4 जून, 2024 को आए आम चुनाव के नतीजों ने एक अहम बात यह स्पष्ट कर दी है कि लोकतंत्र में जनता अपना भविष्य खुद लिखने में भरोसा करती है. लेकिन ये नतीजे कई सवाल भी खड़े कर गए हैं, मसलन यह कि अगर कोई लहर भाजपा के पक्ष में थी या नहीं भी थी तो उसे मध्य प्रदेश, ओडिशा, दिल्ली और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बंपर सफलता क्यों मिली और उत्तर प्रदेश, राजस्थान व हरियाणा जैसे अपने दबदबे वाले राज्यों में वह उम्मीद से ज्यादा दुर्गति का शिकार क्यों हुई और क्यों दक्षिण में भी उसे मुंह की खानी पड़ी? वहां क्यों उस के हिंदुत्व का कार्ड नहीं चला?

क्यों भाजपा राम वाली अयोध्या सीट से हारी जिस के चलते हिंदू घोषिततौर पर दोफाड़ हो गए. अलावा इस के, जवाब इस सवाल का भी महत्त्वपूर्ण है कि कांग्रेस क्यों सियासी पंडितों की उम्मीद से ज्यादा सीटें बटोर ले गई. पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी उसे पिछले चुनाव के मुकाबले कुछ खास हाथ नहीं लगा और इन से भी ज्यादा अहम सवाल यह कि क्या वाकई में नरेंद्र मोदी का जादू उतर रहा है और राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ रही है? और ऐसा क्या हो गया जो फिर से गठबंधन वाली सरकार को आकार लेना पड़ा?

इन सवालों का कोई एक जवाब जो सटीक और नतीजों को जस्टिफाई करता हुआ है वह यह है कि इस बार जनता ने अपने वोट का इस्तेमाल कलम की तरह किया और लिख दिया कि उसे कोई अवतार नहीं, भगवान नहीं, धर्मकर्म, कर्मकांडों के नाम पर फलतेफूलते पाखंड नहीं, अयोध्या, काशी, मथुरा नहीं, रासलीलाएं और रामलीलाएं नहीं, कलश यात्राएं और कांवड़ भी नहीं बल्कि एक अच्छी मैनेजिंग गवर्नमैंट चाहिए जो स्कूल, सड़क, अस्पताल बनाए और अर्थव्यवस्था मजबूत बनाए, फैक्ट्रियां व कारखाने बनाए जिन से रोजगार के नएनए मौके मिलते हैं. यह और ऐसा बहुतकुछ पिछले 10 सालों से नहीं हो रहा था, उलटे आम लोग इतनी दहशत और घुटन में जी रहे थे कि इस से नजात पाना ही एक वक्त में दुष्कर काम लगने लगा था.

जो हो रहा था उसे संक्षेप में दोहराया या याद किया जाए तो सोच कर ही कंपकंपी छूटने लगती है कि देश की अधिसंख्य आबादी जो दलितपिछड़ों और अल्पसंख्यकों की होती है एक खास किस्म के शोषण और आतंक का शिकार हो चली थी. यह शोषण और आतंक धार्मिक भी था, सामाजिक भी था और आर्थिक भी. मोदी सरकार ने 10 साल तबीयत से धर्मकर्म की, पाखंडों की, मंदिर की, दानदक्षिणा की, खर्चीले भव्य धार्मिक आयोजन की और हिंदूमुसलिम की राजनीति की और डंके की चोट पर इतने ढोलधमाके के साथ की थी कि लोगों के कान के परदे और दिमाग की नसें दोनों फटने लगे थे.

लेकिन मोदी सरकार को आम लोगों की परेशानियों से कोई सरोकार नहीं था, उलटे, वह तो और नईनई परेशानियां पैदा करने पर उतारू हो आई थी. उस का मकसद सबकुछ अपनी मुट्ठी में कैद करने का होता जा रहा था. इस बाबत उस ने वन नेशन वन इलैक्शन का ढिंढोरा पीटते इस की तैयारियां भी शुरू कर दी थीं. सरिता के मई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित कवर स्टोरी, ‘एक का फंदा, एक देश, एक चुनाव, एक टैक्स यानी एक ब्रह्म, एक पार्टी एक नेता…’ में इस मंशा की बाल की खाल निकाली गई है और पोल खोली गई है. यहां उस रिपोर्ट के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्तुत हैं-

इस कथित धर्मनिरपेक्ष देश में 5 मई को भाजपा ने एक विज्ञापन जारी किया था जिस में कहा गया था कि हम महाकाल की तर्ज पर धर्मस्थलों का विकास करेंगे. इसलिए भाजपा को वोट दो.

एक देश एक चुनाव के पीछे मंशा यह है कि इन मुद्दों को 5 साल में एक बार में ही भुना लिया जाए और फिर नेता 5-6 साल बैठ कर इत्मीनान से  राज करें क्योंकि तब तक जनता जनार्दन के हाथ कटे रहेंगे.

इतिहास बताता है कि आधुनिक यानी तथाकथित लोकतांत्रिक तानाशाहों में और प्राचीन तानाशाहों में बड़ा फर्क होता है. अब तानाशाही का मतलब सामूहिक नरसंहार नहीं बल्कि पूंजी को मुट्ठीभर हाथों को सौंप देना हो गया है और इस के लिए किसी विचार या दर्शन का नहीं, बल्कि धर्म का सहारा लिया जाने लगा है.

लोकतांत्रिक तानाशाही में तमाम दक्षिणपंथी शासक भगवान हो जाने की आदिम इच्छा से ग्रस्त होते हैं. लंबे समय तक सत्ता एक ही के हाथ में रहे तो उसे धीरेधीरे अपने भगवान हो जाने का भ्रम होने लगता है.

नरेंद्र मोदी की मंशा अब विकास या देश चलाना नहीं रह गई है बल्कि वे अद्वैत को थोपने में लग गए हैं.

लेकिन 4 जून का नतीजा जनता ने भाजपा और नरेंद्र मोदी दोनों के लिए इनाम नहीं बल्कि सजा की शक्ल में इस चैलेंज के साथ परोस दिया है कि अब अगर दम है तो यह सब दोबारा कर के दिखाओ.

जनता की इस चुनौती को आंकड़ों की शक्ल में देखें तो 543 लोकसभा सीटों में से भाजपा को महज 240 सीटें मिली हैं जो पिछले चुनाव के मुकाबले 63 कम हैं. 272 का नंबर छूने एनडीए के बड़े घटक दलों में नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड की भागीदारी 12 सीटों की और चंद्रबाबू नायडू की अगुआई वाली तेलुगूदेशम पार्टी की 16 सीटों की है. चिराग पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी की 5 और एकनाथ शिंदे की शिवसेना की 7 सीटें मिला कर यह संख्या 280 हो जाती है. बाकी एकएक दोदो सीटों वाली चिल्लर पार्टियों की 12 सीटें और जोड़ दें तो एनडीए के पास 292 सीटें होती हैं.

एक बेमेल गठबंधन

यह गठजोड़ भाजपा और नरेंद्र मोदी की मनमानी पर लगाम है जो 10 साल पानी पीपी कर गठबंधन वाली सरकारों की खिल्ली उड़ाते रहे थे. अब उसी खिचड़ी का हिस्सा बनने को जनता ने उन्हें मजबूर कर दिया है, यही लोकतंत्र की खूबी और खासीयत है. एनडीए के 4 में से 3 बड़े घटक दल ही नहीं, सभी छोटी पार्टियां भी मूलतया सैक्युलर हैं जिन्हें धर्म की राजनीति से कोई वास्ता कभी नहीं रहा. शिवसेना के अलावा इन्होंने कभी मंदिरों और देवीदेवताओं के नाम पर वोट नहीं मांगे. कभी नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू और चिराग पासवान को धोतीकुरता और तिलक लगा कर पूजापाठ करते या आरती उतारते या कि किसी गंगा में डुबकी लगाते किसी ने नहीं देखा, न ही इन्होंने कभी सार्वजनिक तौर पर माथे पर त्रिपुंड लगा कर यज्ञहवन कर आहुतियां डालीं. एक सीटधारी हम पार्टी के मुखिया बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मां?ा तो सनातन धर्म के खुलेतौर पर विकट के आलोचक हैं जो रामायण और राम की प्रासंगिकता और वास्तविकता पर उतनी ही उंगली उठाते रहे हैं जितनी कि तमिलनाडु के मंत्री उदयनिधि स्टालिन उठा चुके हैं.

मतदाता ने नतीजों के जरिए कहा यह है कि धर्म से यथासंभव राजनीति को और सरकार को तो एकदम अलग रखा जाए क्योंकि धर्म है तो ज्यादा से ज्यादा व्यक्तिगत आस्था का विषय है जबकि धर्मनिष्ठ जनता की राय में भी इस का व्यवसायीकरण व बाजारीकरण या राजनीतीकरण न किया जाए जोकि मोदी सरकार 10 साल से कर रही थी. शुरू में तो कट्टरवादियों की हां में हां मिलाते हुए लोगों को इस में हर्ज नजर नहीं आया था लेकिन जब इस के पीछे छिपे खतरनाक और विध्वंसक मंसूबे उजागर होने लगे तो लोग घबरा उठे. सदियों से उठती हिंदू राष्ट्र की मांग इन्हीं 10 सालों में जिद और जनून में तबदील हुई. सरिता हमेशा ही हिंदू राष्ट्र के खतरों से आगाह करती रही है कि इस से किसी को कुछ हासिल होने वाला नहीं है, उलटे, जो छिनेगा उस की भरपाई सदियों तक भी नहीं हो पाएगी.

दरअसल धर्म दुनिया का सब से बड़ा धंधा है जिस से फायदा हर समाज में चंद एजेंटों को ही होता है. यह वह वर्ग है जो ईसाई देशों में पोप, पादरी, इस्लामिक देशों में इमाम, हाफिज वगैरह और भारत जैसे कथित हिंदू (हकीकत में ब्राह्मण) राष्ट्र में पंडेपुजारी शंकराचार्य, मठाधीश, स्वामी आदि के नाम से जाने जाते हैं. मोदीराज में इन का टर्नओवर हर रोज बढ़ रहा था. इस से पहले आम लोगों को कोई खास फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि वे खुद दानदक्षिणा के जरिए इन्हें पालतेपोसते हैं लेकिन जब यही काम सरकारी संरक्षता में बड़े पैमाने पर सरकार करने लगी तो इस के साइड इफैक्ट भी सामने आने लगे.

पहला इफैक्ट हिंदूमुसलिम होते रहने का था जिस से लोगों की आम जिंदगी गड़बड़ाने लगी थी. हिंदुओं के दिलोदिमाग में मुसलमानों के प्रति इतनी जबरदस्त नफरत भर दी गई कि लोगों को मुसलमान दुश्मन नजर आने लगे. इफरात से मुसलमानों को हिंदू धर्म और संस्कृति को नष्टभ्रष्ट करने वाला, मंदिर तोड़ने वाला, हिंदू औरतों की इज्जत लूटने वाला बताया गया और इस के तथ्य उस इतिहास से लिए गए जो हिंदू ब्राह्मणों ने लिखा ही नहीं था और मुसलिम इतिहासकारों और यूरोपीय इतिहासकारों का जमा किया है. ये बातें आंशिक रूप से अभी भी जिंदा हैं. आरएसएस और भाजपा ने कभी इस मानसिकता को हतोत्साहित करने की कोशिश नहीं की, उलटे, जितना हो सकता था इसे और हवा ही दी.

लंका जैसा अयोध्या कांड

इस से नुकसान क्या और कैसे हो रहे थे, यह बात नतीजों के बाद 4 जून की रात से ही सामने आने लगी जब हिंदू ही हिंदू को गाली देने लगा. सनातनी परंपरा के अनुरूप हमेशा की तरह गाली देने वाला हिंदू ऊंची जाति का और खाने वाला छोटी जाति वाला हिंदू था. सोशल मीडिया पर अयोध्या के हिंदुओं को गद्दार जैसे संबोधनों से नवाजते मांबहन की भद्दी गलियों के अलावा उन्हें मुफ्तखोर और कृतघ्न यानी एहसानफरामोश के साथसाथ और भी न जाने क्याक्या कहा गया और महीनों कहा जाएगा.

चंद घंटों में ही इस बौखलाहट और ?ाल्लाहट की वजह भी सामने आ गई कि दरअसल ऊंची जाति वाले हिंदू नीची जाति वाले हिंदुओं, जिन्हें धर्मग्रंथों में शूद्र से भी नीच, अछूत और आम बोलचाल की भाषा में दलित कहा जाता है, को दुत्कार रहे हैं क्योंकि उन्होंने खासतौर पर अयोध्या लोकसभा सीट पर भाजपा को वोट नहीं दिया था. अयोध्या उत्तर प्रदेश की फैजाबाद लोकसभा सीट के तहत आता है जहां शूद्रों से नीचे एससी दलितों की आबादी 26 फीसदी, मुसलमानों की 14 फीसदी और ब्राह्मणों व शूद्र कुर्मियों और यादवों की 12-12 फीसदी है. बाकी 24 फीसदी में ठाकुर और वैश्य वगैरह ऊंची जातियां हैं.

इस सीट से भाजपा ने ठाकुर बिरादरी के लल्लू सिंह को तीसरी बार टिकट दिया था जबकि इंडिया गठबंधन ने एक अछूत दलित पासी समुदाय के सपा विधायक अवधेश पासी को मैदान में उतारा था. जबकि, यह सुरक्षित सीट नहीं थी. भाजपा यह मान कर चल रही थी कि इस बार भी वही जीतेगी क्योंकि यह तो रामलला की नगरी है. दूसरे, मंदिर बनने के बाद अयोध्या में अरबों रुपए खर्च कर विकास कार्य सरकार ने किए हैं. सड़कें चौड़ी हुईं, रेलवे स्टेशन चमचमाने लगा, हवाई अड्डा बना, रंगबिरंगी बिजलियां लगीं, इमारतें चमकने लगीं और मंदिर में बेहिसाब सोना मढ़ा गया. लाखों लोगों ने अयोध्या आ कर जम कर खर्च भी किया.

लेकिन जब नतीजा आया तो हरकोई भौचक्क रह गया क्योंकि लल्लू सिंह भाजपा के सपा के अवधेश पासी के हाथों 54,567 वोटों से हार गए थे.

योगी-मोदी की भक्ति पर वोटर की शक्ति भारी पड़ी. अयोध्या के सभी लोगों को, चाहे वे भाजपा वोटर थे या सपा वोटर, देशभर से गालियां पड़ीं. तरहतरह के पौराणिक किस्सेकहानियां आम हुए कि अयोध्या के लोग तो त्रेता युग में भी गद्दार थे तो आज उन से कैसे भक्ति और निष्ठा की उम्मीद की जा सकती है. राम वनवास और सीता की अग्निपरीक्षा जैसे गंभीर संवेदनशील लेकिन अप्रासंगिक हो चले प्रसंगों का दोषी भी इन्हें ही ठहरा दिया गया लेकिन आश्चर्य की बात शम्बूक का जिक्र किसी ने नहीं किया, जिस शूद्र को वेदों के पाठ को स्मरण करने पर सजा दी गई थी.

जल्द ही अयोध्या के लोगों के आर्थिक बहिष्कार की अपीलें सोशल मीडिया पर ठीक वैसे ही प्रवाहित होने लगीं जैसे आमतौर से मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की होती रहती हैं. शुक्र इस बात का रहा कि वे संविधान में बने एससीएसटी एक्ट का उल्लंघन करने से डरे, नहीं तो दलितों को जातिसूचक संबोधनों से अपमानित करने में वे चूकते नहीं. इस लिहाज की वजह भाजपा की बाकी जगह की दुर्गति का भी भरम था जो तब ताजीताजी थी.

अगर संविधान नहीं होता, जिस की चर्चा पूरे चुनावप्रचार में सुर्खियों में रही थी, तो इन दलितों का और क्याक्या व कैसाकैसा हश्र होता, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्हें तो धर्मग्रंथों के मुताबिक ज्ञान और शिक्षा का अधिकार ही नहीं, ऐसा करने पर तो इन के कानों में पिघला सीसा तक डालने के निर्देश हैं और राजा को इन्हें जान से मार डालने तक का अधिकार मिला हुआ है. लेकिन अभी तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था.

बस, इन के ?ोंपड़े, जमीनजायदाद और दुकानें अयोध्या के विशाल मंदिर निर्माण के लिए नाममात्र के मुआवजे के एवज में अधिगृहीत कर लिए गए थे. इस से ताल्लुक रखते वीडियो भी सामने आए थे जिन में अयोध्या की औरतें रोते हुए यह बता रहीं थीं कि कैसे मंदिर की भव्यता के लिए उन के कच्चेपक्के आशियाने मामूली मुआवजे के एवज में उजाड़े गए और राम ने कब कहा कि इन्हें खदेड़ कर मेरा मंदिर बना दो. अब अगर दलितों ने भी वोट के जरिए अपने हक का इस्तेमाल कर लिया तो तिलमिलाने वाले तिलमिला उठे मानो उन्होंने कोई संगीन गुनाह कर दिया हो.

डूबी लुटिया यूपी में

बात अकेले अयोध्या की नहीं थी बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में मुसलमानों सहित दलितों और पिछड़ों ने भाजपा को नकार दिया था क्योंकि वह उस धर्म की राजनीति करती रही थी जो केवल सवर्णों के भी कट्टरपंथियों का है. धर्म इन दलितों के बारे में क्या राय रखता है, सरिता को यह बताते 65 साल हो गए हैं. अब कहीं जा कर दलितों को थोड़ी अक्ल आई है कि हम क्यों धार्मिक और जातिगत भेदभाव बरदाश्त करें लेकिन पढ़ेलिखे सवर्णों को यह अक्ल अभी भी नहीं आ रही कि वे धार्मिक संकीर्णता और भेदभाव वाली मानसिकता छोड़ दें.

धर्म से परे मौजूदा राजनीति की बात करें तो उत्तर प्रदेश की 80 में से 33 सीटें ही भाजपा को मिलीं. भाजपा की सहयोगी आरएलडी को 2 और अपना दल के खाते में एक सीट उस की मुखिया अनुप्रिया पटेल को मिली. सपा को रिकौर्ड 36 और पिछले चुनाव में केवल एक सीट ले जा पाई कांग्रेस के खाते में 6 सीटें आईं. बची एक नगीना सुरक्षित सीट आजाद समाज पार्टी के मुखिया चंद्रशेखर रावण ने जीती जिन्होंने भाजपा के ओम कुमार को 1.50 लाख वोटों से शिकस्त दी. सपा के मनोज कुमार को 1.2 लाख ही वोट मिले.

यह नगीना की सीट भी वोट पैटर्न और आने वाली दलित राजनीति के लिहाज से अहम है. बसपा के सुरेंद्र पाल सिंह को केवल 13,272 वोट मिले जबकि पिछला चुनाव बसपा के गिरीशचंद्र ने भाजपा के उम्मीदवार यशवंत सिंह को एक लाख से भी ज्यादा वोटों से हरा कर जीता था. भाजपा से डरीसहमी बसपा सुप्रीमो मायावती के खत्म होते दौर को इस से सहज सम?ा जा सकता है. मुमकिन है चंद्रशेखर रावण में दलित अपना नया नेता देखने लगे हों जिन्होंने जीतते ही इंडिया गठबंधन पर अपना भरोसा जताया.

भाजपा ने दलितों का भरोसा खो दिया, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं बल्कि ऐसा कहने की कई वजहें हैं कि वह फिर से सिर्फ ब्राह्मणों और उन के मूर्ख भक्त बनियों की पार्टी साबित होने लगी है. उस के वोट शेयर में कोई खास बदलाव नहीं हुआ लेकिन इंडिया गठबंधन के चलते विपक्ष का वोट एकजुट हो गया. अखिलेश यादव का पीडीए यानी पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक फार्मूला कैसे एक जादू की तरह चला और कैसे राहुल गांधी नायक बन कर उभरे.

हिंदू भक्त और मोदी को अवतार सा मानने वाले हिंदीअंग्रेजी चैनलों ने जम कर विश्लेषण कर के कहना चाहा कि अभी खास बिगड़ा नहीं है पर उन की खिसियाहट स्पष्ट है क्योंकि 1 जून को एक्जिट पोलों में ये धार्मिक न्यूज चैनल जनता को बता चुके थे भाजपा को 350 और गठबंधन को 400 सीटें मिलेंगी ही.

सोशल मीडिया के दुष्प्रचार और प्रचारकों की हकीकत एक बार फिर 6 जून को उजागर हुई जब आगरा पुलिस ने धीरेंद्र राघव नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया जिस ने मुसलिम गेटअप रख कर भड़काऊ रील वायरल की थी कि रामभक्त हिंदुओं ने बचा लिया नहीं तो राहुल गांधी हम मुसलमानों को आरक्षण देता और अयोध्या में मंदिर की जगह फिर से मसजिद बनवा देता.

एक दिलचस्प जंग – 

राहुल बनाम मोदी

धीरेंद्र राघव जैसी भाषा भाजपा और नरेंद्र मोदी ने चुनावप्रचार के दौरान अपने ढंग से इस्तेमाल की थी. उन्होंने बस धीरेंद्र राघव जैसे मुसलिम युवकों की तरह गेटअप नहीं बदला था. लेकिन इस बेसिरपैर के प्रचार के ?ांसे में न तो हिंदू आए और न ही मुसलमान आए जिन्होंने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए वोट किया. नतीजतन भाजपा 240 पर अटक कर रह गई. चुनावप्रचार के दौरान ऐसे कई मौके आए जब नरेंद्र मोदी ने आपा खोया, कहीं जानबू?ा कर तो कहीं अनजाने में उलट. इस के, राहुल गांधी ने सब्र से काम लिया और मोदी सहित किसी भी नेता पर पर्सनल कमैंट्स नहीं किए.

भगवा खेमे में हलचल

मंगलसूत्र, मांस, मच्छी, मुजरा जैसे कई शब्दों का इस्तेमाल मोदी ने किया जिस से उन की बौखलाहट ही प्रदर्शित हुई. राहुल गांधी को मुसलमान बताने के लिए उन्होंने उन्हें बारबार ‘शहजादा’ कहा. यह शब्द मुगलकाल में वारिसों के लिए प्रयोग होता था जबकि 2014 के चुनावप्रचार में वे राहुल को युवराज कहते ताना मारते थे. पूरे चुनावप्रचार में राहुल ने कोई धार्मिक बात या काम नहीं किया जबकि मोदी पूरे चुनाव में धार्मिक विवाद खड़े करने की कोशिश करते रहे. उन का पूजापाठ तो जगजाहिर है ही जिस के चलते उन्हें यह गलतफहमी हो आई थी कि ऐसा करने से जनता महंगाई और बेरोजगारी सरीखे मुद्दों से भटक जाएगी.

पहले चरण के मतदान के बाद ही भगवा खेमे में हलचल मच गई थी कि लोग धर्म और मंदिर मुद्दे पर वोट नहीं कर रहे हैं. यह खेमा आगे की रणनीति तय कर पाता, इस के पहले ही राहुल गांधी ने संविधान की दुहाई देना शुरू कर दिया. असल खेल और चुनाव यहीं से शुरू हुआ जब बौखलाए नरेंद्र मोदी ने दलित, पिछड़ों को यह डर दिखाना शुरू कर दिया कि कांग्रेस उन का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे देगी. आरक्षण और संविधान के मसलों पर क्यों लोगों ने भाजपा और नरेंद्र मोदी के बजाय कांग्रेस और राहुल गांधी पर भरोसा किया, इन कारणों की सटीक और तथ्यात्मक तार्किक व्याख्या करती रिपोर्ट शीर्षक ‘संविधान की शक्ति गुलामी और भेदभाव से मुक्ति’ सरिता के ही पिछले यानी जून (प्रथम) 2024 के अंक में प्रकाशित हुई है.

राहुल गांधी ने तो सबक लेते धर्म की राजनीति से तोबा कर ली लेकिन नरेंद्र मोदी किस हद तक इस की गिरफ्त में आ गए थे, यह हर किसी ने चुनावप्रचार के दौरान देखा और 22 जनवरी, 2024 के अयोध्या इवैंट के बाद से तो यही देखतेदेखते लोग इतने ऊब गए थे कि वोट डालने ही नहीं गए. यह दरअसल भाजपा का कोर वोटबैंक था जो नरेंद्र मोदी से पूरी तरह नाउम्मीद हो गया था कि उन्हें अब तो रामकृष्ण और राहुल के अलावा भी कुछ बोलना चाहिए. लेकिन मोदी बोलते भी तो क्या बोलते क्योंकि उन्होंने 10 साल में विकास का या आम लोगों की जिंदगी को सुविधाजनक बनाने का कोई उल्लेखनीय काम किया ही नहीं. प्रचार जरूर हुआ.

धीरेधीरे राहुल गांधी नरेंद्र मोदी पर भारी पड़ने लगे जिस में उन की भारत जोड़ो और न्याय यात्राओं का भी खासा योगदान रहा जिन के जरिए वे अपने पूर्वजों की तरह आम लोगों के बेहद नजदीक आए. उन्होंने राह चलते लोगों और महिलाओं से सीधे संवाद किया. जवाहरलाल नेहरू की तरह बच्चों को गोद में उठाया और बिना किसी आलोचना की परवा किए सड़कों पर खूब मौजमस्ती भी की. 2 साल में राहुल ने आम भारतीय जिंदगी को नजदीक से सम?ा.

चुनावप्रचार में उन्होंने संविधान को सीने से लगा कर ताबड़तोड़ हमले भाजपा पर किए तो नरेंद्र मोदी इतने बौखला गए कि सलीके से शब्दों का चयन भी नहीं कर पाए, जिस के लिए वे जाने जाते थे. हद तो तब हो गई जब उन्होंने वाराणसी से नामांकन दाखिल करते वक्त एक न्यूज चैनल को दिए प्रायोजित इंटरव्यू में खुद को ‘नौन बायोलौजिकल’ बता डाला. इस से उन का प्रशंसक वर्ग और मायूस हो उठा. लेकिन इस तरह की ही बातों से राहुल गांधी लोगों की निगाह में चढ़ने लगे. ऐसा भी पहली बार हुआ कि राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी को जैसे चाहा, नचाया. क्रिकेट की भाषा में कहें तो अपनी पिच पर खेलने को मजबूर कर दिया. इस वक्त से ले कर अभी तक नरेंद्र मोदी की दयनीयता गौर करने के काबिल है जो अब अपने सहयोगी दलों के भी इशारे पर नाचने को मजबूर होंगे.

जिस वाराणसी से उन के 8-10 लाख वोटों से जीतने के दावे किए जा रहे थे वहां से बमुश्किल वे 1.52 लाख वोटों के अंतर से जीत पाए. शुरुआती गिनती में वे कांग्रेस के अजय राय के मुकाबले पिछड़ रहे थे तब टीवी देखते भक्तों और अभक्तों को अपनी आंखों और कानों पर ही यकीन नहीं हो रहा था. उलट इस के, राहुल गांधी दोनों सीटों से सम्मानजनक वोटों से जीते. रायबरेली में उन्होंने भाजपा उम्मीदवार दिनेश प्रताप सिंह पर 3.90 लाख वोटों से जीत दर्ज की तो वायनाड से रिकौर्ड 4.31 लाख मतों के अंतर से सीपीआई प्रत्याशी एनी राजा को शिकस्त दी. भाजपा के के. सुरेन्द्रन 1.41 लाख वोट हासिल कर तीसरे नंबर पर रहे.

इन शानदार जीतों से उस कांग्रेस की जोरदार वापसी 99 सीटों की शक्ल में हुई जिस के खारिज होने की भविष्यवाणी तमाम सर्वे और चर्चा में रहा राजस्थान का फौलादी सट्टा बाजार और बारबार खेमा पलटने वाले प्रशांत किशोर सरीखे स्वयंभू चुनावी रणनीतिकार कर चुके थे. 4 जून के पहले से ही लोगों के दिलोदिमाग में बैठा खौफ कम होने लगा था जो 4 जून की शाम होतेहोते खत्म भी हो गया. लगा ऐसा कि घुटन और उमसभरे कमरे की खिड़कियां किसी ने खोल दी हों जिस से ताजी हवा के ?ांके आने लगे हैं. कुछकुछ मोदीभक्तों ने भी दबी जबान से ही यही स्वीकारा कि अच्छा हुआ नहीं तो मोदीजी तानाशाह होते जा रहे थे जो देश के भविष्य के लिहाज से खतरे की बात थी. लोकतंत्र में विपक्ष का मजबूत होना जरूरी है जिस से सरकार मनमानी न कर सके.

आगे क्या हो सकता है?

अब आने वाला वक्त और दिलचस्प होगा क्योंकि आम लोगों को ही लग नहीं रहा कि बेमेल गठबंधन वाली सरकार ज्यादा दिनों तक चल पाएगी. अब तक संसद से ले कर सड़क तक होता वह था जो नरेंद्र मोदी चाहते थे. ईडी, सीबीआई और आईटी जैसी सरकारी एजेसियां जब चाहें कहीं भी छापा मार सकती थीं. किसी भी हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार कर सकती थीं.

अब यह सब नहीं होगा क्योंकि असली कमान नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे घाटघाट का पानी पी चुके खिलाडि़यों के हाथ में है जो कम से कम इस तरह की दुर्वासा ऋषिनुमा और श्राप देने वाली राजनीति तो नहीं करते कि जो लोग वोट न दें वे गद्दार और भी न जाने क्याक्या हैं. शुरुआती दिनों में एनडीए के सभी दलों ने एकदूसरे पर भरोसा जताया है. नरेंद्र मोदी को नेता चुना है लेकिन इस से यह साबित नहीं होता कि वे दूसरे भाजपाइयों जैसे मोदीभक्त हो गए. जब नीतिगत मुद्दे पटल पर आएंगे तब इन की टकराहट देखने काबिल होगी.

दायित्व तो किसी को देना होगा और इंडिया ब्लौक इसे लेने को तैयार नहीं था. एनडीए का जो भी हो लेकिन इंडिया गठबंधन का जोश वाकई हाई है. अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के तो उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के नायक बन कर उभरे हैं. बिहार में अपने राजनीतिक चाचा के छलकपट का शिकार रहे तेजस्वी यादव जरूर थोड़ा पीछे रहे हैं लेकिन संजीवनी आरजेडी को भी मिली है जिस के

4 सांसद जीते हैं. बिहार में कांग्रेस ने भी 3 सीटें जीतीं जो 2029 के लिहाज से उस की वापसी की राष्ट्रीय स्वीकृति ही है. सड़कों के बाद अब संसद में राहुल गांधी और नरेंद्र

मोदी आमनेसामने होंगे तो नजारे वाकई दिलचस्प होंगे. इस बार राहुल मजबूत हैं और मोदी कमजोर हैं, इस का फर्क तो पड़ेगा.

दक्षिण ने भी नकारा

इस बार दक्षिणी राज्यों से भाजपा को बहुत उम्मीदें थीं क्योंकि नरेंद्र मोदी ने वहां भी ताबड़तोड़ रैलियां और सभाएं की थीं जिन में भीड़ भी उमड़ी थी. दक्षिणी राज्यों के मंदिरों की चौखट पर भी नरेंद्र मोदी ने खूब माथा रगड़ा था और वहां भी इंडिया गठबंधन को यह कहते कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी कि ये लोग सनातन और रामविरोधी हैं यानी अधर्मी टाइप के हैं, इसलिए इन्होंने राम मंदिर का प्राणप्रतिष्ठा का आमंत्रण भी ठुकरा दिया था.

लेकिन उन की धार्मिक छवि और बेमतलब के रोनेगाने से दक्षिण भारत ने भी कोई इत्तफाक नहीं रखा. इन राज्यों में धर्म तो उत्तरभारत सरीखा ही चलता है लेकिन धर्म की राजनीति एक हद से ज्यादा परवान नहीं चढ़ती. इसे वहां के माहौल से भी सहज सम?ा जा सकता है कि ऊंचीनीची जातियों की महिलाएं धार्मिक यात्राओं के नाम पर मीलों कलश ढोते नहीं मिलेंगी. सड़क पर टैंट लगाए प्रवचन करते और कुछ हजार रुपए में मोक्ष दिलाने का कारोबार करते बाबा लोग नहीं मिलेंगे. नेता भी धार्मिक, शोबाजी ज्यादा नहीं करते.

इस का यह मतलब नहीं कि दक्षिण के लोग धार्मिक अंधविश्वासी या रूढि़वादी नहीं हैं, फर्क इतना है कि वहां धार्मिक नफरत उत्तरभारत के मुकाबले कम है और जहां तुलनात्मक दृष्टि से ज्यादा है वहां भाजपा को ज्यादा सीटें मिली हैं.

28 सीटों वाले कर्नाटक में भाजपा को 2019 के मुकाबले उत्तर प्रदेश की तर्ज पर कम नुकसान नहीं हुआ है जहां उस की सीटें 28 से घट कर 17 पर आ गईं. इन 8 सीटों का फायदा सीधेसीधे कांग्रेस को मिला जिस की पिछले चुनाव में एक सीट थी. इस बार 9 हो गईं. एनडीए के सहयोगी दल, जनता दल (एस) को इस बार भी 2 सीटें मिलीं. यानी हिंदुत्व यहां भी कमजोर पड़ रहा है और धर्म की राजनीति भी फीकी पड़ रही है.

तमिलनाडु में इस बार भी भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली. सभी 39 सीटें इंडिया गठबंधन के खाते में गईं जिन में से 22 सीटें डीएमके को और 9 कांग्रेस को मिलीं. अन्य छोटे दल 8 सीटों पर जीते. हैरत की बात एनडीए के सब से बड़े घटक दल एआईएडीएमके का खाता न खुलना भी रहा. जो पहले भारतीय जनता पार्टी का सहयोगी था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार यहां उदयनिधि स्टालिन के सनातन विरोधी बयान को मुद्दा बनाने की कोशिश करते रहे लेकिन वोटर्स ने उन की बात पर ध्यान नहीं किया. जाहिर है उसे हिंदू राष्ट्र और सनातन धर्म से कोई लेनादेना नहीं रहा.

धर्म और हिंदुत्व की जड़ें जमाने के लिए इस बार भाजपा ने एक 40 वर्षीय आईपीएस अधिकारी अन्नामलाई कुप्पुसामी को 3 साल पहले प्रदेश अध्यक्ष बनाते उन्हें हिंदुत्व के पोस्टर बौय के रूप में लौंच किया था. अन्नामलाई को भाजपा ने कोयंबटूर सीट से उतारा था जो डीएमके के उम्मीदवार राज कुमार से 1 लाख 18 हजार से भी ज्यादा वोटों से हारे. तमिलनाडु के अलावा पूरे देश में यह हवा फैलाई गई थी कि अन्नामलाई तमिलनाडु में हिंदुत्व की अलख जलाएंगे लेकिन नतीजा आया तो हर किसी को सम?ा आ गया कि तमिलनाडु में सनातन नहीं चलने वाला.

अन्नामलाई से सौगुना ज्यादा हल्ला भाजपा ने हैदराबाद लोकसभा सीट पर मचाया था जहां से कट्टर हिंदुत्व की इमेज वाली माधवी लता को उस ने एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी के मुकाबले टिकट दिया था. मीडिया ने माधवी लता को हाथोंहाथ लिया और इन की तुलना साध्वी उमा भारती और प्रज्ञा सिंह से की जाने लगी. हैदराबाद की गलियों में डेढ़ महीने जय श्रीराम टाइप के नारे गूंजे लेकिन 4 जून की शाम होतेहोते भाजपा का यह एटम बम भी फुस्स साबित हो गया. माधवी लता 3 लाख 38 हजार से भी ज्यादा वोटों से हारीं. तेलंगाना में इस बार भाजपा को 17 में से 8 सीटें मिलीं जो पिछली बार से 4 ज्यादा हैं. कांग्रेस को भी 8 सीटें मिलीं जो पिछले चुनाव के मुकाबले 5 ज्यादा हैं. केसीआर की बीआरएस की खाता भी नहीं खुला जिस का फायदा कांग्रेस और भाजपा दोनों को मिला.

केरल में भाजपा इस बार खाता खोल पाने में कामयाब हो गई, नहीं तो आजादी के बाद से वह यहां सफल नहीं हो पा रही थी. इंडिया गठबंधन का दबदबा यहां बरकरार रहा. कांग्रेस को 20 में से 14, मुसलिम लीग को 2 और सत्तारूढ़ पार्टी सीपीआई (एम) को एक सीट मिली. भाजपा की इकलौती सीट त्रिशूर से अभिनेता सुरेश गोपी के रूप में मिली जो हिंदुत्व की वजह से कम, अपनी फिल्मी इमेज की वजह से ज्यादा जीते.

25 लोकसभा सीटों वाले आंध्र प्रदेश में टीडीपी के एनडीए गठबंधन में होने का फायदा भाजपा को मिला. उसे 3 सीटों पर जीत मिली. टीडीपी को 16 और लोकप्रिय अभिनेता पवन कल्याण की जनसेना को 2 सीटें मिलीं. वायएसआर कांग्रेस को सत्ताविरोधी लहर भारी पड़ी. उसे केवल

4 सीटों से तसल्ली करनी पड़ी. विधानसभा में भी इंडिया गठबंधन का सूपड़ा एंटीइनकमबैंसी के चलते साफ हुआ. यहां भाजपा चंद्रबाबू नायडू के भरोसे थी जिन्होंने धर्म या मंदिर की बात भी नहीं की, उस का वोट भाजपा को मिला.

दक्षिणी राज्यों की 129 सीटों में से भाजपा को 29 और कांग्रेस को 40 सीटें मिलना बताता है कि यहां भी मोदी का धर्म का मैजिक नहीं चला और भाजपा को बस गठबंधन का ही फायदा मिला. उस का कोर वोट यहां है ही नहीं और जो थोड़ाबहुत है वह कर्नाटक में है जिस में इस बार कमी हुई है.

कहीं खुशी कहीं गम 

महाराष्ट्र में भी भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ जहां वह शिवसेना और एनसीपी को दोफाड़ कर खुश हो रही थी. 48 सीटों वाले इस राज्य में कांग्रेस को सब से ज्यादा 13 सीटें मिलीं. उस के सहयोगी शिवसेना उद्धव गुट को 9 और 7 सीटें शरद पवार वाली एनसीपी को मिलीं. एनडीए में भाजपा को 9, अजित पवार वाली एनसीपी को एक और एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना को 7 सीटें मिलीं. पिछले चुनाव के मुकाबले भाजपा को 13 सीटों का नुकसान हुआ.

बिहार में भाजपा को जनता दल यू के साथ का वही फायदा मिला जो आंध्र प्रदेश में टीडीपी का साथ लेने से मिला था. 40 में से 12-12 सीटें भाजपा और जदयू को और 5 सीटें चिराग पासवान वाली लोकजन शक्ति पार्टी को मिलीं. राजद को 4 और कांग्रेस को 3 सीटें मिलीं. भाजपा के लिए यह नुकसान इस लिहाज से भी है कि 2019 के चुनाव में उसे 17 सीटें मिली थीं. अगर जदयू साथ न देता तो यहां भी उसे उत्तर प्रदेश जैसा नुकसान होना तय था.

पंजाब में उम्मीद के मुताबिक भाजपा को कुछ नहीं मिला जबकि वहां आप और कांग्रेस अलगअलग लड़े थे. 14 में से कांग्रेस को 7, आप को 3, शिअद को एक और एक सीट निर्दलीय अमृतपाल सिंह को मिली जो खूडूर सीट से जीते. खालिस्तान समर्थक अमृतपाल राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत मार्च 2023 से असम की डिब्रूगढ़ जेल में बंद हैं. क्या यह पृथक खालिस्तान का समर्थन है, इस सवाल का एक जवाब यह भी निकलता है कि यह भाजपा के हिंदू राष्ट्र निर्माण का भी विरोध है. भाजपा अगर पंजाब में जीतती तो यह आग और भड़क सकती थी क्योंकि सनातनियों की निगाह में तो आंदोलन करते किसान भी खालिस्तानी थे. यह अनदेखी और अपमान सिख समुदाय के लोग हर कभी हर कहीं भुगतते हैं. गनीमत है कट्टर सिख चुनावों से अपनी बात सामने रख रहे हैं.

पश्चिम बंगाल में लाख कोशिशों और साजिशों के बाद भी भगवा कार्ड नहीं चला. वहां तो हिंदूमुसलमान उत्तर प्रदेश से भी ज्यादा और खतरनाक स्थिति में पहुंच गया था. ममता बनर्जी ने इस खतरे को सम?ाते अपने दम पर लड़ना ज्यादा बेहतर सम?ा जिस का फायदा भी उन्हें मिला. टीएमसी की 7 सीटें वहां बढ़ीं. उसे इस बार 42 में से 29 सीटें मिलीं. भाजपा की 6 सीटें कम हुईं. वह 18 से गिर कर 12 पर अटक गई. हिंदूमुसलिम वाले संदेशखाली मुद्दे पर भाजपा के दुष्प्रचार को वोटर्स ने नकार दिया. एक बार फिर पश्चिम बंगाल के लोगों ने साबित कर दिया कि वे अमनचैन से रहना चाहते हैं. भाजपा का धर्म, मंदिरवाद और हिंदूमुसलिम उन्हें रत्तीभर भी रास नहीं आया.

संविधान ही रास्ता

कमोबेश यही हालात ?ारखंड में रहे जहां भाजपा की 3 सीटें कम हुईं. कांग्रेस को 2 और ?ारखंड मुक्ति मोरचा को 3 सीटें मिलीं. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भाजपा जेल में बंद करने का जो अधिकतम फायदा उठा सकती थी वह उस ने उठाया. सोरेन परिवार की बहू सीता सोरेन, जो दुमका सीट से भाजपा के टिकट पर लड़ी थीं, को ?ामुमो के नलिन सोरेन के सामने हार का मुंह देखना पड़ा.

राजस्थान और हरियाणा में भी भाजपा जरूरत से ज्यादा दुर्गति की शिकार हुई. राजस्थान में उसे 25 में से 11 सीटें मिलीं जबकि पिछले चुनाव में उस ने क्लीन स्वीप यहां से किया था. जाट राजपूत तो भाजपा से खफा थे ही लेकिन आरक्षण को ले कर दलित, आदिवासी भी आशंकित थे कि मनुवादी भाजपा पर कम से कम इस मसले पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता. इस से 11 सीटों का फायदा राजस्थान में इंडिया गठबंधन को हुआ. हरियाणा में भी यही समीकरण ज्यादा प्रभावी साबित हुए. भाजपा यहां 10 में से 5 सीटें ही ले जा पाई, जबकि 2019 में उस ने सभी सीटें जीतीं थीं.

जिन राज्यों में भाजपा फायदे में रही उन में सब से ऊपर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और उस के बाद ओडिशा हैं. मध्य प्रदेश की सभी 29 सीटें उसे मिलीं. ऐसा नहीं है कि दलित, आदिवासी और पिछड़े वोटर यहां आरक्षण को ले कर भयभीत नहीं थे लेकिन कोई तीसरा दल न होने से भाजपा भारी पड़ी. उसे यहां सौफ्ट हिंदुत्व के चलते भी नुकसान नहीं हुआ. पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री मोहन यादव कम पूजापाठी नहीं लेकिन उन की दहशत उतनी और वैसी नहीं है जैसी योगी आदित्यनाथ की उत्तर प्रदेश में है. इस राज्य के कांग्रेसी भी धर्म के रंग में रंगे रहे हैं हमेशा. इसी पैटर्न पर उसे छत्तीसगढ़ की 11 में से 10 सीटें मिल गईं.

ओडिशा की 21 में से 20 सीटें जीत लेना वाकई हैरत की बात भाजपा के लिहाज से है. जबकि वहां धर्म और मंदिर की राजनीति का उपद्रव कम था. असल में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का 24 साल लंबा कार्यकाल, उन की गिरती सेहत और द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाए जाने का फायदा उम्मीद से ज्यादा भाजपा को मिला और वह बीजद को बेदखल करते विधानसभा पर भी काबिज हो गई. कांग्रेस यहां इस गलतफहमी में रह गई कि नवीन पटनायक तो हैं ही, इसलिए ज्यादा मेहनत करने से कोई फायदा नहीं.

दिल्ली के नतीजे भी कम हैरान करने वाले नहीं रहे जहां की सभी 7 सीटें भाजपा ने जीत लीं. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जेल में डालने का फायदा भाजपा को मिला और आप और कांग्रेस के वोटों का एक जगह न गिरना भी हार की वजह बना. दोनों दलों के कार्यकर्ताओं में तालमेल का अभाव और उदासीनता भी दिल्ली में साफसाफ देखी गई. ओवर कौन्फिडैंस भी इंडिया गठबंधन को ले डूबा वरना तो धर्म दिल्ली में बड़ा मुद्दा नहीं था.

अब भाजपा क्या करेगी, यह देखना कम दिलचस्प नहीं होगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित सभी छोटेबड़े भाजपाई नेताओं के चेहरे उतरे हुए हैं. तथाकथित जीत, जो हार से ज्यादा शर्मनाक हो कर साल रही है, के बाद भाजपाई पहले की तरह मंदिरों की तरफ नहीं टूटे न उन्होंने लड्डुओं का प्रसाद बांटा और न ही घंटे, घडि़याल, शंख बजाए, मथुराकाशी का नारा भी कोई अब नहीं लगा पा रहा.

एनडीए की 8 जून की मीटिंग में नरेंद्र मोदी ने संविधान की प्रति को माथे से लगाया. लेकिन इसे बदलाव सम?ाना या कहना ज्यादती होगी बल्कि इसे मौकापरस्ती कहना ज्यादा सटीक होगा क्योंकि अब सामने एक सशक्त विपक्ष है और पीछे नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे सैक्युलर नेता हैं जिन के लिए धर्म सैकंडरी है जो नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए बेहद प्राइमरी होता है. इसी को जनता ने नकारा है और लोकतांत्रिक सरकार होने के माने भी बता दिए हैं.

उम्मीद कर सकते हैं कि अब राज्यपालों की नियुक्ति में मनमानी नहीं चलेगी, सुप्रीम कोर्ट पर राममंदिर जैसा पर अतार्तिक फैसला करवाने का दबाव नहीं बनाया जा सकता, हाईकोर्टो में धर्मनिष्ठ जजों की भरती आसान नहीं रहेगी, इलैक्टोरल बौंड्स जैसी अपारदर्शी व्यवस्थाएं नहीं चलेंगी, देश का सारा पैसा अडानीअंबानी को सौंप देने के तरीकों पर लगाम कसी रहेगी और अहम बात, संसद भवन जैसी राष्ट्रीय धरोहरों के उद्घाटन समारोह हिंदू स्वामियों की देखरेख में भगवा नहीं होंगे जहां आदिवासी राष्ट्रपति तक को नहीं बुलाया गया. आरएसएस की इमारतों की भव्यता भी कम होने की उम्मीद है.

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