देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के कई हिस्से इन दिनों शराब के खिलाफ आंदोलन के चलते सुर्खियों में हैं. वहां के तकरीबन 3 दर्जन जिलों में शराब के ठेकों का विरोध जारी है.

विरोध की यह आवाज आधी आबादी यानी औरतों की है. जाहिर है, शराबखोरी से सब से ज्यादा पीडि़त भी वे ही होती हैं. घर के कमाऊ सदस्य जब दिनरात हाड़तोड़ मेहनत से हासिल कमाई शराब ठेकों के हवाले कर देते हैं, तो परिवार के पेट पालने की चुनौती औरतों को ही झेलनी पड़ती है. आबादी के बीच बने शराब के ठेकों ने औरतों और लड़कियों का राह चलना दूभर कर रखा है, सो अलग.

कानपुर में यह सब देख कर मैं भी बहुत दुखी हुआ. वजह, मेरे महल्ले में रहने वाले और मुझ से तकरीबन 15 साल छोटे ओमप्रकाश उर्फ बउवा की शराबखोरी. सुबह 6 बजे जब मैं दूध लेने निकला, तो देखा कि महल्ले में मौजूद शराब ठेके के बाहर वह नशे में धुत्त था. उस ने मुझ से 20 रुपए मांगे. मैं ने बिना संकोच किए पैसे दे दिए. दोपहर बाद वह मेरे घर आया और उस ने

50 रुपए मांगे. मैं ने मना किया, तो बोला, ‘‘बिना 2 क्वार्टर अंदर किए मुझे कुछ समझ नहीं आता.’’

बउवा घरों में पुताईपेंटिंग का काम करता था. वह अच्छा कारीगर और बहुत मेहनती था. वह रोजाना 5-7 सौ रुपए कमाता था. अकेली बीमार मां को बेसहारा छोड़ उस ने खुद को शराब के हवाले कर दिया. इस तरह गरीब परिवारों को तबाह कर रही है शराब.

उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ सालों में शराब ठेकों की तादाद बेहिसाब बढ़ी है. सवा किलोमीटर के दायरे में 3-4 शराब के ठेके आसानी से देखे जा सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा नैशनल हाईवे व स्टेट हाईवे पर बने शराब के ठेके 5 सौ मीटर दूर भेजने संबंधी आदेश के बाद भी राज्य सरकार ने उन्हें आबादी के बीच शिफ्ट कर दिया.

दुख की बात है कि सुप्रीम कोर्ट की इस जनहितकारी मंशा के खिलाफ दांवपेंच आजमाए जा रहे हैं, जो देशभर में सड़क हादसों में घायल लोगों की बढ़ती तादाद के मद्देनजर एक फैसले के रूप में सामने आई है.

शराब पी कर गाड़ी चलाने, अपनी और दूसरों की मौत की वजह बनने की सोच पर रोक लगाने के मकसद से नैशनलस्टेट हाईवे पर शराब के ठेके को हटाने का फैसला अमान्य बनाने की ऐसी ओछी कोशिश आखिर किस लिहाज से ठीक है   यह मजाक नहीं तो और क्या है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल करने के लिए उत्तर प्रदेश समेत देश के कई राज्यों ने अपने यहां के स्टेट हाईवे को शहरी रोड ऐलान करनेकराने की कोशिश शुरू कर दी है.

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और पंजाब इस दौड़ में फिलहाल आगे हैं. असम, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गोवा, झारखंड, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और हरियाणा भी कतार में हैं यानी इन राज्यों की सरकारें जनहित में हजारों करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान उठाने के मूड में नहीं हैं.

अफसोस यह कि एक साल पहले बिहार सरकार द्वारा लिया गया शराबबंदी का फैसला देश के लिए नजीर नहीं बन पाया. यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि काबिलेतारीफ है नीतीश कुमार का हौसला. यानी अगर सरकार चाहे तो कुछ भी मुमकिन नहीं है.

बिहार सरकार के मुखिया नीतीश कुमार ने 1 अप्रैल, 2016 से राज्य में पूरी तरह से शराबबंदी लागू कर दी. सरकार के तेवर देख शासनप्रशासन ने भी सख्ती अख्तियार कर ली. छापेमारी हुई, सामूहिक जुर्माना हुआ. हां, गोपालगंज हादसे ने ठेस जरूर पहुंचाई. लेकिन, वहां शराबबंदी किसी हद तक गरीबों की झोली में खुशियां डालने में कामयाब रही.

बकौल सुप्रीम कोर्ट, नेशनलस्टेट हाईवे पर शराब बेचे जाने के नुकसानदेह पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. जीवन के अधिकार और रोजगार के मौलिक अधिकार के बीच तालमेल बनाने पर जोर देते हुए अदालत ने कहा कि एक तरफ लोगों को शराब पी कर गाड़ी चलाने वालों से बचाने की जरूरत है, तो दूसरी तरफ शराब कारोबार के व्यापारिक हित हैं. लेकिन दूसरा हित पहले के बाद आएगा यानी पहले जीवन का अधिकार और उस के बाद रोजगार का अधिकार.

अदालत ने यह भी साफ किया कि उस ने यह आदेश दे कर न तो किसी नियम का उल्लंघन किया है और न ही कानून बनाने की कोशिश की है, बल्कि जनस्वास्थ्य और सुरक्षा के मद्देनजर ऐसा किया गया है.

दरअसल, शराबखोरी से कहीं बड़ी समस्या यह है कि हमारे देश में शराब के बनाने और उस की मार्केटिंग के लिए कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है. सबकुछ राज्यों के जिम्मे छोड़ दिया गया है. राज्यों में काबिज सरकारें अपने राजनीतिक नफानुकसान के मद्देनजर मनमाने फैसले लेती रही हैं.

आबकारी नीति को राज्य सरकारों का मसला बनाने का नतीजा यह है कि जिसे जो समझ में आ रहा है, वह उसे अंजाम दे रहा है. शराब कैसे बिके, कहां बिके, कितनी कीमत पर बिके, कब बिके और कब न बिके, इस बाबत हर राज्य में अलगअलग इंतजाम हैं.

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में लाख कमियों के बावजूद दोपहर 12 बजे से रात 10 बजे तक शराब बेचने और बंदी के दिन असल बंदी का सख्त प्रावधान है, जबकि उत्तर प्रदेश में न समय का प्रावधान है और न कीमत का. आलम यह कि आप 15 अगस्त, 26 जनवरी, होली और दीवाली के दिन भी बेहिचक खुलेआम शराब खरीद सकते हैं.

कोढ़ में खाज पैदा कर रहा है शराब के ठेकों में बैठ कर पीने का इंतजाम. ज्यादातर शराब ठेकों की अपनी कैंटीन हैं, जिसे दबंग किस्म के लोग चलाते हैं. ठेकेदार को 5-7 सौ रुपए रोजाना किराया देने वाले कैंटीन संचालक माल बेचने से ज्यादा पियक्कड़ों को लूटने का काम करते हैं.

पुलिस भी सबकुछ जान कर अनजान बनी रहती है, क्योंकि पीडि़त आखिर शराबी जो ठहरा. हर थानेदार व बीट इंचार्ज को पता है कि उस के इलाके में शराब ठेकों के हालात क्या हैं, लेकिन उसे सिर्फ महीने के फिक्स नजराने से मतलब है, जनता जाए भाड़ में.

जहरीली और नकली शराब के लिए भी उत्तर प्रदेश खासा बदनाम रहा है. साल 2015 के मार्च महीने में राजधानी लखनऊ के मलिहाबाद इलाके में

50, फिर एटा जिले के अलीगंज कसबे में 39 और उस के बाद फर्रुखाबाद के मेरापुर थाने के तहत आने वाले गांव देवरा मेहसोना में 10 लोग जहरीली शराब पीने से मर गए. इस से पहले उन्नाव में जहरीली शराब पीने से तकरीबन 3 दर्जन लोग मौत के मुंह में समा गए थे.

एक तरफ आबकारी महकमा है, वहीं दूसरी तरफ मद्य निषेघ महकमा. दोनों के पास लंबाचौड़ा अमला है, मोटीमोटी तनख्वाहें हैं, सुविधा शुल्क तो बहती हुई गंगा है. लेकिन, बाहर कौन से नियम टूट रहे हैं, इस से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं है.

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