मुंशी प्रेमचंद को यूं ही पिछली सदी का महान साहित्यकार नहीं कहा जाता, वास्तव में उनकी दूरदृष्टि ने समाज की आनेवाली समस्याओं को पहले से ही देख लिया था और उनकी कलम ने कोशिश भी की कि समाज को एक सही दिशा दे सके. इस सिलसिले में उनकी कहानी ‘बूढ़ी काकी’ याद आती है जो 1918 में उर्दू की पत्रिका ‘तहज़ीब ए निसवां’ में छपी थी और बाद में 1921 में हिन्दी में ‘श्री शारदा’ में. सौ साल पहले लिखी इस कहानी की धुरी काकी के इर्द-गिर्द घूमती है जिसके जवान बेटा और पति संसार को अलविदा कह चुके हैं.

काकी की जायदाद से आमदनी काफी थी पर बुढ़ापे में सहारा पाने की आस और अपनों का प्यार पाने की इच्छा से भतीजे बुद्धिराम के नाम कर दी. जायदाद लिखाते समय भतीजे के किए ढेर सारे वादे समय पाकर हवा हो गए और आज काकी भरपेट खाने को भी मोहताज है. बुद्धिराम के बेटे के तिलक के अवसर पर पूरा गांव पेटभर खा रहा है लेकिन काकी…उसे पूछने की किसी ने जरूरत ही नहीं समझी. बुढ़ापे में जीभ की स्वादेंद्रियां कुछ अधिक ही जागरुक हो जाती हैं और बस इसी से बेबस काकी जूठे पत्तल चाटने पहुंच जाती है.

‘लाडली जूठे पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खा रही है. रूपा का ह्रदय सन्न से रह गया. किसी गाय की गरदन पर छुरी चलते देखकर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई. एक ब्राह्मणी दूसरों की झूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असंभव था. पूड़ियों के कुछ ग्रास के लिए उसकी चचेरी सास ऐसा निकृष्ट कर्म कर रही है. यह वह दृश्य है दिसे देखकर देखनेवालों के ह्रदय कांप उठते हैं. ऐसा प्रतीत होता मानो जमीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा है. संसार पर कोई आपत्ति आनेवाली है.’

दो-ढाई सौ सालाना आमदनी वाली जायदाद की मालकिन जूठे पत्तल चाटने को विवश हो गई, पढ़कर पाठक भी हिल जाता है. ये कहानी आज भी उतनी सटीक है जितनी तब थी. ज़मीन-ज़ायदाद अपने नाम कराने के बाद बच्चे मां-बाप के साथ जो व्यवहार करते हैं, किसी से छुपा नहीं है. यहां तक कि हारकर सरकार को माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के ध्यान रखने और उन्हें उनका हक दिलाने के लिए 2007 में अधिनियम लाना पड़ा. प्रेमचंद ने इस समस्या को आज से सौ साल पहले ही समझ लिया था संभवत: इसीलिए उन्होंने बूढ़ी काकी, पंचायत और ईदगाह जैसी कहानियां लिखीं.

कई स्कूलों में नैतिक शिक्षा सिखाने के लिए ‘ग्रेंड पेरैंट्स डे’ मनाया जाता है. पर शायद पहले ‘ग्रेंड पेरैंट्स डे’ का विचार मुंशी प्रेमचंद को ही आया होगा और उन्होंने ‘ईदगाह’ लिखी होगी जो 1938 में ‘चांद’ में प्रकाशित हुई थी. हामिद का अपनी दादी के प्रति निश्छल प्रेम भला कौन दादा-नाना या दादी-नानी नहीं चाहेगी? पूरे मेले में हामिद को अपने कीमती तीन पैसे खर्च करने के लिए सिर्फ लोहे का चिमटा ही दिखा? जहां बच्चे जलेबी, झूले, मिठाईयों पर लपके जा रहे थे वहां हामिद को रोज़ खाना पकाते समय अमीना के जलनेवाले हाथों की फिक्र थी.

जब अमीना कहती है -‘यह चिमटा कहां था?’

हामिद-‘मैंने मोल लिया है.’

अमीना-‘कै मैसे में?’

हामिद-‘तीन पैसे में.’

अमीना छाती पीट लेती है.यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया. लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?’

हामिद ने अपराधी-भाव से कहा-‘तुम्हारी उंगलियां तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने इसे लिया.’ और इस एक पंक्ति के ज़रिए प्रेमचंद ने अमीना के साथ-साथ अपने पाठकों को भी रुला दिया.

युवा पीढ़ी की स्वार्थपरता खुलकर सामने आने के बाद आज की बाल पीढ़ी में इन नैतिक मूल्यों को डालने की पूरी कोशिश की जा रही है पर क्या कहानी लिखते समय कहानीकार जानता था कि समाज के रिश्तों की गिरती ईंट संभालने के लिए बच्चों को ही आगे आना होगा. आज भी घरों में नाती-पोते बुज़ुर्गों का जितना खयाल रखते हैं उतना उनके अपने बच्चे भी नहीं रखते और अमीना और हामिद का रिश्ता आज के खोखले रिश्तों की कड़ियों को जोड़ने की एक आस है.

प्रेमचंद की कहानियां के किरदार समाज से लिए गए थे फिर चाहे होरी को लें या धनिया को या फिर दहेज के कारण बेमेल विवाह की शिकार निर्मला हो. इनकी एक अन्य कहानी ‘पंच परमेश्वर’ में भी आज के दो ज्वलंत मुद्दे उठाए गए हैं. एक वही बुज़ुर्गों की संपत्ति पर बच्चों की नज़र, हालांकि तब समस्या भतीजों की थी, और पशुओं के साथ निर्दयता से व्यवहार. आज भी देखें तो पेटा जैसी संस्थाएं इन मूक प्राणियों को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं और तब भी अलगू बैल के साथ निर्दयता से व्यवहार करने के लिए साहू को दंड दिलाना चाहता था. कहानी की मूल संवेदना पंच परमेशवर का फैसला है जो दोस्ती और दुश्मनी दोनों से ऊपर है, निष्पक्ष है.

‘पंचों ने दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करने शुरू किये. बहुत देर तक दोनों दल अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते रहे. इस विषय में तो सब सहमत थे कि समझू को बैल का मूल्य देना चाहिए. परंतु दो महाशय इस कारण रियायत करना चाहते थे कि बैल के मर जाने से समझू को हानि हुई. इसके प्रतिकूल दो सभ्य मूल के अतिरिक्त समझू को दंड भी देना चाहते थे, जिससे फिर किसी को पशुओं के साथ ऐसी निर्दयता करने का साहस न हो. अंत में जुम्मन ने फैसला सुनाया-अलगू चौधरी और समझू साहु ! पंचों ने तुम्हारे मामले पर अच्छी तरह विचार किया. समझू को उचित है कि बैल का पूरा दाम दें. जिस वक्त उन्होंने बैल लिया, उसे कोई बीमारी न थी. अगर उसी समय दाम दे दिये जाते, तो आज समझू उसे फेर लेने का आग्रह न करते. बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम लिया गया और उसके दाने-चारे का कोई अच्छा प्रबंध न किया गया.’

साहित्य समाज का दर्पण होता है और साहित्यकार उसे दिखानेवाला. जो समस्याएं आज से सौ साल पहले बीज रूप में थीं आज और विकराल हो गईं हैं पर किसी के पास उन पर विचार करने का समय नहीं है. प्रेमचंद का मानना था कि ऐसा साहित्य किसी काम का नहीं जो समाज को सही दिशा न दिखा सके , हममें सुरुचि न जगाए , गति और शक्ति न उत्पन्न करे और कठिनाईयों में विजय प्राप्त करने की दृढ़ता न दे. न ही ऐसी शिक्षा हो जो हमें धरती और धन का गुलाम बनाए. उनका मानना था कि हमारे जीवन में सेवा, नम्रता, बड़ों का सम्मान और सरलता जैसे मूल्य सदैव रहने चाहिए.

प्रेमचंद सही मायने में कालजयी साहित्य के रचनाकार थे, यही कारण है कि उनका साहित्य कल भी प्रासंगिक था और आज भी है.

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