पूर्वी चंपारण में जिला मुख्यालय मोतिहारी शहर के बरियारपुर स्थित एक बालिका गृह से 28 अप्रैल को 9 लड़कियां फरार हो गईं. घटना का खुलासा हुआ तो हड़कंप मच गया. एसपी कांतेश कुमार मिश्र के निर्देश पर त्वरित कार्रवाई करते हुए पुलिस ने दो बच्चियों को बरामद कर लिया मगर 7 अभी भी लापता हैं, जिन की तलाश जारी है. एक साथ 9 बच्चियों के बालिका गृह से फरार होने के बाद बालिका गृह की सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है. निश्चित ही ये बच्चियां उत्पीड़न से परेशान हो कर यहां से भागीं.

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पिछले साल दिसंबर में छपरा में बालिका गृह की खिड़की तोड़ कर 5 लड़कियां भाग गई थीं. इस से पहले नवंबर में मुरादाबाद के सिविल लाइन थाना क्षेत्र के एक बालिका गृह से 3 किशोरियां भाग निकली थीं. 9 महीने पहले बोधगया में बालिका गृह से एक नाबालिग लड़की फरार हो गई थी. वह करीब 13 दिनों से इस बालिका गृह में रह रही थी. किशोर गृहों, बालिकागृहों और अनाथाश्रमों से बच्चों के भाग जाने की खबरें लगभग हर दिन अखबारों के किसी न किसी कोने में होती हैं जिन पर सरसरी निगाह डाल कर हम पन्ना पलट देते हैं.

कहां सुरक्षित बालिकाएं

बात 2012 की है. इलाहाबाद जिसे योगी सरकार में अब प्रयागराज कहा जाता है, यहां के सरकारी शिशुगृह शिवकुटी से एक 7 साल की बच्ची को एक युगल ने गोद लिया था. यह बच्ची जब इस युगल के साथ उन के घर जाने के लिए तैयार हुई तो उस के चंद कपड़े भी युगल के सुपुर्द कर दिए गए. घर पहुंच कर जब मांबाप ने बच्ची के कपड़े खोल कर देखे तो उन्हें उस पर खून के धब्बे दिखाई दिए. शक होने पर उन्होंने बच्ची से प्यार से पूछताछ की कि उस के साथ आश्रम में क्या होता था? थोड़ा सा प्यार पा कर बच्ची हिलकने लगी और उस ने रोरो कर एक भयावह कहानी बयां की, जिसे सुन कर उस को गोद लेने वाले मांबाप अवाक रह गए. इस बच्ची से शिशुगृह का चौकीदार विद्याभूषण ओझा अकसर बलात्कार करता था.

वह युगल सीधे शिशुगृह की सुपरिंटेंडेंट उर्मिला गुप्ता के पास पहुंचा. उर्मिला गुप्ता को जब उन्होंने सारी बात बताई तो उस का रिएक्शन कुछ ख़ास नहीं था. जाहिर था कि वहां क्या चल रहा है इस बात की उसे पूरी जानकारी थी. मगर वह इतना समझ गई कि यदि उस ने खुद कोई कदम नहीं उठाया तो वह दंपत्ति पुलिस और मीडिया तक जा सकता है.

लिहाजा उर्मिला गुप्ता को मजबूरीवश पूरी बात इलाहाबाद के पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारी के संज्ञान में लानी पड़ी, जिस के बाद हुई कार्रवाई में चौकीदार विद्याभूषण ओझा को गिरफ्तार कर पूछताछ की गई. इस पूछताछ में उजागर हुआ कि वह उस गृह की कई बच्चियों के साथ बलात्कार करता है. उस के साथ रसोइया भी इस कुकर्म में शामिल रहता है.

हैरत की बात यह कि 50 वर्षीय वह चौकीदार उस शिशुगृह में पिछले 6 सालों से तैनात था. सुपरिंटेंडेंट उर्मिला गुप्ता अकसर उस के साथ अनेक बच्चियों को इलाज आदि के लिए सरकारी अस्पताल भी भेजती थी. यह घटना थर्रा देने वाली थी.

चौकीदार विद्याभूषण ओझा ने 7 से 9 वर्ष आयु वर्ग की जिन बच्चियों का बलात्कार किया उन में से 2 बच्चियां मानसिक रोगी थीं. इस मामले में 11 अप्रैल 2012 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इलाहाबाद के पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारी को तलब किया और पूरे कांड की जांच के लिए एक कमेटी गठित की. इस कमिटी ने जब शिशुगृह में जा कर बच्चों से बात की तो चौकीदार और रसोइये की घिनौनी हरकतों की परतें उधड़ती चली गईं.

हैरत की बात है कि इस शिशुगृह में इस चौकीदार की ड्यूटी सुबह 6 बजे से दोपहर 2 बजे तक होती थी. उस की हिम्मत की इन्तहा यह थी कि वह दिन के उजाले में बच्चियों के साथ बलात्कार करता रहा और बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदार सुपरिंटेंडेंट से ले कर पूरा स्टाफ आंखें मूंदे बैठा रहा.

इस घटना के खुलासे के बाद इस शिशुगृह में तैनात सभी कर्मचारियों को निलंबित किया गया और सुपरिंटेंडेंट उर्मिला गुप्ता को गिरफ्तार कर चौकीदार और रसोइये के साथ नैनी जेल भेजा गया. इन के साथ बाल गृह की एक आया रमापति को भी जेल भेजा गया, जिस को चौकीदार और रसोइये के कुकृत्यों की पूरी जानकारी थी. चौकीदार ओझा की ड्यूटी इस आया और रसोइये के साथ दोपहर का खाना तैयार करने के लिए किचन में लगाई जाती थी, जहां एक कोने में ये बच्चियों को ले जा कर उन से दुराचार करता था.

सुनने वाला कौन

मासूम बच्चियों के साथ शिशु गृहों और किशोर गृहों के कर्मचारियों द्वारा बलात्कार की घटना दिल दहला देने वाली है. अधिकांश जगहों पर कमोबेश यही हालत है. इस से इनकार नहीं किया जा सकता है. देश में शिशुगृहों और किशोरगृहों से लड़कियों के भाग निकलने की घटनाएं आयदिन होती हैं. जाहिर है कि बच्चियां न तो इन शिशु गृहों और किशोर गृहों में सुरक्षित हैं और न खुश हैं.

जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत दर्ज नीतिनियमों का कोई पालन किसी राजकीय गृह में नहीं हो रहा है. न तो बच्चों की कोई उचित शिक्षा हो रही है, न उन की काउंसलिंग. यही वजहें हैं कि बहुत सारे अपराधी बच्चे भी जो सजा काट कर समाज में वापस जाते हैं, पुन: अपराध के दलदल में समा जाते हैं.

काउंसलिंग और पुनर्वास के अभाव में वेश्यालय, कारखानों, खदानों, मिलों आदि से छुड़ाए गए बच्चे, इन राजकीय गृहों की यातनाओं से तंग आ कर मौका पाते ही यहां से भाग निकलते हैं और फिर उन्हीं जगहों पर जा कर काम करने लगते हैं. वजह एक ही है. इन गृहों में रक्षक ही भक्षक बन चुके हैं. नन्हींनन्हीं बच्चियां यहां दुराचार का शिकार हो रही हैं. उन की चीखें सुनने वाला कोई नहीं है.

बच्चे मिट्टी का लोंदा होते हैं. उन्हें जिस सांचे में ढालें, उसी में ढलते चले जाते हैं. बड़े खुशनसीब होते हैं वे बच्चे जिन्हें मांबाप का भरपूर लाड़प्यार, अच्छी शिक्षा और स्वस्थ माहौल मिलता है, लेकिन बड़े ही अभागे हैं वे बच्चे, जिन के बचपन को किसी शाप ने डस लिया है, जो यतीम हैं, लावारिस हैं, अपने परिवार से बिछड़ गए हैं या अपराध की दलदल से निकाले गए हैं और सरकारी बाल गृहों, यतीम गृहों या सम्प्रेक्षण गृहों में यातनापूर्ण जीवन जी रहे हैं, छटपटा रहे हैं, तिलतिल मर रहे हैं. जहां न मां की गोद है, न बाप का प्यार, न सुरक्षा न अपनापन, अगर कुछ है तो बस सरकारी कर्मचारियों का गुस्सा, आतंक, पिटाई, भूख, नशा, बीमारी, बलात्कार और मौत.

गृहों का संचालन

गौरतलब है कि भिन्नभिन्न आयु वर्ग और भिन्न परिस्थितियों से आए बच्चों के लिए हर राज्य सरकार चार प्रकार के गृहों का संचालन करती है –

1. औब्जरवेशन होम्स

2. स्पैशल होम्स

3. बाल गृह

4. शेल्टर होम्स

औब्जरवेशन होम्स में उन बच्चों को रखा जाता है, जिन्हें किसी अपराध में लिप्त पाया जाता है. अदालत में जितने साल तक उन के केस की सुनवाई चलती है उतने साल ये बच्चे औब्जरवेशन होम में रहते हैं.

अदालत से उन के अपराध की सजा तय हो जाने के बाद बच्चों को औब्जरवेशन होम से स्पैशल होम में भेज दिया जाता है. जहां उन के जीवन में सुधार लाने के लिए बेहतर खानपान, व्यायाम, काउंसलिंग, शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा दिए जाने का प्रावधान जुवेनाइल एक्ट में दिया गया है.

बाल गृहों में वे बच्चे रखे जाते हैं, जिन्हें बंधुआ मजदूरी, वेश्यावृत्ति के अड्डों, मिलों, कारखानों, खदानों इत्यादि से छुड़ाया जाता है. इनमें शिशु और किशोर बालक बालिकाएं आती हैं.

शेल्टर होम्स वे जगहें हैं, जहां बच्चे सर्वप्रथम ला कर कुछ दिनों के लिए बच्चे रखे जाते हैं.

नारकीय और यातनापूर्ण जीवन

इन चारों प्रकार के गृहों में सरकार की तरफ से उन सारी सुविधाओं का होना आवश्यक है जिस से बच्चे का पूर्ण विकास हो सके, उन को बेहतर शिक्षा दी जा सके और पर्याप्त काउंसलिंग के जरिए उन के जीवन में ऐसा सुधार लाया जाए ताकि जब वे यहां अपना वक्त बिता कर वापस अपने समाज और परिवार में जाएं तो एक अच्छे नागरिक के रूप में आगे का सफर तय कर सकें, लेकिन अफसोस, कि ‘सुधार गृहों’ के नाम पर चल रहे देश के तमाम सरकारी गृहों में जीवन काट रहे बच्चों के जीवन में सुधार लाने जैसी कोई गतिविधि कहीं नहीं हो रही है, अलबत्ता इन सरकारी गृहों का निरीक्षण करने पर पता चलता है कि यहां बच्चों का जीवन कितना नारकीय और यातनापूर्ण है.

सरकारी घरों में बच्चों को भरपेट भोजन न मिलना, कोई गलती हो जाने पर उन्हें भूखा रखना, उन की बीमारी में उन्हें उचित इलाज न मिलना, उन्हें खेलकूद की सुविधाएं उपलब्ध न होना, छोटीछोटी बातों पर उन को बुरी तरह पीटना जैसे तमाम अमानवीय और क्रूर व्यवहार बहुत आम हैं.

सरकारी अनाथाश्रमों एवं किशोर गृहों में नन्हें मासूम बच्चों की दयनीय दशा और उन के साथ सरकारी कर्मचारियों का बर्बर सलूक बताता है कि ‘सुधार गृहों’ का बोर्ड लगा कर चल रहे इन जेल सरीखे आश्रम ‘यातना गृहों’ में तब्दील हो चुके हैं जहां बच्चों के साथ मारपीट से ले कर बलात्कार तक हो रहे हैं, लेकिन मासूमों की चीखें इन चारदीवारियों से बाहर नहीं आ पातीं. यही वजह है कि सुधार गृहों की यातनाओं से तंग आ कर बच्चों के वहां से भाग निकलने की खबरें आएदिन अखबार की सुर्खियां बनती हैं.

राजकीय गृहों में रहने वाले बच्चों के शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न की तरफ सर्वप्रथम शीला वारसे नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता का ध्यान गया था. पश्चिम बंगाल और खासतौर पर कोलकाता की जेलों में बने बाल सुधार गृहों में बच्चों की दयनीय हालत देख कर वे हैरान थीं. यहां उन बच्चों की हालत बेहद नाजुक थी जो मानसिक रूप से अस्वस्थ थे अथवा मिर्गी के रोगी थे. इन सभी बच्चों को स्वस्थ बच्चों के साथ ही रखा जाता था. इन की देखभाल के लिए किसी भी मानसिक चिकित्सक की कोई व्यवस्था नहीं थी, नतीजतन वार्ड के स्वस्थ बच्चे और कभी कभी जेलकर्मी इन मानसिक रोगी बच्चों की हरकतों से खीज कर उन्हें बुरी तरह मारते पीटते थे और उन्हें बांध कर भूखा रखते थे. शीला वारसे ने 27 जनवरी 1989 को तत्कालीन चीफ जस्टिस औफ इंडिया आर एस पाठक को एक संवेदनशील पत्र लिख कर उन का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था.

शीला वारसे के पत्र को चीफ जस्टिस औफ इंडिया ने एक जनहित याचिका के रूप में लिया और मामला सुनवाई के लिए उच्चतम न्यायालय में आया. लम्बी चली सुनवाई के बाद उच्चतम न्यायालय में जस्टिस बी पी जीवन रेड्डी एवं जस्टिस एन के मुखर्जी की बेंच ने 5 सितम्बर 1995 को देश के तमाम उच्च न्यायालयों को आदेशित किया कि वे सरकारी अनाथाश्रमों, बाल एवं किशोर सुधार गृहों में रह रहे बच्चों और किशोरों के उचित संरक्षण और उचित सुविधाएं देने के लिए राज्य सरकारों को आदेश पारित करें.

क्या कहते हैं नियम

बच्चों की स्थिति को कैसे सुधारा जाए, उन की देखभाल, पोषण, शिक्षा और सुरक्षा कैसे की जाए, उन की काउंसलिंग किस प्रकार हो तथा उन का पुनर्वास कैसे कराया जाए इस को देखने और आदेश पारित करने की जिम्मेदारी उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालयों को सौंपी गई. उच्च न्यायालयों में यह मामला क्रिमिनल मिसलेनियस पिटीशन नंबर 505/1994 इन रिट पिटीशन (क्रिमिनल न. 237/1989 शीला बारसे बनाम यूनियन औफ इंडिया) के तौर पर दर्ज है.

अदालतों के संज्ञान में आने के बाद कई राज्यों ने सुधार गृहों के संबंध में नए कानून भी बनाए, लेकिन वर्तमान समय में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 ही सब से ज्यादा मान्य है, जिसमें अनाथ या अपराधी बच्चों की देखभाल, सुरक्षा, पुनर्वास इत्यादि के विषय में कुछ नियम तय हैं, जैसे –

प्रत्येक बच्चे के विकास के लिए 40 स्क्वायर फीट स्पेस का होना सुनिश्चित किया गया है. इस के अतिरिक्त सरकारी गृहों में प्रति 25 बच्चों के पीछे दो डोरमेट्रीज, दो कक्षाएं, एक चिकित्सा कक्ष, एक किचेन, एक खाने का कमरा, एक स्टोर रूम, एक मनोरंजन कक्ष, एक लाइब्रेरी, 5 बाथरूम, 8 शौचालय, एक सुप्रिटेंडेंट का औफिस, एक काउंसलिंग रूम, एक वर्कशौप रूम, सुप्रिटेंडेंट का आवास, जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड या वेलफेयर कमेटी के लिए एक औफिस एवं एक खेल का मैदान होना आवश्यक है.

इन सभी जरूरतों के लिए एक सरकारी गृह के पास कम से कम 8495 स्क्वायर फीट की जगह होनी जरूरी है. लेकिन अधिकांश राज्य सरकारों के पास और खासतौर पर उत्तर प्रदेश सरकार के पास इन बच्चों को रखने के लिए अपनी इमारतें तक नहीं हैं. तमाम राजकीय गृह किराए के छोटेछोटे घरों में चलाए जा रहे हैं. राज्य में ऐसे सुधार गृह गिनती के हैं, जिन में बच्चों के खेलने के लिए खेल के मैदान हों. हालत इतनी बदत्तर है कि छोटेछोटे चारपांच कमरों में 40-40 से 50-50 और कहींकहीं तो 100-100 बच्चे भेड़ बकरियों की तरह रहने के लिए मजबूर हैं.

देश के विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों ने अनाथाश्रमों एवं सुधार गृहों में रह रहे बच्चों के संबंध में समयसमय पर राज्य सरकारों को कई दिशानिर्देश भी दिए हैं, लेकिन सरकार द्वारा बच्चों के उद्धार के लिए कोई खास कदम नहीं उठाए गए हैं, उल्टे सरकारों ने इन बच्चों को संभालने की अपनी जिम्मेदारियों को स्वयं सेवी संस्थाओं की तरफ खिसका दिया है, जो अब धन कमाने और बच्चों के उत्पीड़न के बड़ेबड़े अड्डे बन चुके हैं.

प्रयागराज में शिवकुटी का शिशुगृह हो या मम्फोर्डगंज का बालिका आश्रम, सभी जगह एक जैसा हाल है. 11 से 18 वर्ष तक की बालिकाओं के लिए चल रहे राजकीय बाल गृह में 40 बालिकाओं के रहने के लिए मात्र 4 छोटे छोटे कमरे हैं. एक किचन, दो शौचालय, दो स्नानागार, एक छोटा बरामदा, जिस में सुप्रिटेंडेंट का औफिस चलता है. शौचालयों की साफसफाई इन्हीं बच्चियों से करवाई जाती है. दोदो, तीनतीन बच्चियां एक ही तख्त पर सोती हैं. न तो यहां खेलने का मैदान था और न मनोरंजन का अन्य कोई साधन.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरे देश देश के बाल सुधार गृहों की स्थिति के अध्ययन के लिए न्यायाधीश मदन बी. लोकर की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई थी. इस न्यायिक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के सरकारी बाल सुधार गृहों में रह रहे 40 प्रतिशत “विधि विवादित बच्चे” बहुत चिंताजनक स्थिति में रहते हैं. यहां उन्हें रखने का मकसद उन में सुधार लाना है, लेकिन हमारे बाल सुधार गृहों की हालत वयस्कों के कारागारों से भी बदतर है.

किशोर न्याय अधिनियम के कई सारे प्रावधान जैसे सामुदायिक सेवा, परामर्श केंद्र और किशोरों की सजा से संबंधित अन्य प्रावधान जमीन पर लागू होने के बजाय अभी भी कागजों पर ही हैं. सुधार और आश्रय गृहों में रहने वाले बच्चे खासकर लड़कियां बिलकुल सुरक्षित नही हैं. सब से चिंताजनक बात यह है कि गृहों में बच्चियों के साथ बलात्कार, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के ज्यादातर मामलों में वहां के कर्मचारी और अधिकारी ही शामिल होते हैं. और क्या खबर कि पैसे की हवस में इन बच्चियों को रात के अंधेरे में देह के भूखे भेड़ियों के पास भी भेजा जाता हो.

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