चेतनाजी सुबह से ही अनमनी सी थीं. कितनी खुश हो कर इतने दिनों से अपने बेटे के आने की तैयारियों में व्यस्त थीं. उन का बेटा विवान बहुत सालों पहले अमेरिका में जा कर रहने लगा था. एक बेटी थी नित्या, उस की भी शादी हो चुकी थी. जब से पता चला कि उन का बेटा विवान इतने सालों बाद अमेरिका से भारत आ रहा है, तब से उस की पसंद के बेसन के लड्डू, मठरी, उस की पसंद का कैरी का अचार, और भी न जाने क्याक्या बना रही थीं. भले शरीर साथ नहीं देता, पर बेटे के मोह में न जाने कहां से इतनी ताकत आ गई थी.
महेशजी, उन के पति उन को इतना उत्साहित और व्यस्त देख चिढ़ कर कहते भी,"मैं जब तुम से कुछ बनाने को कहता हूं तो कहती हो मेरे घुटनों में दर्द है. अब कहां से इतनी ताकत आ गई?"
चेतनाजी बड़बड़ करती बोलीं,"अरे, अपनी उम्र और सेहत को तो देखो, जबान को थोड़ा लगाम दो. इस उम्र में सादा खाना ही खाना चाहिए."
पर आज सुबह उन के बेटे विवान का फोन आया,"पापा, मैं नहीं आ पाऊंगा. इतनी छुट्टियां नहीं मिल रहीं और जो थोड़ी बची हैं उस में बच्चे यहीं घूमना चाहते हैं."
अपने बेटे की बात सुन महेशजी ने कहा भी,"बेटा, तुम्हारी मां तो कब से तुम्हारा इंतजार कर रही है, उस को दुख होगा."
"ओह पापा, आप तो समझदार हो न, मां को समझा दो, अगली बार जरूर आ जाऊंगा," कहते हुए विवान ने फोन रख दिया.
इधर महेशजी खुद से ही बोले,'हां बेटा, मैं तो समझदार ही हूं, इसलिए तेरी मां को मना करता हूं. पर वह बेवकूफ पता नहीं कब अपना मोह छोड़ेगी, कब अक्ल आएगी उसे...'
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