एक साल पहले नई दिल्ली को अपनी गिरफ्त में लेने वाली जहरीली धुंध राजधानी में फिर लौट आई है और इस बार यह पहले से कहीं बदतर है. इस साल यह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय सुरक्षित स्तर से करीब 30 गुना ज्यादा तक बढ़ गई थी, जो हर दिन दो पैकेट से अधिक सिगरेट पीने के बराबर माना गया है.
आलम यह था कि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन को ‘पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी’ घोषित करनी पड़ी. मौजूदा धुंध वायु प्रदूषण का सबसे खतरनाक स्तर है और द लैंसेट पत्रिका में छपी खबर की मानें, तो साल 2015 में भारत में 25 लाख लोगों की मौत की वजह यही धुंध थी.
आज दिल्ली अगर दुनिया की 20 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में शुमार है या ‘गैस चैंबर’ कही जाने लगी है, तो इसकी असल वजह पड़ोसी राज्यों में पराली जलाना है. ये किसान इतने गरीब हैं कि वे कृषि अपशिष्टों का निपटारा कम प्रदूषित तरीके से नहीं कर पाते. मगर पराली का इस्तेमाल खाद या बायो-गैस बनाने में करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित और मदद करने की बजाय राज्य सरकारें पराली जलाने पर ही प्रतिबंध लगा देती हैं, जिस पर किसान स्वाभाविक रूप से ज्यादा ध्यान नहीं देते.
जिन लोगों के पास उपाय है, वे तो घरों में ‘एयर प्यूरीफायर’ और बाहर निकलने पर ‘मास्क’ का इस्तेमाल कर सकते हैं, पर धुंध में गरीबों को कहीं से कोई राहत नहीं मिलती. दिवाली से ऐन पहले भारत की सर्वोच्च अदालत ने पटाखों पर प्रतिबंध जरूर लगा दिया था, पर इससे तात्कालिक राहत मिली. ऐसे में, जरूरी है कि वायु प्रदूषण के संकट से निपटने के लिए ठोस प्रयास किए जाएं. कामचलाऊ उपायों की खिचड़ी कारगर नहीं रहने वाली.
हांफ रहे लाखों भारतीय चाहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सख्त नेतृत्व का परिचय दें, जिसका वायदा उन्होंने 2014 में चुनाव के वक्त किया था. इस मामले में वह एक ऐसा ‘इमरजेंसी एक्शन प्लान’ बना सकते हैं और उन्हें बनाना भी चाहिए, जिसमें ऐसे फंड की व्यवस्था हो, जो राज्य सरकारों के लिए हो. इस पैसे से राज्य सरकारें किसानों को जल्द ही उन तरीकों को अपनाने में मदद करें, जिनकी मदद से पराली का कम प्रदूषित निपटान संभव हो सके.