राहुल गांधी की न्याय यात्रा का उत्तरप्रदेश में आखिरी पड़ाव आगरा था जहां की टेढ़ी बगिया में सुबह से ही सपा और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के आने का सिलसिला शुरू हो गया था. दोपहर होतेहोते इलाके में पांव रखने की भी जगह नहीं बची थी. चारों तरफ झंडे ही झंडे नजर आ रहे थे जिन से 22 जनवरी के अयोध्या इवेंट के दौरान लगाए भगवा झंडे ढकने या एक हद तक छिपने लगे थे. सपा और कांग्रेस के झंडों के साथ साथ दलितों वाले नीले झंडे एक नई जुगलबंदी की चुगली कर रहे थे जो अब बसपा से ज्यादा भाजपा के लिए चिंता की बात हो सकती है.
सपा प्रमुख अखिलेश यादव के सभा में पहुंचते ही नारेबाजी शुरू हो गई और सपा कार्यकर्ताओं की अखिलेश तक पहुंचने की होड़ में मंच की रैली टूट गई जो ऐसे आयोजनों में सफलता की निशानी मानी जाती है. आधे घंटे बाद राहुल और प्रियंका गांधी पहुंचे, राहुल और अखिलेश के गले मिलते ही यह साफ हो गया कि अब एक बार टूटने के बाद इंडिया गठबंधन फिर आकार ले रहा है. राहुल और अखिलेश के जयजयकार के नारों के दौरान भीमराव आंबेडकर की जय के भी नारे लगे जिस से जाहिर है कि बड़ी तादाद में दलित भी इस सभा में आए थे.
अखिलेश यादव ने माहौल देखते कहा, बाबा साहब के जिन सपनों को भाजपा ने बर्बाद किया है उन्हें पूरा करने के लिए हमें एक कसम खानी होगी. बीजेपी हटाओ, देश बचाओ, संकट मिटाओ. भाजपा ने दलितों पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को वह सम्मान नहीं दिया है जिस के कि वे हकदार हैं. गौरतलब है कि अखिलेश यादव का पूरा फोकस पीडीए यानी पिछड़े दलितों और अल्पसंख्यकों पर है जिस का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के पास है. इसलिए दोनों के बीच सहमति इस बात पर बनी है कि उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 17 पर कांग्रेस लड़ेगी और बाकी 63 पर सपा और इंडिया ब्लौक के दूसरे सहयोगी भाजपा को टक्कर देंगे.
वोट शेयरिंग होगी क्या
बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के एक बार फिर पलटी मारने के बाद इंडिया गठबंधन बिखरता दिखाई दे रहा था. रालोद मुखिया जयंत चौधरी के भी भगवा गैंग ज्वाइन कर लेने के बाद हर कोई विपक्षी एकता की तरफ से निराश हो चला था लेकिन जिस तेजी से इंडिया गठबंधन में सीट शेयरिंग पर सहमति बन रही है वह बताती है कि जो होना था वह हो चुका है और गठबंधन छोड़ कर जो दल और नेता भाजपा के साथ गए हैं वे न केवल अपनी जमीन खो चुके हैं बल्कि उन का आत्मविश्वास और पौराणिकवादियों से जूझने का जज्बा भी ध्वस्त हो चुका है.
उत्तर प्रदेश के साथ साथ दिल्ली में भी सीटों का फार्मूला तय हो चुका है जिस के तहत आप 4 और कांग्रेस 3 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. दोनों ही जगह कांग्रेस को उस की राष्ट्रीय कद काठी के लिहाज से सम्मानजनक सीटें मिली हैं. बिहार में कचरा छंटने के बाद राजद और कांग्रेस खुद को ज्यादा कम्फर्ट महसूस कर रहे हैं. अब लोगों और भाजपा की निगाहें खासतौर से महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल पर है जहां सीटों का पेंच अभी भी फंसा है.
ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे भी बेहतर समझ रहे हैं कि अब वक्त कम बचा है. भाजपा लगातार आक्रामक हो रही है और तरहतरह से दबाब भी बना रही है. अगर उस से बचना है तो सीटों की जिद तो उन्हें छोड़ना पड़ेगी जिस से फायदे की तो कोई गारंटी नहीं लेकिन जो तयशुदा नुकसान दिख रहे हैं उन की भरपाई फिर किसी टोटके से नहीं होने वाली.
सीट शेयरिंग के मामले में अब कांग्रेस भी उदारता से काम ले रही है. यही मजबूरी क्षेत्रीय दलों की हो चली है. अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव ने नफेनुकसान का हिसाबकिताब वक्त पर लगा लिया इसलिए अब बेफिक्री से चुनाव प्रचार कर रहे हैं ताकि सीट की तरह वोट शेयरिंग पर भी काम किया जा सके. इसी तरह ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे भी जल्द कोई फार्मूला निकाल लें तो बात किसी हैरानी की नहीं होगी.
पर लाख टके का सवाल इन नेताओं के सामने यह मुंह बाए खड़ा है कि वोट शेयरिंग का फार्मूला कहां मिलेगा. जाहिर है अब लोकतंत्र की लड़ाई धर्म से है और सीधे तौर पर कहें तो सवर्ण बनाम गैरसवर्ण है जिस के बारे में आगरा में ही अखिलेश यादव की बातों को विस्तार देते राहुल गांधी ने कहा था कि देश में पिछड़ों दलितों और अल्पसंख्यकों की आबादी 88 फीसदी है लेकिन देश की बड़ीबड़ी कम्पनियों के मैनेजमेंट में इन वर्गों के लोग आप को नहीं मिलेंगे. ये लोग आप को मनरेगा कांट्रैक्ट लेबर की लिस्ट में मिलेंगे. हमें यही बदलना है और यही सामाजिक न्याय का मतलब है.
लेकिन धर्मांधता का इलाज क्या
पौराणिक वर्ण व्यवस्था की इस से आसान व्याख्या कोई और हो भी नहीं सकती लेकिन इस बात को लोगों के गले उतारना या उन्हें वोट देने की हद तक सहमत करना भी आसान काम नहीं है. भाजपा कोई 15 फीसदी सवर्ण वोटों के भरोसे ही नहीं इतरा रही बल्कि धर्म के नाम पर और मुसलमानों के खौफ के नाम पर उसे पिछले 2 लोकसभा चुनाव में इफरात से दलितों आदिवासियों और पिछड़ों के भी वोट मिले हैं. इसलिए वह इन दोनों मुद्दों को नहीं छोड़ रही.
वह लगातार मंदिरों की ताबड़तोड़ राजनीति कर रही है. जब अखिलेश और राहुल लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की दुहाई आगरा में दे रहे थे ठीक उसी वक्त में नरेंद्र मोदी द्वारिका के समुद्र में डुबकी लगाते एक दिव्य अनुभव ले रहे थे. उन के हाथ में मोर पंख और साथ में कैमरा मेन और सिक्योरटी गार्ड भी थे. ईश्वर में अनास्था और अविश्वास का इस से बड़ा उदाहरण कोई और हो भी नहीं सकता कि आप सुरक्षा के लिए बजाय उपर वाले के नीचे वालों की मदद लें.
यही धर्मांधता उन्होंने देशभर में फैला रखी है. सवर्ण तो इस से कोई समझौता करने को तैयार नहीं हैं जिन्हें न महंगाई सताती है, न बेरोजगारी और न ही भ्रष्टाचार से कोई सरोकार है. मुख्यधारा पर काबिज यह वर्ग एक जूनून के तहत जी रहा है जो आगे चल कर उसी के लिए घातक साबित होगा लेकिन वह धर्म और उस की राजनीति ही क्या जो लोगों को उन के भविष्य के बारे में सोचने दे. वह तो एक पूरे वर्ग का वर्तमान नष्ट करती है जिस से भविष्य तो एडवांस में चौपट हो जाता है.
इस खेल में भाजपा इतनी अंधी हो चुकी है कि नीतीश कुमार और जयंत चौधरियों जैसों को भी हाथोंहाथ ले रही है जिन के अपना कोई ईमान धर्म नहीं. भगवा गैंग इस हकीकत को भी समझती है कि नीतीश या जयंत का जो थोड़ा बहुत वोट बैंक है उस का पूरा हिस्सा उसे नहीं मिलने वाला लेकिन जो भी मिले वह उस से भी नहीं चूक रही.
हैरानी या अफसोस की बात यह है कि भाजपा का कोर वोटर भी इन भगोड़ों से परहेज नहीं करता क्योंकि उसे मालूम है कि किस छलकपट से महाभारत का युद्ध पांडवों ने जीता था. कर्ण, भीष्म, अश्वथामा और अभिमन्यु जैसे महारथी उस ने साजिश रचते ही मारे थे. अगर यही धर्म है तो इस की हकीकत आम लोगों तक पहुंचाना न राहुल गांधी के बस की बात है न अखिलेश यादव के और न ही ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल के बूते की बात है.
लेकिन यह लोकतंत्र है जिस में आज नहीं तो कल जनता होश में आती ही है पर तब तक उस का और देश का जो नुकसान हो चुका होता है. उस की भरपाई में सालोंसाल लग जाते हैं. क्योंकि इस दौरान सामाजिक तानाबाना भी तहसनहस हो चुका होता है. ठीक वैसे ही जैसे मुगलों के आने और उन से भी पहले हुआ करता था.
मौजूदा समाज के एक बड़े वर्ग की पौराणिक मानसिकता लाइलाज नहीं है लेकिन यह मर्ज अकसर एडवांस स्टेज पर आ कर ही ठीक होता है. यह अनुभव या सबक भी इतिहास से ही मिलता है. यह जरुर देश का सौभाग्य होगा कि लोग वक्त रहते संभल और समझ जाएं नहीं तो हालफिलहाल उन का कुछ बिगड़ता नहीं दिख रहा.
रही बात इंडिया गठबंधन की तो उसे इस हकीकत से लोगों को रूबरू कराना होगा लेकिन यह जिम्मेदारी जिस मीडिया और बुद्धिजीवियों की है उन में से अधिकतर नीलाम हो चुके हैं या गिरवी रखा चुके हैं तो कोई क्या कर लेगा. यह लोकसभा चुनाव सीटों से ज्यादा वोट फीसदी के लिहाज से ज्यादा अहम साबित होगा जो यह भी साबित करेगा कि देश के कुल कितने फीसदी लोग वर्ण व्यवस्था की वापसी चाहते हैं और कितने फीसदी खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं.