24 अप्रैल, संतकबीर नगर
भाजपा गद्दार और घमंडी है, भाजपा के लोग कहते हैं कि उन्होंने राम मंदिर बनवाया. तुम कौन होते हो भगवान को लाने वाले? तुम इंसान हो कर भगवान को लाने की बात कर रहे हो. मंदिर तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बनना शुरू हुआ और पैसे जनता के लग रहे हैं. इस में भाजपा का क्या लगा है?
25 अप्रैल, आजमगढ़
सरकारी नौकरियों के लिए पेपर देते हो, वह लीक हो जाता है. तो मन करता है जिस ने पेपर लीक किया उस का गूदा निकाल कर जमीन में गाड़ दें.
28 अप्रैल, सीतापुर
वे कहते हैं सरकारी नौकरियां नहीं हैं तो क्या हुआ, पकोड़े तलना भी तो रोजगार है. अब आप बताइए, खासी पढ़ाईलिखाई करने, डिग्री हासिल करने के बाद आप अपने बच्चों से पकोड़े तलवाएंगे? बहुजन समाज पढ़ालिखा समाज है, वह पकोड़े तलने के लिए पैदा नहीं हुआ है. यह समाज संविधान के आधार पर भारत को आगे बढ़ाने का काम करेगा.
इलैक्शन कमीशन को लगे कि हमें भाजपा को आतंकवादी नहीं बोलना चाहिए था तो हम चुनाव आयुक्तों से अपील करेंगे कि वे गांवगांव घूमें, देखें और पता करें कि यहां जो बहनबेटियां हैं वो किस हाल में जी रही हैं. यहां के युवाओं के हालात देखें, उन्हें पता चल जाएगा कि मैं सच बोल रहा हूं.
भाजपा के खिलाफ इतना बोलने वाले को अव्वल तो बाहर नहीं, बल्कि किसी झूठेसच्चे इल्जाम में जेल में होना चाहिए था. इस की नौबत आती, इस से पहले ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद से 7 मई को दी गई वे तमाम जिम्मेदारियां व पद वापस ले लिए जो उन्होंने उन्हें पिछले साल दिसंबर में सौंपे थे. बकौल मायावती, आकाश अभी अपरिपक्व हैं. (उम्र 28 वर्ष, लंदन से एमबीए, इस के बाद भी अपरिपक्व?).
दरअसल आकाश विकट की परिपक्वता दिखाते और जनता को भाजपा की हकीकत से रूबरू कराते लोकसभा चुनाव में बसपा उम्मीदवारों की मजबूती देने की कोशिश कर रहे थे और खुद भी बहुजनों के बीच लोकप्रिय व मजबूत हो रहे थे कि एक झटके में बूआ ने उन्हें एहसास करा दिया कि हमें बसपा को नहीं, बल्कि भाजपा को मजबूत करना है. राममंदिर और धर्म की बात तो भूल कर भी नहीं करना है. दलित युवाओं को नौकरी न मिले, न सही, इस के लिए हम अपने आर्थिक साम्राज्य और अस्तित्व को खतरे में नहीं डाल सकते. दलित तो सदियों से ही प्रताड़ित और शोषित है. उस की बदहाली न तो बाबासाहेब दूर कर पाए थे, न मान्यवर कांशीराम और न ही मैं कुछ कर पाई, तो तुम किस खेत की मूली हो. जाओ अपने महल के एसी में बैठ आईपीएल का लुत्फ उठाओ, आराम करो, हमारी तरह पसीना मत बहाओ. राजनीति तुम्हारे बस की बात नहीं. एक इंटरव्यू में आकाश ने यह भी उजागर किया था कि स्कूल के दिनों में एक सीनियर उन्हें चमार कह कर बेइज्जत करता था.
कुछ दिन अपना जलवा बिखेर कर खूबसूरत और स्मार्ट आकाश उत्तरप्रदेश से वापस दिल्ली पहुंच गए. जातेजाते सनातनी शैली में बूआ के आदेश को उन्होंने सिरआखों पर लिया और अब यदाकदा, इक्कादुक्का कोई छोटामोटा बयान दे देते हैं जिस के कोई माने नहीं होते. अब इस युवा के पास यह सोचने के लिए मुक्कमल वक्त और मौका है कि आखिर कौनकौन दलित युवा नेतृत्व की पौध को पेड़ नहीं बनने दे रहा. और कोई क्यों अब कांशीराम के दिए चर्चित नारे ‘तिलक तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार’ की बात करता? क्यों बसपा अयोध्या के महंगे आलीशान मंदिर की प्रासंगिकता को बहुजन समाज के मद्देनजर कठघरे में खड़ा करतीं हैं? आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी आन पड़ी है जो एक दलित युवा नेता दिल की बात जबां पर ले आए तो उस के कान अपने वाले ही उमेठने लगे हैं? जबकि इस बाबत तो उसे प्रोत्साहन ही मिलना चाहिए कि, शाबाश बेटा, डटे रहो, इस मुहिम में हम तुम्हारे साथ हैं.
दलित राजनीति इन दिनों सब से बुरे दौर से गुजर रही है. देश के अधिकतर दलित नेता भाजपा की गोद में जा बैठे हैं जिन में रामदास अठावले, चिराग पासवान और जीतनराम माझी के नाम प्रमुख हैं. कांग्रेस में भी इन दिनों दलित नेताओं के लिए कोई खास स्पेस नहीं है. मल्लिकार्जुन खडगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद दूसरी पंक्ति के दलित दलित नेता न तो सनातनी राजनीति और मंदिर मुद्दे पर तुक की कोई बात कह पाए और न ही आरक्षण पर मचे बवंडर पर आम दलित युवा का डर जता पाए.
कांग्रेस के एक प्रमुख युवा दलित नेता उदित राज दिल्ली से चुनाव मैदान में जरूर हैं लेकिन उन के तेवर पहले जैसे आक्रामक नहीं रह गए हैं. भाजपा का झूठा पानी पी चुके उदित राज अब बूढ़े भी हो चले हैं. साल 2014 में वे अपनी इंडियन जस्टिस पार्टी सहित भाजपा में चले गए थे लेकिन भगवा गैंग की पूजापाठी मानसिकता ज्यादा नहीं झेल पाए तो 2019 में कांग्रेस में आ गए.
2014 का चुनाव वे दक्षिणपूर्व दिल्ली सीट से भाजपा के टिकट पर जीते थे. इस बार भी वे इसी सीट से मैदान में हैं. मुकाबला भाजपा के योगेंद्र चंदोलिया से है. आम आदमी पार्टी का साथ उन्हें फिर से संसद पहुंचा भी सकता है. उदित राज जीतें या न जीतें लेकिन एक बात तय है कि भाजपा में महत्त्वाकांक्षी दलित नेताओं के लिए कोई जगह नहीं है. वहां वही चलता है जो गले में भगवा गमछा डाल कर गला फाड़ कर जयजय श्रीराम के नारे लगाए और यह मान ले कि वर्णव्यवस्था पर दलितों को कोई एतराज नहीं.
उदित राज की तरह ही मनुवाद विरोधी तीखे तेवरों के लिए पहचाने जाने वाले 37 वर्षीय चंद्रशेखर रावण अपनी ही बनाई आजाद समाज पार्टी से उत्तरप्रदेश की नगीना सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. एक वक्त में चंद्रशेखर को मायावती के विकल्प के तौर पर भी देखा जाने लगा था जिसे ले कर मायावती घबरा भी उठी थीं और उन्होंने रावण की राजनीति खत्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
भाजपा भी चंद्रशेखर को ले कर चिंतित थी क्योंकि वे तेजी से दलित समुदाय में पैठ बना रहे थे. इस से ज्यादा दिक्कत की बात यह थी और है भी कि वे अकसर मनुवाद और वर्णव्यवस्था को ले कर लगातार हमलावर रहते हैं जिसे ले कर उन पर आएदिन जानलेवा हमले होते रहते हैं और जिस के चलते ही उन्हें वाई श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई है.
नगीना सीट उन के ही नहीं, बल्कि मनुवाद विरोधी और मनुवाद समर्थक दलित राजनीति का भी भविष्य तय करेगी. क्योंकि इस सीट पर उन का मुकाबला भाजपा के ओम कुमार, सपा के मनोज कुमार और बसपा के सुरेंद्रपाल सिंह से है. 2019 के चुनाव में नगीना से बसपा के गिरीश चंद्र ने भाजपा के यशवंत सिंह को 1 लाख 66 हजार वोटों से हराया था. इस बार के चतुष्कोणीय कड़े मुकाबले में जीत किस के हाथ लगेगी, यह तो सट्टा बाजार भी तय नहीं कर पा रहा.
चंद्रशेखर के लिए यह पहला चुनाव ही चैलेंज इस लिहाज से साबित हो रहा है कि उन्हें किसी भी सूरत में बसपा उम्मीदवार सुरेंद्रपाल को नहीं जीतने देना है, तभी भविष्य में दलित उन का साथ देगा. दूसरे, उन्हें भाजपा के ओम कुमार को भी सवर्ण वोटों तक समेट कर रखना है.
भाजपा इस सुरक्षित सीट को ले कर आश्वस्त नहीं है लेकिन दलित वोटों का बंटवारा किस फार्मूले पर होता है, इस पर भी उसकी नजर है. जो भी इस लोकसभा सीट के 6 लाख के लगभग मुसलिम वोट थोक में ले जाएगा उस की जीत की संभावनाए ज्यादा होंगी. इस लिहाज से तो इंडिया गठबंधन के मनोज कुमार फायदे में रहेंगे, बशर्ते उन्हें कुछ वोट दलितपिछड़ों के भी मिलें. रावण अगर बसपा का वोट काटने में कामयाब रहे तो इस में कोई शक नहीं कि दलित नेता के तौर पर वे स्थापित हो जाएंगे लेकिन इस के लिए उन के वोट बसपा उम्मीदवार से ज्यादा होने चाहिए. इस सीट से जो भी जीतेगा उस का मार्जिन बहुत कम होना तय है.
एक और युवा दलित नेता 41 वर्षीय चिराग पासवान भी अपनी लोक जनशक्ति पार्टी से बिहार की जमुई सीट से मैदान में हैं. भाजपा उन के साथ है, जिस ने एलजेपी को पहले की तरह 6 सीटें दी हैं. लेकिन इस बार हालत खस्ता है क्योंकि रामविलास पासवान नहीं हैं जो जुगाड़तुगाड़ के महारथी थे और जनता भी उन्हें चाहती थी.
चिराग की दिक्कत यह है कि उन्होंने कभी जमीनी राजनीति नहीं की है. दलितों की परेशानियों का उन्हें एहसास ही नहीं. दूसरी दिक्कत यह है कि उन्होंने भी सनातनी तौरतरीकों से रहना/जीना शुरू कर दिया है. एक हिंदी फिल्म में बतौर हीरो दिख चुके चिराग ने अपने पिता का अंतिम संस्कार और गंगा पूजन सनातनी रीतिरिवाजों से किए थे और इस दौरान खुलेआम ब्राह्मणों के पैरों में माथा नवाते, उन्हें तगड़ी दक्षिणा भी दी थी. इसलिए भाजपा ने उन्हें साथ भी ले लिया कि, चलो, लड़का मंदिर और वर्णव्यवस्था का विरोधी नहीं जबकि रामविलास पासवान इन ढोंगपाखंडों को दलितों का दुश्मन मानते थे और डील अपनी शर्तों पर करते थे.
ऐसा किसी को नहीं लग रहा कि एलजेपी अपना पुराना प्रदर्शन दोहरा पाएगी. ऐसे में चिराग की भविष्य की राजनीति यही होगी कि वे भी भगवा गमछा गले में डाल लें. हालांकि, अभी वे इस बात से इंकार कर रहे हैं कि एलजेपी का भाजपा में विलय होगा. लेकिन यह तय है कि बहुत से ऐसे अहम और दिलचस्प सौदे 4 जून के बाद संपन्न होंगे.
चंद्रशेखर रावण की तरह ही दलित अत्याचारों के विरोध में खड़े रहने वाले गुजरात के बाड़मेर से विधायक कांग्रेस के युवा दलित विधायक जिग्नेश मेवानी भी चुनावप्रचार में उम्मीद के मुताबिक सक्रिय नहीं दिखे. दलित जीवन की दुश्वारियां भुगत चुके जिग्नेश से दलित युवाओं को बड़ी उम्मीदें हैं लेकिन कांग्रेस उन का सही इस्तेमाल नहीं कर पा रही है.
पिछले दिनों गृहमंत्री अमित शाह के एक वीडियो से कथित छेड़छाड़ के आरोप में शक की सुई जिग्नेश पर गहराई थी और उन की गिरफ्तारी की चर्चा भी हुई थी लेकिन चुनाव सिर पर देख एक दलित युवा नेता को गिरफ्तार करना घाटे का सौदा भाजपा के लिए साबित होता इसलिए उन्हें हालफिलहाल बख्श दिया गया है लेकिन अमित शाह की वक्रदृष्टि जिग्नेश पर पड़ चुकी है. इस विवादित वीडियो में गृहमंत्री यह कहते नजर आ रहे हैं कि एससी, एसटी का आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा.
10 साल से भाजपा मंदिरमंदिर खेल रही है. इस खेल में दलितों का न तो कोई रोल है और न ही उन्हें मंदिरों की जरूरत है. उन्हें दरकार है तो बस सरकारी नौकरियों की, जिन की वेकैंसी अब कभीकभार ही निकलती हैं. आरक्षण कैसेकैसे कमजोर किया जा रहा है, यह हर वह दलित युवा समझ रहा है जो पढ़ रहा है लेकिन उन के गले को आवाज देने वाला नेता कोई नहीं है जिस से वे निराश हताश हो चले हैं.
सामाजिक न्याय की बात भी अब कोई नहीं करता जबकि इस की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा महसूस की जा रही है. रोज कोई न कोई दलित दबंगों के कहर का शिकार हो रहा है लेकिन देश का माहौल धर्ममय है. जो यह कहता है कि तुम अगर छोटी जाति के हो तो यह तुम्हारी प्रौब्लम है. तुम्हारे पूर्वजन्म के कर्म खराब थे जो तुम ने शूद्र वर्ण में जन्म लिया. अब अगर इस से बचना है तो अगले जन्म में ऊंचे कुल में पैदा होने के लिए धर्मकर्म करो, ब्राह्मणों को दानदक्षिणा दो और पूजापाठ, व्रतउपवास शुरू कर दो जैसे तुम्हारे कई नेता कर रहे हैं और इतना कर रहे हैं कि इसी जन्म में उन की हालत सुधर गई है. रही बात रोजगार और नौकरी की, तो वह नश्वर है और भाग्य की बात है जिसे बदलने को अब हर कभी तो कोई भीमराव आंबेडकर पैदा होगा नहीं, जिन्हें हम ने देवता सरीखा बना दिया है. सो, तुम लोग बेकार का हल्ला न मचाओ.