‘यार, डिलीवरी बौय अभी तक पिज्जा ले कर नहीं आया. आधे घंटे से ऊपर हो गया है. आज तो पक्का हमारे पैसे बचेंगे. आज मुफ्त पिज्जा खाने का मौका मिला है,’ श्याम ने उत्साहित हो कर कहा.

‘अभी 2 मिनट ही ऊपर हुए हैं,’ रीना ने जवाब दिया, पर इस से पहले कि श्याम कुछ बोलता, दरवाजे की घंटी बजी और पिज्जा वाला और्डर ले कर हाजिर हो गया.

श्याम ने गुस्से में दरवाजा खोला और पिज्जा वाले पर चिल्ला कर बोला, ‘कितनी देर से और्डर दिया हुआ है. तू अब ले कर आया है. आधे घंटे का टाइम ओवर हो गया है. इस और्डर के कोई पैसे नहीं मिलेंगे.’

पिज्जा वाला गिड़गिड़ाया, ‘सर, बस 2 मिनट ऊपर हुए हैं. आप ने गली नंबर नहीं बताया था, इसलिए मकान ढूंढ़ने में 2 मिनट की देरी हुई. प्लीज पेमैंट कर दीजिए वरना मेरा नुकसान हो जाएगा.’

श्याम ने उस के हाथ से पैकेट छीना और धड़ से दरवाजा उस के मुंह पर बंद कर दिया. बेचारा पिज्जा वाला काफी देर तक उन के दरवाजे पर खड़ा रहा. कई बार घंटी बजाई. मगर श्याम और रीना ने दरवाजा नहीं खोला.

ऐसी घटनाएं डिलीवरी बौयज के साथ आएदिन घटती हैं. तय समय के अंदर फूड पैकेट डिलीवर करने के चक्कर में कई बार ये डिलीवरी बौयज इतनी तेज रफ्तार में बाइक चलाते हैं कि ऐक्सिडैंट हो जाते हैं, लोगों से ?ागड़ा हो जाता है या वे ट्रैफिक नियम तोड़ देते हैं. कई बार सामान और्डर करने वाले लोग अपना पता ठीक नहीं बताते तो डिलीवरी बौय को जगह ढूंढ़ने में वक्त लगता है, ऐसे में उन्हें गालियां खानी पड़ती हैं.

डिलीवरी बौयज के साथ लोग अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं. उन के साथ गालीगलौज तो बहुत आम हो गया है. अमीरों की ऐयाशियों को पूरा करता डिलीवरी बौयज का वर्ग समाज में पैदा हो गया है जिसे लोग बड़ी हिकारत की दृष्टि से देखते हैं. वे इन्हें मजदूर से ज्यादा अहमियत नहीं देते, जबकि कई डिलीवरी बौयज उच्च शिक्षा प्राप्त भी होते हैं.

बड़ीबड़ी इंटरनैशनल कंपनियों ने औनलाइन शौपिंग के जरिए एक ऐसे समाज का सृजन किया है जो अब खानेपीने की चीजों के लिए बाजार जाना पसंद नहीं करता है. वह तो आराम से घर बैठ कर टीवी देखता हुआ अपनी सुविधा और समय के अनुसार औनलाइन खाना और्डर करता है. अब कोई हलवाई के वहां जा कर समोसे नहीं खरीदता, बल्कि फोन पर और्डर दे कर मोमोज मंगाता है.

समाज के इस बदलते स्वरूप ने जहां छोटे दुकानदारों का धंधा चौपट कर दिया है वहीं सेवा देने वाले युवाओं की एक बहुत बड़ी तादाद सड़कों पर उतार दी है, जिन्हें डिलीवरी बौय कहा जाता है मगर इन का न कोई भविष्य है और न बहुत आमदनी.

बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ सरकार भी मिली हुई है. दरअसल सरकार के पास देश के युवाओं के लिए नौकरियां नहीं हैं. देश के युवाओं को मोदी सरकार चाय बेचने, समोसे बेचने से ले कर डिलीवरी बौय बनने या अग्निवीर बन जाने के लिए मजबूर कर रही है. थोड़ेथोड़े समय के ऐसे कामों में युवाओं को फंसाया जा रहा है जिन में तत्काल तो आमदनी लगती है मगर कुछ वर्षों बाद जब ये काम करने के लायक वे नहीं रहेंगे तब एक अच्छा और स्थायी कैरियर बनाने का उन का समय भी खत्म हो जाता है.

सरकार ने सेना में स्थायी जवान रखने की जगह चारचार साल के लिए अग्निवीरों की भरती शुरू की है. इन युवाओं को इन 4 सालों में बंदूक चलाना, गोलाबारूद का इस्तेमाल करना आ जाता है. 4 वर्षों बाद जब सरकार इन की नौकरी खत्म कर के इन्हें फिर बेरोजगार कर देगी तब इन के सामने क्या भविष्य होगा? न तो ये सरकारी नौकरी के लायक होंगे और न ही कोई अच्छी प्राइवेट नौकरी में इन्हें लिया जाएगा. क्या सरकार ऐसे बेरोजगारों की फौज देश में बनाना चाहती है जो हथियार चलाने में माहिर है, नौकरी खत्म होने पर फ्रस्टे्रशन और गुस्से से भरे हैं और जिन को अपना पूरा भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है. सोचिए, ऐसे बेरोजगार युवा समाज के लिए कितने खतरनाक साबित हो सकते हैं.

बिलकुल यही हालत डिलीवरी का काम करने वाले युवाओं की है. पढ़ने और अच्छा कैरियर प्राप्त करने के लिए कंपीटिशन की तैयारी करने के वक्त में वे कुछ पैसों के लिए आसानी से डिलीवरी बौय बनने को तैयार हो जाते हैं लेकिन कुछ साल यह काम करने के बाद उन को एहसास होता है कि अब वे किसी भी अच्छी नौकरी के लायक नहीं रह गए हैं.

आज हर दिन लाखों की संख्या में डिलीवरी बौय सड़कों पर उतर रहे हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियां बहुत आसान से इंटरव्यू के जरिए डिलीवरी बौय बनने और इनकम के साथ अच्छी प्रोत्साहन राशि का लालच दे कर बड़ी संख्या में युवाओं की भरती कर रही हैं. इन की सेवाओं के जरिए एमेजौन, स्विगी, जोमैटो, डोमिनोज जैसी हजारों बहुराष्ट्रीय कंपनियां अमीर से अमीर होती जा रही हैं.

फास्टफूड का चस्का बच्चों और किशोरों को लगा कर एक ओर उन्हें मोटापा व अन्य गंभीर किस्म की बीमारियां बांटी जा रही हैं, वहीं डिलीवरी बौयज के रूप में युवाओं की एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे काम में अपनी जवानी ?ांक रही है जिसे एक तरफ तो हिकारत की नजर से समाज देखता है और दूसरी तरफ इस तरह की नौकरी कुछ सालों की ही होती है. इस में न तो कोई बहुत बड़ी आमदनी है, न प्रोविडैंट फंड या पैंशन की कोई व्यवस्था. भारत में इंटरनैट शौपिंग का धंधा जिस तेज गति से फलफूल रहा है उस के मुकाबले इस माध्यम से खरीदे जाने वाले सामान को आप के घर पहुंचाने वाले डिलीवरी बौयज के हिस्से में इस मुनाफे का एक प्रतिशत भी नहीं आता है.

लखनऊ के रहने वाले राजू पहले अपने पिता के कपड़ों की दुकान पर काम करते थे. इस से दुकान का खर्च और उन के परिवार का खर्च बहुत मुश्किल से निकल पाता था. राजू ने डिलीवरी बौय का काम करने की सोची. रुपए उधार ले कर उन्होंने एक बाइक खरीदी. उन्हें बाइक होने की शर्त पर ही फ्लिपकार्ट में सामान पहुंचाने का काम मिला.

राजू बताते हैं, ‘‘मैं फ्लिपकार्ट में अच्छा काम कर रहा था, लेकिन फिर मेरी बाइक चोरी हो गई. वहां काम करने के लिए आप के पास अपनी बाइक होनी जरूरी है. बाइक नहीं रही तो मु?ो नौकरी से निकाल दिया गया. अब मु?ो उधार के पैसे भी चुकाने हैं और मेरी कोई इनकम भी नहीं है. मु?ा पर तो दोहरी गाज गिरी है.’’

डिलीवरी बौय बनना किसी भी युवा का ड्रीम जौब नहीं होता. जो भी लोग इस जौब में हैं या आना चाहते हैं उन के सामने कुछ न कुछ मजबूरियां या बंधन हैं. जो युवक इस जौब से जुड़ रहे हैं, उन को हर कदम पर अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

समय पर डिलीवरी की चुनौती

हर ग्राहक, जो औनलाइन किसी सामान का और्डर कर रहा है, को अपना मंगाया हुआ सामान समय पर चाहिए. ऐसे में हर मौसम में डिलीवरी बौयज के सामने समय पर डिलीवरी देने की चुनौती बनी रहती है. धूप, प्रदूषण, बारिश, भीड़, ट्रैफिक जाम आदि सब से जू?ाते हुए उन का मकसद समय पर सामान डिलीवर करना होता है. इस चक्कर में लास्ट मिनट डिलीवरी पहुंचाने वाले तो कई बार बहुत तेज बाइक चला कर आते हैं. ऐसे में उन के ऐक्सिडैंट भी होते हैं, रैडलाइट क्रौस कर जाने पर चालान भी होता है और कई बार तो चौराहे आदि पर पुलिस उन को रोक कर गालीगलौज करती है या उन पर डंडे फटकारती है या जुर्माना लगाती है.

लोगों की बदतमीजी का शिकार

लोगों की या ग्राहक की बदतमीजी का सामना करना डिलीवरी बौयज के जीवन की बड़ी चुनौती है. अधिकतर लोग उन से तमीज से पेश नहीं आते. भीषण गरमी में भी समय से सामान डिलीवर करने पर उन को पानी तक के लिए नहीं पूछते, देर से आने पर तो बहुत उलटासीधा बोलते हैं, उन को वेट करवाते हैं, निर्धारित पते की जगह दूसरे पते पर सामान पहुंचाने का आदेश तक दे देते हैं. कंपनी या मूल स्रोत की गलती के लिए भी डिलीवरी बौयज को ही खरीखोटी सुननी पड़ती है.

सामाजिक भेदभाव

डिलीवरी बौयज के साथ समाज में कई तरह के भेदभाव किए जाते हैं, मसलन कई सोसाइटीज वाले उन को अलग लिफ्ट का उपयोग करने को बोलते हैं, जबकि वे औन ड्यूटी हैं. उन का भी समय का मूल्य है. और्डर करने वाले घरों में बैठे कई बेरोजगार लोग काम में लगे हुए डिलीवरी बौयज को बेकार सम?ाते हैं.

कई बार कुछ सोसाइटी गेट पर खड़े गार्ड डिलीवरी बौयज को बाइक के साथ सोसाइटी के भीतर नहीं जाने देते. उन को बाइक बाहर गेट पर लगा कर सामान देने पैदल ही अंदर जाना पड़ता है. कालोनी कितनी बड़ी है, इस का कोई आइडिया नहीं होने पर अकसर उन को पैदल चल कर सामान पहुंचाने में देर हो जाती है. इस पर या तो वे गाली खाते हैं या फिर ग्राहक पैसे नहीं देता है.

व्यक्तिगत जीवन उपेक्षित रहता है

आमतौर पर डिलीवरी बौयज की उम्र 18 से 30 साल के बीच की होती है. यह उम्र उन की शादी की भी होती है. लेकिन कोई भी लड़की डिलीवरी बौय से शादी की इच्छुक नहीं होती. किसी भी लड़की का ड्रीम बौय स्थायी व मजबूत जौब वाला ही होगा, न कि कोई डिलीवरी बौय. कोई भी मातापिता यह नहीं चाहते कि वे अपनी बेटी की शादी ऐसे किसी लड़के से करें जिस की नौकरी आज तो है लेकिन कल नहीं.

35-40 साल की उम्र के बाद सड़कों पर फर्राटे से बाइक भगाने का रिस्क कोई भी नहीं लेना चाहता है और यह वह उम्र होती है जब उन के बच्चे भी स्कूल-कालेज में आ जाते हैं, उन के अलग खर्चे होते हैं. ऐसे में डिलीवरी बौय का काम ज्यादा से ज्यादा 30 साल तक किया जा सकता है. मगर उस के बाद जौब के औप्शन न के बराबर रह जाते हैं.

18 से 25 साल की उम्र एक युवा पढ़ाई में लगा कर कोई स्थाई जौब, जिस में कुछ सुविधाएं और बचत हो, ढूंढ़ सकता है, सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश के चलते कुछ पैसे के लालच में वह समय डिलीवरी बौय के रूप में गवां देता है और आखिर में उस के हाथ में कुछ नहीं आता. परिवार की भी उस से कई अपेक्षाएं रहती हैं, जिन को पूरा करने की जिम्मेदारी उन पर होती है, लेकिन जौब की प्रकृति के कारण वे परिवार को समय कम दे पाते हैं.

जौब का स्थायी नहीं होना

डिलीवरी बौयज की जौब स्थायी नहीं है, कंपनी नुकसान में गई, बंद हो गई या छंटनी हो गई तो या तो जौब गई या प्रति डिलीवरी मिलने वाला कमीशन कम हो जाता है. इस काम में पैंशन या प्रोविडैंट फंड जैसी कोई व्यवस्था नहीं है. यहां तक कि वाहन और पैट्रोल का खर्च भी कंपनियां नहीं देती हैं. कोई मैडिकल बीमा भी नहीं होता है.

‘स्नैपडील’ में डिलीवरी का काम देखने वाले सीनियर एसोसिएट गौरव भारद्वाज कहते हैं, ‘‘जैसेजैसे ईकौमर्स का बाजार बड़ा हो रहा है, डिलीवरी बौयज की मांग उसी तेजी से बढ़ रही है. मगर डिलीवरी बौयज के काम के साथ एक परेशानी यह है कि ज्यादातर कंपनियां इन्हें हायर नहीं करती हैं. बल्कि वे इस काम के लिए किसी कूरियर या मैनपावर कंपनी से करार कर लेती हैं.

‘‘ऐसे में इन डिलीवरी बौयज के काम की शर्तों और नियमों के पालन में किसी कंपनी का सीधासीधा हाथ नहीं होता. स्नैपडील में हम एक कूरियर कंपनी के जरिए अपने पैकेज ग्राहकों को भिजवाते हैं. इस कूरियर कंपनी के राइडर्स को स्नैपडील का बैग या वरदी दे दी जाती है. इस से ज्यादा हम डिलीवरी बौयज से संपर्क नहीं रखते हैं.’’

शारीरिक चुनौती

भारीभरकम सामान के साथ चलने से थकान, लगातार दुपहिया वाहन चलाने से होने वाले शारीरिक नुकसान, लगातार धूप, प्रदूषण में रहने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर भी डिलीवरी बौयज के सामने एक चुनौती है. चोट लगने या ऐक्सिडैंट होने पर कंपनी की तरफ से कोई मदद नहीं मिलती.

पैसे छीन लेने की घटनाएं

डिलीवरी बौयज के साथ मारपीट या उन से पैसे छीन लेने की घटनाएं कई बार सामने आई हैं. यह इस काम से जुड़ा जोखिम है, जो वे उठाते हैं. कई बार ग्राहक ही पैसे नहीं देते, कई बार यातायात पुलिस के जवान लाइट क्रौस करने पर डंडा फटकार कर उन से पैसे छीन लेते हैं. ग्राहकों से ?ागड़े की घटनाएं तो आम होती जा रही हैं.

थिंकटैंक के रूप में काम कर रहे सैंटर फौर इंटरनैट एंड सोसाइटी ने पिछले साल 1,500 गिग श्रमिकों का सर्वेक्षण किया और पाया कि 3 में से एक डिलीवरी बौय पैसे चोरी होने या उस पर हमला होने की आशंका से ग्रस्त है. सीआईएस में अनुसंधान प्रमुख आयुश राठी कहते हैं, ‘‘काम पर जाते समय 3 में से एक व्यक्ति को यह डर सताता है कि आज उसे लूट लिया जाएगा या शारीरिक हमले का सामना करना पड़ेगा.’’

हरियाणा के जींद जिले के रहने वाले सूरज पांचाल जोमैटो कंपनी में बतौर डिलीवरी बौय काम कर रहे हैं. 22 वर्षीय सूरज कहते हैं, ‘‘मैं यह काम मजबूरी में कर रहा हूं और कमा भी रहा हूं मगर यह काम जोखिमभरा है और एक अंधकारमय भविष्य प्रदान करता है. मैं अभी यंग हूं और इस प्रोफैशन में परफौर्म कर सकता हूं लेकिन इसे जिंदगीभर के प्रोफैशन के तौर पर नहीं अपना सकता. इस काम को करने पर पैसे तुरंत मेरे अकाउंट में क्रैडिट हो जाते हैं लेकिन इस काम में घुसने के बाद मु?ो पढ़ाई के लिए समय ही नहीं बचता है. इस काम को ज्यादा से ज्यादा 10 साल कर लूंगा. उस के बाद क्या काम करूंगा, मु?ो नहीं मालूम.’’

वहीं गुरुग्राम में स्विगी की डिलीवरी देने वाले रमन का कहना है कि कुछ ग्राहक रात के समय और्डरों के दौरान दुर्व्यवहार करते हैं लेकिन मैं परेशान नहीं होता क्योंकि वे नशे में होते हैं. हमें अपने प्रशिक्षण के दौरान सिखाया गया है कि ग्राहकों के साथ अनावश्यक बकबक न करें. हम सिर्फ सौरी कहते हैं और आगे बढ़ते हैं. मगर यह सब बड़ा अपमानजनक लगता है. कई बार तो मेरा हाथ ग्राहक पर उठतेउठते रुक जाता है.

रमन की शिकायत है कि बारिश होने पर हमें कोई आश्रय नहीं मिलता. और्डर के लिए रैस्तरां के बाहर ही हमें इंतजार करना पड़ता है. कभीकभार ग्राहक उचित दिशानिर्देश नहीं देता और फिर कई ग्राहक अपने पते की पुष्टि के लिए फोन भी नहीं उठाते हैं तो सामान डिलीवर करने में बड़ी कठिनाई आती है. कुछ कालोनी वाले डिलीवरी बौयज की बाइक को अंदर नहीं जाने देते तो कुछ लोग अपनी मुख्य लिफ्ट का उपयोग करने की अनुमति नहीं देते हैं. इस से हमें काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है.

रमन बताते हैं, ‘‘पिछले साल 22 मार्च को गुरुग्राम में गोल्फ कोर्स रोड पर एक तेज रफ्तार कार ने उन की बाइक को टक्कर मार दी थी, जिस में उन्हें काफी चोट आई थी, मगर कंपनी ने कोई पैसा इलाज के लिए नहीं दिया.’’

गौरतलब है दिसंबर 2022 में गुरुग्राम के कन्हाई गांव में भी एक एसयूवी की मोटरसाइकिल से टक्कर के बाद एक 34 वर्षीय डिलीवरी बौय की मौत हो गई थी.

गुड़गांव में, ऐसे मामले सामने आए हैं जहां डिलीवरी बौय को बीच रास्ते में रोका गया, बंदूक की नोक पर रखा गया, पीटा गया और लूट लिया गया. कुछ इलाके तो इतने सुनसान हैं कि आपातकालीन स्थिति में कोई मदद भी नजर नहीं आती और पुलिस को भी मदद की जरूरत वाले व्यक्ति तक पहुंचने में समय लगता है.

धार्मिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है

हाल ही में एक मुसलिम फूड डिलीवरी बौय का वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हुआ. हैदराबाद के एक शख्स ने फूड डिलीवरी कंपनी स्विगी की ओर से मुसलिम डिलीवरी बौय न भेजने का आग्रह किया. उस ने अपने और्डर के साथ लिखा कि कृपया किसी मुसलिम के हाथ खाना न भेजें. इस पर काफी राजनीतिक प्रतिक्रियाएं आई थीं.

पिछले साल के अंत में, हैदराबाद में एक मुसलिम उबर ड्राइवर सैयद लतीफुद्दीन पर 6 लोगों ने हमला किया था, जिन्होंने उसे जयश्री राम बोलने के लिए मजबूर किया और उस की कार पर पथराव किया. तेलंगाना में गिग और प्लेटफौर्म श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था गिग एंड प्लेटफौर्म वर्कर्स यूनियन (टीजीपीडब्ल्यूयू) का कहना है कि हमला होने के बाद लतीफुद्दीन ने मदद के लिए उबर की आपातकालीन सेवाओं को कई बार फोन किया, लेकिन उस को उधर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. ये घटनाएं डिलीवरी बौयज के साथ होने वाली अनैतिक घटनाओं का उदाहरण हैं.

हम डिलीवरी बौयज को चमकदार टीशर्ट पहने, चौकोर बैग ले कर जाते हुए चौबीसों घंटे शहर के ट्रैफिक में घूमते हुए देखते हैं. अब तो इस काम में लड़कियां भी उतर चुकी हैं. कोरोना महामारी के दौरान जब लोगों का घर से बाहर निकलना बंद हो गया,  होटल और रैस्तरां बंद हो गए और किराने का सामान खरीदने के लिए भी बाहर जाना कोई विकल्प नहीं था तो ये डिलीवरी बौयज हर शहरवासी की मदद के लिए आगे आए. मगर अफसोस कि सरकारों ने उन पर बहुत कम ध्यान दिया.

बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने युवाओं की इस क्षमता को तुरंत भुनाना शुरू कर दिया तो सरकार को भी मौका मिल गया कि देश में व्याप्त बेरोजगारी की भयावह स्थिति को इस तरीके से कम किया जाए. मगर युवावर्ग इस छलावे में फंस कर एक अंधकारमय भविष्य की ओर बढ़ रहा है. इस भीड़ में बहुत बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से अच्छे भविष्य का सपना आंखों में ले कर महानगरों का रुख करने वाले युवाओं की है.

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