अनुराग निगम की उम्र महज 38 साल है. नोएडा स्थित एक मल्टीनेशनल कंपनी के कार्यालय में वह पिछले 10 वर्षों से कार्यरत था. घर में पत्नी और एक बेटी है. अनुराग को शराब पीने की लत जौब में आने के बाद लगी. कंपनी की तरफ से आयोजित फंक्शन या पार्टियों में वह अकसर जरूरत से ज्यादा शराब पीता था. फ्री की शराब छोड़ता भी कौन है? कभीकभी तो वह इतनी पी लेता कि उस को उस के घर तक छोड़ने के लिए किसी को उस के साथ जाना पड़ता.
अत्यधिक शराब पीने का नतीजा यह हुआ कि अनुराग को लिवर सिरोसिस नामक बीमारी हो गई. इस की वजह से अकसर उस के शरीर में पानी भर जाता जिस को निकलवाने के लिए उस को अस्पताल में भरती होना पड़ता था. फिर भी उस से शराब नहीं छूटी. पत्नी से छिपचिप कर वह रोज पीने लगा था. उस के मातापिता और 2 बड़ी बहनें जो पटना में रहती हैं, उस को फोन पर समझातीं कि शराब छोड़ दो. मगर अनुराग की यह लत नहीं छूटी. आखिरकार अनुराग का लिवर पूरी तरह डैमेज हो गया और डाक्टर ने लिवर ट्रांसप्लांट करवाने को कह दिया.
लिवर ट्रांसप्लांट के लिए अनुराग को किसी ऐसे व्यक्ति के लिवर का कुछ हिस्सा चाहिए था जो उस से मैच करे. ब्लड ग्रुप भी मैच करना जरूरी था. अनुराग की पत्नी ने उस को लिवर देने के लिए अपना टैस्ट करवाया मगर वह मैच नहीं हुआ. उस ने यह बात अपनी ससुराल में बताई. पटना में अनुराग का परिवार काफी बड़ा है. उस के मांबाप के अलावा 2 बहनें, 2 भाई, 2 जीजा, 2 भाभियां व उन के 5 जवान बेटे हैं मगर लिवर दान करने के नाम पर सभी पीछे हट गए. समय बीतता जा रहा था. जब अनुराग की हालत काफी खराब हो गई तब उस की बड़ी बहन उस को अपना लिवर देने को तैयार हुईं. इस के लिए वे पटना से दिल्ली आईं जहां एक हौस्पिटल में अनुराग का इलाज चल रहा था. उन का टैस्ट हुआ तो डाक्टर ने पाया कि उन का लिवर भाई को लग सकता था. औपरेशन सक्सैसफुल रहा. अनुराग ने अपनी बहन द्वारा दान किए गए लिवर की बदौलत नया जीवन पाया.
बिहार के राजनेता व राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव के 9 बच्चे हैं. 7 बेटियां और 2 बेटे. 75 वर्षीय लालू यादव की किडनी खराब हुई और बात जब जान पर बन आई तब उन की बेटी रोहिणी आचार्य ने अपनी एक किडनी दे कर उन को नया जीवन दिया. सिंगापुर के एक अस्पताल में उन का ट्रीटमैंट चला. आज लालू यादव काफी स्वस्थ हैं.
आमतौर पर देखा जाता है कि जब परिवार में किसी को मानव अंग या खून की जरूरत पड़ती है तब घरपरिवार की औरतें ही सामने आती हैं और अंगदान कर के अपने परिजन की जान बचाती हैं. इस मामले में पुरुष पीछे ही रहते हैं. महिलाएं तो अंगदान कर के पुरुषों का जीवन बचा लेती हैं लेकिन जब उन को जरूरत होती है तो परिवार के पुरुष उन से किनारा कर लेते हैं. अस्पतालों में अनेक गंभीर बीमारियों से जूझ रही महिलाएं अंगदान के इंतजार में आएदिन मर रही हैं.
भारत में अंगदान को ले कर पहले ही से जागरूकता और इच्छाशक्ति की बहुत कमी है. किडनी लिवर की गंभीर बीमारियों से जूझ रहे मरीज सालों किसी डोनर का इंतजार करते हैं. अगर समय अच्छा हुआ तो कोई डोनर मिल जाता है अन्यथा वे अपनी बीमारी के साथ मौत के मुंह में समा जाते हैं. ऐसे में अगर मरीज कोई महिला हो तो परिजन भी अंगदान के लिए आगे नहीं आते हैं. अस्पतालों में ऐसे भी केस देखे जा रहे हैं. औरत में किडनी या लिवर की गंभीर बीमारी होने पर परिजन उस का इलाज ही बंद कर देते हैं और उस को मौत की तरफ जाने देते हैं.
उत्तर प्रदेश के राज्य अंग एवं ऊतक प्रत्यारोपण संगठन (एसओटीटीओ) की एक सर्वे रिपोर्ट कहती है कि पुरुष मरीजों को लिवर और किडनी दान करने वाली 87 फीसदी महिलाएं होती हैं. इन में करीब 50 फीसदी मामलों में पत्नी ही अंगदान करती है. पत्नी के न होने पर 38 फीसदी केस में मां अपना अंगदान करती है. इस के अलावा परिवार के अन्य सदस्य, जैसे बहनें या भाई आगे आते हैं. वहीं जब कोई स्त्री लिवर या किडनी रोग से प्रभावित हो और उस को अंगदान की आवश्यकता हो तो केवल 13 फीसदी परिवार के पुरुष ही आगे आते हैं.
महिला मरीजों को दान में अंग दिलाना आज चिकित्सा जगत की सब से बड़ी चुनौती है. इस के पीछे मूल कारण धर्म और सामाजिक सोच है. महिलाओं के बारे में पुरुष की सोच आज भी ज्यों की त्यों है. वह आज भी उसे अपने पैर की जूती ही समझता है, जो यदि खराब हो जाए तो वह आसानी से उसे उतार फेंके या बदल दे.
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि परिवार के किसी पुरुष को अंग की जरूरत पड़ती है तो पत्नी, मां या बहन तत्काल आगे आ जाती हैं, लेकिन किसी महिला को अंग की जरूरत पड़ती है तो कोई पुरुष अंगदान करना भी चाहे तो परिवार के अन्य सदस्य उन्हें प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित करते हैं.
लखनऊ के किंग जौर्ज मैडिकल यूनिवर्सिटी में 34 मरीजों का लिवर ट्रांसप्लांट हुआ. इन में 32 पुरुष और 2 महिलाएं थीं. एक महिला को उस के बेटे ने अपना लिवर दान किया जबकि दूसरी महिला को एक ब्रेन डेड व्यक्ति का लिवर लगाया गया. जबकि पुरुष मरीजों को लिवर दान करने वाली ज्यादातर उन के घरों की महिलाएं थीं.
अंगदान के प्रति जागरूकता और महिलाओं की जिंदगी को समाज में ज्यादा तवज्जुह न देने के कारण अंगदान के लिए लोग तैयार नहीं होते हैं. जबकि लिवर ट्रांसप्लांट में दानदाता के लिवर से डाक्टर सिर्फ एक छोटा सा लोब यानी लिवर का छोटा सा हिस्सा लेते हैं और मरीज में प्रत्यारोपित कर देते हैं. दोनों के शरीर में ही लिवर कुछ दिनों में ही बढ़ कर तैयार हो जाता है. फिर भी महिलाओं को अंगदान करने से पुरुष बचते हैं. किसी महिला के लिए अंगदान करना हो तो परिजनों की बहुत काउंसलिंग करनी पड़ती है.
डाक्टर का बहुत समय बरबाद होता है यह समझाने में कि लिवर का छोटा सा टुकड़ा निकालने या एक किडनी ले लेने से दानदाता की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तब जा कर कोई इक्कादुक्का पुरुष महिला मरीज को अपना लिवर या किडनी देने को तैयार होते हैं. जबकि किसी महिला के सामने यदि उस के घर के पुरुष की जान खतरे में है तो वह अपनी जिंदगी की परवा किए बगैर उस को अपने अंग देने के लिए तुरंत तैयार हो जाती है. अंगदान करने में महिलाओं की भागीदारी 87 फीसदी होना और पुरुषों की महज 13 फीसदी होना समाज की मानसिकता को दर्शाता है. किसी महिला को किडनी, लिवर जैसी गंभीर बीमारी का पता चलते ही परिवार का उस से मुंह मोड़ लेना, उस का इलाज बंद करने की कोशिश करना या महिला मरीजों को अंगदान से परहेज करना चिकित्सा जगत के सामने एक गंभीर सामाजिक चुनौती है.