उस का इलाज नहीं किया जा सकता? इस तीसरे अध्याय में भी शिल्प के बारे में कुछ नहीं, उस का छिलका तक नहीं. सिर्फ अंधविश्वासपूर्ण और थोड़ी बातें हैं.
चतुर्थ अध्याय में कहा गया है कि जिस स्थान पर राख, हड्डी, काठ, कोयला, भूसा, बाल, खोपड़ी, रक्त, दांत, मिट्टी का घड़ा मिला हो, वहां घर नहीं बनाना चाहिए. जो वहां रहेगा उस के यश और धन का श्रय होगा :
भस्मास्थि काष्ठमंगारं तुषं बालं कपालकम्,
रक्तपुत्तिकदन्तं च मृद्भाण्डास्थीति यत्र वै,
तत्रावासो न कर्तव्य : कृते कीर्तिधनक्षयम्. -शिल्पशास्त्रम् 4/1
ये चीजें किसी के यश और धन का क्षय कैसे करेंगी, इस के बारे में शिल्पशास्त्र ने कुछ नहीं बताया. इन चीजों को वहां से हटा देने पर और भूमि की साफसफाई करने के बाद ये किसी को क्या कहेंगी, सम झ नहीं आता.
यदि उस स्थान से, जहां घर बनाना है, खोदते समय ईंट निकले तो धन का लाभ होता है, परंतु यदि पत्थर निकले तो सारी संपत्ति का क्षय होगा. यदि सांप निकले तो मौत होगी, यदि कोयला निकले तो वहां घर बनाने वाले का सारा कुछ नष्ट हो जाएगा.
इष्टकायामर्थलाभ: पाषाणे सर्वसम्पद:,
सर्पादौ निधन कर्त्तुरंगारे च कुलक्षयम्.
-शिल्पशास्त्रम्, 4/2
यदि ईंट निकलने पर धन लाभ होता है, फिर तो पत्थर निकलने पर स्वर्ण, रत्न, हीरक आदि मिलने चाहिए, परंतु शिल्पशास्त्र पहली संपत्ति के भी नष्ट होने की बात करता है, जो खुद पत्थर है वह यह सब कैसे कर सकता है?
सर्प यदि निकला है तो उसे ठिकाने लगाओ, वह तुम्हारी मृत्यु कैसे ला सकता है? रही बात कोयले की. जिस स्थान पर नीचे कोयले की खाने हैं, वहां रहने वाले का भी किसी का सारे का सारा कुल नष्ट नहीं हुआ, तुम्हारा कुल धरती के नीचे से निकले कोयले के एक टुकड़े से ही नष्ट हुआ जा रहा है? है कोई तुक इस में?
यदि घर के पूर्व में ढलान हो तो वह वृद्धिकारक होती है, उत्तर में हो तो धनदायक होती है, पर पश्चिम में हो तो हानिकारक होती है. इसी तरह दक्षिण की ओर झुके मकान में रहना भी मृत्युकारक होता है :
पूर्वप्लवो वृद्धिकरो धनदश्चोत्तरप्लव:,
दक्षिणो मृत्युदश्चैव धनहा पश्चिमप्लव : शिल्पशास्त्रम् 4/3
यदि पूर्व में ढलान वृद्धिकारक है और उत्तर में धनदायक, तो पश्चिम में वह हानिकारक क्यों? क्या उधर से खजाना खिसक जाएगा? किस आधार पर? कैसे, उस के धनदायक या वृद्धिदायक होने का भी क्या प्रमाण है? जैसे उस के धनात्मक पक्ष गप और मनगढ़ंत हैं, उसी तरह उस के ऋणात्मक पक्ष हैं.
दक्षिण की ओर झुके मकान से ही क्यों मृत्यु होती है, बाकी दिशाओं में उस के झुके रहने से क्यों नहीं होगी? क्या उन दिशाओं में झुके मकानों में रहने वाले अमर हैं?
पीपल का पेड़
पीपल के पेड़ की प्रशंसा में कई बार जमीनआसमान के कुलाबे मिलाए जाते हैं. परंतु शिल्पशास्त्र कहता है कि इसे घर के पूर्व में नहीं लगाना चाहिए. इसी तरह दक्षिण में इमली का, पश्चिम में बरगद का तथा उत्तर में उदुंबर (गूलर) का पेड़ लगाना वर्जित है :
पूर्वेडश्वत्थं वर्जयित्वा तिन्हड़ीं दक्षिणे तथा,
पश्चिमांशे वटं तद्वदुत्तरे न हयुदुम्बरम्. – शिल्पशास्त्रम् 4/4
ये पेड़ जिन दिशाओं में वर्जित कहे गए हैं, वे किस आधार पर कहे गए हैं? वास्तुशास्त्र या शिल्पशास्त्र के पास केवल बातें हैं, जिन्हें आंखें बंद कर के स्वीकार करना होगा, क्योंकि इस के पास किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है. जो कह दिया, बस वही अंतिम शब्द बन गया. कोई जरा सी भी बुद्धि रखने वाला और जरा सा भी स्वाभिमानी व्यक्ति इस को आंखें मूंद कर कैसे स्वीकार कर सकता है?
आगे के कई श्लोकों में ऐसे ही अन्य वृक्षों के बारे में फतवे जारी किए गए हैं कि यदि पूर्व दिशा में जलभरण होता हो तो पुत्र की हानि होती है, यदि आग्नेय (=दक्षिण पूर्वी) दिशा में होता हो तो अग्निभय होता है, दक्षिण दिशा में हो तो शत्रुभय होता है, यदि नैनहत्य (दक्षिण पश्चिमी) दिशा में हो तो पत्नी से कलह होती है, पश्चिम में हो तो पत्नी दुष्ट होगी, वायव्य (= पश्चिम उत्तर) दिशा में हो तो संपत्ति का क्षय होता है, और उत्तर पूर्व में हो तो वृद्धिकारक होता है :
प्रागादिस्थे सलिले सुतहानि: शिखिमयं रिपुभयं च,
स्त्रीकलह : स्त्रीदौष्टयं नै:ष्टं वित्तामृज वृद्धि:.
-शिल्पशास्त्रम् 4/7
यह फल कथन भी पहले फलकथनों के समान ही निराधार, निर्मूल, मनगढ़ंत और थोथा है. इसी के साथ अध्याय चार समाप्त हो जाता है.
पांचवें अध्याय के केवल 4 श्लोक मिलते हैं, जिन में साधारण सी बातें हैं. पूर्व का कमरा किस नक्षत्र में शुभ होता है, किस दिशा के द्वार में किस ओर मुंह कर के प्रवेश करना चाहिए, आदि.
बिना कोई शिल्प के कोई बात बताए शिल्पशास्त्र समाप्त हो जाता है. क्या इस तरह के ग्रंथ शिल्प की दृष्टि से किसी काम के हैं? ये शिल्प के नाम पर ज्योतिषी, लालबु झक्कड़पन, पुरोहितवाद, अंधविश्वास, छद्मविज्ञान और शकुन आदि को ही प्रचारित करते हैं. इन से सावधान रहने में ही हिंदू समाज का भला है, क्योंकि यह यथार्थ में शिल्पशास्त्र नहीं बल्कि शिल्प का छीछड़ा है, शिल्प का विद्रूप है.