तुम्हारे मान लेने से

पत्थर भगवान हो जाता है।

तुम्हारा भगवान पत्थर की गाय है

जिससे तुम खेल तो सकते हो ,

लेकिन दूध नहीं पा सकते ।

रमाशंकर यादव विद्रोही

विद्रोही जी की उक्त कविता इस कोरोना काल में सच साबित हो रहा है. जब लोगों के ऊपर किसी तरह का संकट और विपदा आता है तो लोग अपने इष्टदेवता मंदिर और मस्जिद का सहारा लेते हैं. लेकिन इस कोरोना के कहर में मंदिर,मस्जिद ,चर्च और गिरजाघर कुछ भी काम नहीं आया.यहाँ तक कि मंदिर में पड़े मूर्ति को भी लोगों ने मास्क तक पहनाया.उल्टी धारा बहने लगी.वे हमारे सुरक्षा के लिए थे.लेकिन उनकी सुरक्षा खुद हमें करनी पड़ रही है. दुनिया भर में सभी धर्मस्थलोन को बंद करना पड़ा.मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा हो या चर्च.काबा हो काशी का मंदिर सभी बन्द पड़े हैं.

लोगों को आज तक मूर्ख बनाने वाले पंडा पुरोहित मंदिर के पुजारी चर्च के पादरी और मौलाना भी वैज्ञानिकों की बाट जोहने लगे कि कोरोना का टीका वे लोग ही निकाल सकते हैं. उसका एकमात्र निदान भी यही है. धर्मगुरुओं की बोलती बंद है.धर्म ने कोरोना वायरस से भयभीत लोगों को असहाय छोड़ दिया है.

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कई तरह की बीमारियों से लोग सदियों से ग्रसित रहे हैं.ईलाज के साथ साथ लोग मंदिर मस्जिद चर्च गिरजा घर में पूजा पाठ दुआ प्रार्थना करते रहे रहे हैं. लेकिन इस कोरोना बीमारी ने तो ऐसा कहर बरपाया की सारे धार्मिक स्थल ही बन्द कर दिए गए.खुद इन भगवानों को बचाने के लिए मनुष्य आगे आकर इन मूर्तियों तक को मास्क लगा रहे हैं.

मशहूर लेखिका तस्लीमा नसरीन ने द प्रिंट में लिखा है कि मक्का में सबकुछ ठप है जहाँ इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मो पैगम्बर साहब का मजार है.यहाँ दुनिया भर से इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग जाते हैं.यहाँ पर भी लोगों को आने पर पाबन्दी लगा दी गयी है. कुवैत में विशेष अजानों में लोगों से घर पर ही इबादत करने का आग्रह किया जा रहा है. मौलवी लोग वायरस से बचने के लिए मस्जिदों में जाकर अल्लाह से दुआ करने का दावा नहीं कर रहे हैं. धर्म के ठेकेदारों को अच्छी तरह मालूम है कि अल्लाह हमें कोरोना वायरस से बचाने नहीं आयेंगे. अगर कोई बचा सकता है तो वे हैं वैज्ञानिक जो टीके बनाने में उपचार ढूंढने में ब्यस्त हैं. धर्म पर भरोसा करने वाले बेवकूफों को इस घटना के बाद जरूर गंभीरता से विचार करना चाहिए.उन्हें सबसे अधिक सवाल पूछने चाहिए.उन्हें आज यह बात नहीं कचोटती है कि जिन धार्मिक संस्थाओं को बीमारी के मद्देनजर उनकी सहायता के लिए आगे आना चाहिए था,वे अपने दरवाजे बंद कर चुके हैं ?क्या धार्मिक संस्थाओं का असली मकसद आमलोगों की मदद करना नहीं है. बहुतों के लिए भगवान संरक्षक के समान हैं और सलामती के लिए वे सालों भर पूजा करते हैं. लेकिन जब मानवता संकट में होती है तो आमतौर पर सबसे पहले मैदान छोड़ने वाले भगवान ही होते हैं.

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कैथोलिकों के पवित्र स्थल वैटिकन में भी कोरोनावयरस पाया जा चुका है. माना जाता है कि पोप गॉड से संवाद कर सकते हैं. इस समय तो उन्हें बात करनी चाहिए थी.वायरस का प्रकोप लगातार बढ़ने से वैटिकन की स्थिति खराब है और पोप जनता के सामने उपस्थित होने से बच रहे हैं.

वैटिकन में अनेक ईसाई धार्मिक त्योहार मनाये जाते हैं. होली वीक,गुडफ्राइडे और ईस्टर समेत सारे भावी कार्यक्रम और धार्मिक सभाओं पर रोक लगा दी गयी है.

हिन्दू मंदिरों के पुजारी मुँह पर मास्क डाले घूम रहे हैं. इतना ही नहीं कुछ मंदिरों में तो देवी देवताओं के चेहरे पर भी मास्क लगा दिए गए हैं.

धर्म और अंधविस्वास आमतौर पर एक दूसरे के पूरक होते हैं. तारापीठ बन्द है.वहाँ फूल आशीर्वाद और चरणामृत लेने वाले लोगों की भीड़ नहीं है. तिरुपति और शिरडी साईं बाबा मंदिर में शाम की पूजा और आरती को बड़ी स्क्रीनों पर दिखाया जा रहा है. क्या ये सब अविश्वसनीय नहीं है ?भगवान कहाँ हैं ?क्या धार्मिक लोगों के मन में सवाल नहीं उठता.

सरकारों को तमाम धार्मिक संस्थानों को दिए जाने वाले अनुदान और सब्सिडी पर रोक लगानी चाहिए.दुनिया भर के पोप, पुजारी,मौलवी और अन्य धार्मिक नेता लोगों की गाढ़ी कमाई खाते हैं. लेकिन जरूरत के समय वे उनके किसी काम के नहीं निकलते.इसके बजाय वे लोग झूठ और अवैज्ञानिक तथ्यों की घुट्टी पिलाते हैं.इन सारे धर्मों ने नुकसान पहुँचाने के अलावा सदियों से और किया ही क्या है ? महिलाओं के निरंतर उत्पीड़न,दंगे,विभाजन,खून खराबे और नफरत फैलाने के अलावे इनका क्या काम रहा है.

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धार्मिक स्थलों को संग्राहलयों,विज्ञान अकादमियों,प्रयोगशालाओं और कला विद्यालयों में बदल दिया जाना चाहिए ताकि आम जनता के भलाई में काम आ सके.प्रकृति ने बार बार दिखलाया है और साबित किया है कि कोई भगवान नहीं है. धर्म एक परिकथा मात्र है. जहाँ कहीं भी गरीबी,सामाजिक असमानतायें ,स्त्री विरोधी और बर्बरता है. वहाँ भगवान और पूजा पाठ पर अतिनिर्भरता अधिक देखी जा सकती है.

जब कोरोना वायरस महामारी तेज गति से कई देशों में फैलते जा रहा है. अधिकांशतः धार्मिक सभायें और समारोह स्थगित कर दिए गए हैं. अस्वस्थता और बीमारियों से सुरक्षा पाने के लिए आमतौर पर अपने आस पास के मंदिरों ,मस्जिदों,गिरजाघरों और अन्य पूजा स्थल की शरण में न जाकर अस्पतालों और कवारेंटाईन केंद्रों में जा रहे हैं.  इस बार कोरोना काल में स्पष्ट हो चुका की रोगों का उपचार अल्लाह,देवता या भगवान नहीं करते.मनुष्यों की रक्षा अलौकिक शक्ति नहीं करती ,बल्कि उन्हें अन्य मनुष्य ही बचाते हैं. धार्मिक लोगों को इस समय अपने अपने देवताओं की कृपा का नहीं ,बल्कि एक टीके का इंतजार है. धार्मिक पागलपन से छुटकारा पाने और तार्किकता को गले लगाने का भला इससे बढ़िया वक्त क्या होगा ?

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देश को उत्पादन चाहिए, भूख बिमारी से छुटकारा चाहिए तो धर्म के सहारे तो नहीं मिलेगी.

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