इस बार साफ देखा जा सकता है कि 2021 के बंगाल विधानसभा चुनाव में हिंदू-मुस्लिम राजनीति की भी बड़ी भूमिका होगी. वैसे तो कहा जाता है कि बंगाल में लेफ्ट के 34 साल के शासन के समय ही चुनावों में हिंदू-मुस्लिम राजनीति का कोई खास महत्व नहीं रह गया था. ममता के 10 वर्षों के शासनकाल में भी यह मुद्दा बिल्कुल गौण दिखा. अब कम से कम साढ़े चार दशक बाद बंगाल चुनाव में जातिगत समीकरणों के तहत हिंदू-मुस्लिम राजनीति को भी इतना महत्व दिया जा रहा है.

पश्चिम बंगाल में करीब 30 फीसदी मुस्लिम वोटर
पश्चिम बंगाल में करीब 30 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं. कश्मीर और असम के बाद यहां मुसलमान सबसे ज्यादा हैं और विधानसभा की 294 सीटों में से करीब 110 सीटों पर मुस्लिम वोट बैंक निर्णायक है. 85 विधानसभा क्षेत्रों में 30 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम आबादी है. मुर्शिदाबाद, मालदा और उत्तर दिनाजपुर में तो 50 फीसदी तक मुसलमान हैं. जबकि दक्षिण और उत्तर 24-परगना जिलों में भी मुसलमानों का खासा असर है.

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सीटों के लिहाज़ से बात करें तो लगभग 70-100 सीटों पर उनका एकतरफ़ा वोट जीत और हार तय कर सकता है. यही वजह है कि कांग्रेस, लेफ़्ट, बीजेपी और टीएमसी सब इन वोटरों को साधने की कोशिश में जुटे हैं. कांग्रेस और लेफ़्ट का गठबंधन पहले ही हो चुका था, लेकिन उनके साथ अब फ़ुरफ़ुरा शरीफ़ के पीरज़ादा अब्बास सिद्दीक़ी भी हैं. राजनीति में सीधे तौर पर उनकी पहली बार एंट्री हुई है. वहीं दूसरी तरफ़ ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुख असदउद्दीन ओवैसी भी चुनावी मैदान में उतरने का एलान कर चुके हैं.

बीजेपी का ममता बनर्जी को एंटी हिंदू कहना
बीजेपी अब हिंदू वोटरों को एकजुट करने में जुटी हुई है और कुछ हद तक वह अपने इस मिशन में सफल भी हो चुकी है. इसका जीता-जागता उदाहरण है 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का वोट परसेंट, जो पहले से काफी ज्यादा बढ़ा था और वह 18 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का बयान अक्सर हिंदुओं के पक्ष में आता है. वह कभी ममता सरकार को दुर्गा पूजा विसर्जन के लिए अनुमति न देने पर घेरते हैं, तो कभी दीपावली और दशहरा के लिए. बीजेपी बंगाल के हिंदुओं मैं यह बात डालने में कामयाब होती दिख रही है कि वहां उनके हितों का हनन हो रहा है. ममता बनर्जी सरकार को कई बार दुर्गा पूजा विसर्जन जैसे मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट से भी फटकार खानी पड़ी है. यही नहीं ममता बनर्जी कई बार मीडिया और पब्लिक के सामने भी ‘जय श्री राम’ के नारे से चिढ़ती हुई दिखती हैं. जिसे बीजेपी ने हाथों-हाथ लिया था और बंगाल की जनता को ये समझाने की कोशिश की थी कि ममता बनर्जी को अब भगवान राम से भी दिक्कत होने लगी है. बीजेपी के बड़े नेता आज भी अपनी रैलियों में इस बात का जिक्र कर के ममता बनर्जी को घेरते रहते हैं.

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हालांकि इसके बाद ममता बनर्जी ने अपनी रणनीति थोड़ी बदल दी थी. ममता ने राज्य के लगभग 37 हज़ार दुर्गापूजा समितियों को 50-50 हज़ार रुपए का अनुदान देने का एलान किया है. यही नहीं, कोरोना और लॉकडाउन की वजह से आर्थिक तंगी का रोना रोने वाली मुख्यमंत्री ने पूजा समितियों को बिजली के बिल में 50 फ़ीसद छूट देने का भी एलान किया. राज्य के आठ हज़ार से ज़्यादा ग़रीब ब्राह्मण पुजारियों को एक हज़ार रुपए मासिक भत्ता और मुफ़्त आवास देने की घोषणा की थी.

बीजेपी को फ़ायदा

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या टीएमसी का नुक़सान बीजेपी को फ़ायदा पहुँचा सकता है?

लेफ़्ट कांग्रेस और अब्बास सिद्दीक़ी की पार्टी की संयुक्त रैली के बाद लेफ्ट के वोटर बहुत उत्साहित नज़र नहीं आ रहे. ऐसे में देखना होगा कि बंगाल में लेफ़्ट का प्रदर्शन कैसा रहेगा. लेफ़्ट और कांग्रेस के साथ आने से जो चुनाव त्रिकोणीय लगने लगा था, वो अब दोबारा से ममता – मोदी के बीच का मुक़ाबला बनता जा रहा है. एक दूसरी बात भी है जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है. ओवैसी और सिद्दीक़ी के आने से वोटों का ध्रुवीकरण ज़रूर होगा, हिंदू वोट और ज़्यादा संगठित होंगे और इसका फ़ायदा बीजेपी को हमेशा होता है. बीजेपी की रणनीति ऐसा करने की दिख भी रही है. कांग्रेस के अंदर ही अब्बास सिद्दीक़ी की पार्टी के साथ गठबंधन पर ख़ूब खींचतान चल रही है.

ओवैसी पर बीजेपी की ‘बी टीम’ के आरोप लगते रहं है

पिछले चुनाव में लेफ़्ट का हिंदू वोट बीजेपी के साथ चला गया और मुसलमान वोट टीएमसी के साथ. इसलिए इस बार अब्बास सिद्दीक़ी को अपने साथ लाकर लेफ़्ट गठबंधन, मुसलमान वोट अपने साथ करना चाहती है, ताकि टीएमसी को नुक़सान पहुँचाया जा सके.

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बंगाल में बीजेपी भी मुसलमान वोटरों की अहमियत समझती है और इसलिए स्थानीय जानकार मानते हैं कि ओवैसी उनकी चुनावी रणनीति का ही एक हिस्सा हैं. टीएमसी भी ओवैसी को बीजेपी की ही ‘बी टीम’ क़रार देती है. ओवैसी पर इस तरह के आरोप कई लोग लगाते हैं कि उनकी राजनीति बीजेपी को चुनावी फ़ायदा पहुँचाने के लिए होती है लेकिन मुसलमानों का एक बहुत बड़ा तबक़ा संसद में मुसलमानों के मुद्दे पर बेबाकी से अपनी बात रखने वाले नेता के तौर पर भी देखता है.

हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव में भी उन पर इस तरह के आरोप लगे लेकिन उनकी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहा और उनकी पार्टी ने पाँच सीटें हासिल की. यानी लेफ्ट गठबंधन अब्बास सिद्दीक़ी के सहारे और बीजेपी ओवौसी के सहारे टीएमसी के मुसलमान वोटर में सेंधमारी की कोशिश में जुटी है.

बंगाल के अल्पसंख्यक मुख्य रूप से दो धार्मिक संस्थाओं का अनुसरण करते हैं. इनमें से देवबंदी आदर्शों पर चलने वाले जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अलावा फुरफुरा शरीफ़ शामिल है. अब्बास सिद्दीक़ी और ओवैसी दोनों के मैदान में उतने से बंगाल के मुसलमान वोट बंट जाएँगे. दोनों नेताओं के फॉलोअर अलग-अलग हैं. अब्बास सिद्दीक़ी जिस फुरफुरा शरीफ़ के पीरज़ादा हैं उसको मानने वाले मॉडरेट मुसलमान माने जाते हैं. जबकि ओवैसी जिस तरह का प्रचार करते हैं, उनके साथ कट्टर मुसलमान ज़्यादा जुड़ते हैं

ओवैसी बंगाल चुनाव में कितनी बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं?

बिहार चुनाव को देखते हुए कोई नहीं जानता था कि बिहार में वो इतनी सीटें जीतेंगें. इसलिए उनको पूरी तरह से दरकिनार नहीं किया जा सकता. वो जिस तरह से प्रचार करते हैं, मुसलमानों को हाशिए पर किए जाने की बात करते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं कि इस चुनाव में कट्टर मुसलमानों का गुट उनके साथ जुड़ेगा भी. भले ही उनको मिलने वाले वोट, उन्हें बंगाल में सीट ना जीता पाएं लेकिन एक बड़े मुसलमान तबक़े को अपनी तरफ़ कर सकते हैं

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