लेखिका- प्रेक्षा सक्सेना
रुचि बहुत ही जुझारू महिला है उसके पति कुछ वर्षों पूर्व एक दुर्घटना में लकवाग्रस्त हो गए थे ऐसे में वो घर बाहर सब संभाल रही थी और अपने इकलौते बेटे को पढ़ा भी रही थी अभी अभी उसका मेडिकल में चयन भी हो गया था ऐसे में ये सोच का विषय था कि आखिर रुचि परेशान क्यों है?उसकी दुविधा ये थी कि उसके पिता की मृत्यु 2004 में ही हो गई थी उसके इकलौते भाई की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी ऐसे में उसके मायके में जो संयुक्त पैतृक ज़मीन थी उसका बँटवारा अभी तक नहीं हुआ था किंतु अभी किसी कारण से उस ज़मीन को बेचा जा रहा था रुचि का सोचना था कि अगर उसमें से कुछ पैसा उसे मिल जाये तो उसके बेटे की मेडिकल की पढ़ाई के लिए उसे कोई लोन नहीं लेना पड़ेगा .सबने उसे समझाया कि तुम अपनी माँ से बात करो तो रूचि का कहना था कि 2005 में कानून बना तो है पर पापा तो 2004 में ही नही रहे ऐसे में उसे उसका हिस्सा मिल पायेगा क्या? तब उसने अपनी एक सहेली जो कि लीडिंग एडव्होकेट है से बात की जिसने रुचि को बताया कि 1956 में जो कानून था उसके अनुसार यदि किसी हिन्दू संयुक्त परिवार का मुखिया वसीयत छोड़े बिना ही मर जाता है और उसके परिवार में बेटे और बेटियां हैं.
उसकी सम्पत्ति में एक मकान भी है, जिस पर किसी भी वारिस का पूरी तरह से कब्जा नहीं है. एेसे में बेटियों को हिस्सा तभी मिलेगा, जब बेटे अपना-अपना हिस्सा चुन लेंगे. हालांकि अगर बेटी अविवाहित, विधवा या पति द्वारा छोड़ दी गई है तो कोई भी उससे घर में रहने का अधिकार नहीं छीन सकता. वहीं विवाहित महिला को इस प्रावधान का अधिकार नहीं मिलता परंतु अब उसे जरूर अपना हिस्सा ज़रूर माँगना चाहिए क्योंकि अभी कुछ ही दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराधिकार कानून में 2005 में किये गए संशोधन पर फैसला देते हुए कहा है कि हिन्दू अविभाजित परिवार में पैतृक संपत्ति पर बेटे की तरह बेटियों का भी समान अधिकार होगा भले ही 2005 में हुए इस संशोधन से पूर्व उसके पिता की मृत्यु क्यों न हुई हो.ये पता लगने के बाद रुचि ने सोचा कि ठीक है तब मैं बात करूँगी .
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पर माँ से बात करने पर उसकी माँ ने उल्टा उसे खूब समझाया कि लोग तरह तरह की बातें करेंगे और फिर एक ही तो भाई है तेरा पैसे के चक्कर में रिश्ते खो देगी इसलिए ये बात तुझे सोचना ही नहीं था .ज़ाहिर है कि रुचि ने रिश्तों के बारे में सोचा और अपने हक़ माँगने का विचार त्याग दिया .ये केवल रुचि की नहीं कई महिलाओं की कहानी है ये सब सुनकर हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि अगर हम इस तरह की सामाजिकता में जकड़े हैं तो कौनसा कानून औरत को हक़ दिला सकता है .सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए कहा कि वन्स ए डॉटर ऑलवेज़ ए डॉटर ,सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्वागत योग्य है पर ये भी उन्हीं सारे कानूनों की तरह है जो महिलाओं के हित में बना तो दिए गए पर उनकी सामाजिक स्वीकार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है.जब बेटियों और बेटों को पिता से सामान जीवन मूल्य और समान संस्कार धरोहर के रूप में मिलते हैं ,पिता के स्नेह के दोनों समान अधिकारी हैं तो फिर संपत्ति में बेटियों का हिस्सा बराबर क्यों नहीं ये एक सामाजिक प्रश्न है जिसका उत्तर कानून बनाने से शायद मिलना संभव नहीं है.हमारे देश मे समाज की एक बड़ी भूमिका है जब तक किसी बात की स्वीकार्यता सामाज में नहीं है.
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तब तक उसका लागू हो पाना मुश्किल ही होता है वो बस आदेशों में ही बँधी रह जाती है.हमारे समाज की संरचना कुछ इस प्रकार की है कि हर बात को तुरंत ही स्त्री की प्रतिष्ठा से जोड़ लिया जाता है और इसलिए वो अपने हित मे बने कानूनों का लाभ नहीं ले पाती है.कई बार महिला बड़ी ही मुश्किलों से अपना जीवन यापन कर रही होती है पति की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने पर या उसके न रहने पर और वहीं उसके मायके में बहुत सी सम्पत्ति होती है और भाई की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होते हुए भी वो बहन को उसमें से कुछ भी देता नहीं है ऐसे में यदि वो अपना अधिकार माँगती भी है तो उसे रिश्तों और संपत्ति में से किसी एक को चुनने को कहा जाता है और वो इसी द्वंद में झूलती रह जाती है और अपने अधिकार से वंचित हो जाती है.यदि बेटी और बेटे दोनों की आर्थिक स्थिति समान होती है और पैतृक संपत्ति बहुत होती है ऐसे में यदि कोई महिला चाहे कि वो भी अपना अधिकार माँगे तो उसे लालची कहा जाने लगता है अपने ऊपर इस तरह का ठप्पा लगने से बचने के लिए वो अपना हिस्सा नहीं माँगती .बेटी को बेटे के समान अधिकार दिलाने के लिए हमारे सामाजिक ढाँचे में बदलाव ज़रूरी है.सोच को किस तरह बदला जाए ये विचार का विषय है .आज इस कानून के बनने के बाद एक नई समस्या का सामना भी करना पड़ सकता है महिलाओं को क्योंकि आज भी महिलाओं का एक बड़ा तबका आत्मनिर्भर नही है ऐसे में वो अपने पति की बात मानने को बाध्य हैं चाहे वो गलत कहे तब भी ऐसे में उस पर दबाव बनाया जा सकता है कि अपना हिस्सा मायके से लो .इस तरह कुल मिला के इस कानून का फायदा तभी है जब समाज इसको स्वीकार करे .बेटियों को पहले सम्पत्ति में हिस्सा
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इसलिए नही दिया जाता था कि भाई समय समय पर उनकी मदद करता रहे उनका आदर सत्कार और मांन सम्मान करता रहे परन्तु समय के साथ जीवन मूल्य बदले हैं अब पहले की तरह की स्थितियाँ नहीं रही हैं ऐसे में बेटियों का अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहना ही सही है.फिर माता पिता तो बेटा हो या बेटी दोनों के ही हैं ऐसे में उसका भी समान हक़ है ही . जहाँ हमारे समाज में ये मानसिकता है कि माता पिता को मुक्ति बेटा ही दिलाएगा ऐसे में बेटे को ही माता पिता से सब पाने का अधिकार है.
फिर माता पिता की ये सोच होती है कि कल हम नहीं रहेंगे तो भाई का घर ही बेटी का मायका होगा और भाई उसको समय समय पर कुछ न कुछ देता ही रहेगा इसलिए उसे सब मिलना चाहिए इस मानसिकता के चलते अपने जीवित रहते माता पिता इस विषय में विचार ही नहीं कर पाते और उनके बाद उसे उपहार देने में भी बस खानापूर्ति ही की जाती है और वो अपने को ठगा सा महसूस करती है पर रिश्ते बनाये रखने के लिए वो कुछ कह नहीं पाती है इसलिए इस विषय मे समाज की मानसिकता में भी बदलाव लाने का वक़्त आ गया है. बेटियाँ अगर अधिकार माँग भी लेती है तो एक अनजाने अपराधबोध से ग्रसित रहती है क्योंकि कानून चाहे जो हो पर सदियों से जो मानसिकता रही है उसको बदलना मुश्किल ही होता है.
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अब जब कि बेटियाँ बेटों के साथ हर क्षेत्र में समान रूप से खड़ी हैं यहाँ तक कि सदियों से चली आ रही परंपराओं को तोड़ते हुए बेटियाँ माता पिता की अंत्येष्टि कर्म तक कर रही हैं ऐसे में ये घिसी पिटी सोच भी बदलना चाहिए .यहाँ एक बात और गौर करने लायक है कि जिस तरह संपत्ति में अधिकार में दोनों समान हैं वैसे ही माता पिता के प्रति दायित्वों का निर्वहन भी दोनों को समान रूप से करना चाहिए .गौरतलब है कि अभी कुछ दिन पूर्व ही किसी केस में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बेटे की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने पर तीनों बेटियों को भी माता पिता के भरण पोषण के लिए आर्थिक सहायता देने का आदेश दिया था . सिक्के के दोनों पहलुओं पर विचार आवश्यक है परंतु जब ये कानून बन गया है तो आवश्यकता होने पर अपना अधिकार माँगने में बेटियों को अपना सँकोच छोड़ना चाहिए.