पूरी दुनिया में धर्म का असर साफतौर पर दिखने लगा है. इस का सब से बड़ा कारण हताशा है. तमाम उदाहरण ऐसे हैं जिन से पता चलता है कि हताशा में घिरा इंसान धर्म की शरण में चला जाता है. इस सदी का सब से बड़ा उदाहरण कोरोना के रूप में सामने आया, जिस में पूरी दुनिया के लोग फंसे हुए थे. इस से बाहर निकलने का कोई रास्ता दिख नहीं रहा था. भारत में थाली बजाने, दीपक जलाने, ताली बजाने जैसे कामों के साथ ‘गो कोरोना गो’ जैसा माहौल बनाया गया. हताशा का माहौल यह था कि गिलोय जैसे खरपतवार का इतना प्रयोग हुआ कि बाद में इस के प्रभाव से पेट की तमाम बीमारियां हो गईं.
रामदेव ने अपनी एक दवा पेश की जिस के बारे में कहा कि यह उन को भी लाभ देगी जिन को कोरोना हो गया है और उन को भी कोरोना से बचाएगी जिन को कोरोना नहीं हुआ है. दुनिया में कोई ऐसी दवा नहीं होती जो बचाव और इलाज दोनो करे. बुखार की दवा इलाज कर सकती है लेकिन लक्षण दिखने के पहले इस का प्रयोग किया जाए तो वह बुखार को रोक नहीं सकती. बीमारी को रोकने के लिए अलग दवा का प्रयोग होता है और इलाज के लिए दूसरी दवा का प्रयोग होता है. रामदेव ने अपनी दवा की खासीयत बताई कि वह बचाव और इलाज दोनों करेगी. हताशा में फंसे लोगों ने इस पर यकीन भी कर लिया.
कोरोना के बाद कई तरह के शोध बताते हैं कि कोरोना की हताशा ने लोगों के मन में धर्म का प्रभाव बढ़ाने का काम किया. चर्च में लोग कोविड-19 प्रतिबंधों के साथ प्रार्थना कर रहे थे. कैम्ब्रिज के नेतृत्व वाले 2 अध्ययनों से पता चलता है कि गैरधार्मिक लोगों की तुलना में धार्मिक लोगों में मनोवैज्ञानिक संकट कम हो गया था. वर्किंगपेपर के रूप में जारी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक नए अध्ययन के अनुसार, 2020 और 2021 में यूके के कोविड-19 लौकडाउन के दौरान धार्मिक आस्था वाले लोगों ने धर्मनिरपेक्ष लोगों की तुलना में कम स्तर की नाखुशी और तनाव का अनुभव किया.
कैम्ब्रिज के नेतृत्व वाले शोध से पता चलता है कि जो लोग व्यक्तिगत रूप से कोविड संक्रमण का अनुभव करने के बाद बिगड़ते मानसिक स्वास्थ्य में भी धार्मिक विश्वास को बनाए रहे उन की हालत में कुछ हद तक सुधार हुआ था. यह अध्ययन 2021 की शुरुआत के दौरान अमेरिकी लोगों पर हुआ था.
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि कुल मिला कर इन अध्ययनों से पता चलता है कि वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल जैसे संकट के खिलाफ धर्म ने एक ढाल के रूप में कार्य किया. कैम्ब्रिज के भूमि अर्थव्यवस्था विभाग के प्रोफैसर शौन लारकाम और नवीनतम अध्ययन के सह लेखक ने कहा, “लोग पारिवारिक पृष्ठभूमि, जन्मजात गुणों या नए या मौजूदा संघर्षों से निबटने के कारण धार्मिक बन सकते हैं.
“कोविड-19 महामारी एक असाधारण घटना थी जो लगभग एक ही समय में सभी को प्रभावित कर रही थी, इसलिए हम पूरे समाज के नकारात्मक प्रभाव का अनुमान लगा सकते हैं. इस को मापने का एक अवसर मिला कि कुछ लोगों के लिए किसी संकट से निबटने में धर्म महत्त्वपूर्ण था.”
लारकाम और उन के कैम्ब्रिज सहयोगियों प्रोफैसर श्रेया अय्यर और डा. पोवेन शी ने पहले 2 राष्ट्रीय लौकडाउन के दौरान यूके में 3,884 लोगों से एकत्र किए गए सर्वेक्षण डेटा का विश्लेषण किया और इस की तुलना महामारी से पहले डेटा से की. उन्होंने पाया कि जबकि लौकडाउन सार्वभौमिक नाखुशी में वृद्धि से जुड़ा था, उन लोगों के लिए दुखी महसूस करने में औसत वृद्धि 29 फीसदी कम थी जो खुद को एक धर्म से संबंधित बताते थे.
कोरोना के दौरान पूजास्थल भले ही बंद थे या सीमित कर दिए गए थे लेकिन लोगों की धर्म के प्रति भावना बढ़ी थी. उस का कारण यह था कि चारों तरफ हताशा का माहौल था. लोगों को लग रहा था कि धर्म ही इस से बाहर निकाल सकता है. कोरोना के खत्म होने के बाद भी लौकडाउन का प्रभाव तमाम तरह की परेशानियां ले कर आया. इन में एक सब से बड़ी दिक्कत हो रही है अचानक होने वाली मृत्यु. हार्ट की बीमारियों के कारण युवाओं में मौत की घटनाएं बढ़ रही हैं.
असफलता में फंसे लोग ज्यादा धार्मिक
भारत में इस बीच लोगों में धर्म का प्रभाव बढ़ गया. धर्म का ही प्रभाव था कि लोगों में दानपुण्य की चाहत बढ़ गई. इस के अलगअलग रूप देखने को मिले. भूखे को खाना और प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का काम माना जाता है. लोग मंदिरों के दर्शन के साथ ही साथ इन कामों में लग गए. जहां सामान्य दिनों में खानापानी बेचने का काम होता था, कोरोना में लोग मुफ्त यह काम करने लगे.
उन के मन में यह डर था कि कोरोना में जीवन रहेगा या नहीं, कुछ पता नहीं. ऐसे में सेवा कर के पुण्य कमा सकते हैं. डाक्टर, दवाएं और पैसा होते हुए भी लोगों की जान जा रही थी. इस हताशाभरे दौर में उस की आस्था ही सहारा बन रही थी. उस डर और हताशा ने धर्म के प्रति आस्था को बढ़ावा दिया. कुंडली दिखाना, हाथों की उंगली में रत्न पहनना. जादूटोना कराना ऐसे तमाम माध्यम हैं जिन के जरिए लोग अपनी हताशा से निकलने का काम करते हैं.
मंदिरों में जाने वाले ज्यादातर लोग वे हैं जो कुछ न कुछ मांगने जाते हैं. आज का युवा इतना धार्मिक इसलिए होता जा रहा है क्योंकि उस के पास नौकरी नहीं है, काम करने के लिए नहीं है. आपस में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है. पड़ोसी का बच्चा सरकारी नौकरी पा गया तो उस का अलग दबाव बढ़ जाता है. वह निराशभाव से धर्म की शरण में जाता है. तमाम मंदिर ऐसे हैं जिन के बारे में कहा जाता है कि यहां मनौती मांगने से चाहत पूरी होती है. परीक्षा पास आती है तो युवा परीक्षा पास करने की गुजारिश ले कर यहां आते हैं.
मुकदमा चल रहा हो तो लोग यहां आते हैं मुकदमे के पक्ष का फैसला अपने पक्ष में कराने के लिए. बीमार हैं तो मनौती मांगने आते हैं कि बीमारी ठीक हो जाए. हर काम की आस धर्म, पूजा, मंदिर पर टिकी होती है. जब इन को पता चलता है कि इस मंदिर के दर्शन से होगा तो वहां जाएंगे, जब किसी पूजा से काम होने वाला होगा तो वह करवाएंगे. यह बढ़ती धार्मिक आस्था के कारण ही होता है.
बड़ेबड़े अमीर लोग भी अपनी दुकान के आगे नीबूमिर्ची लगवाते हैं, जिस से उन की दुकान पर किसी की नजर न लगे. डाक्टरों के औपरेशन थिएटर में भगवान की मूर्ति या फोटो होती है. वाहनचालक अपने आगे भगवान रखते हैं जिस से कोई ऐक्सिडैंट न हो. धर्म और आस्था ने इतनी गहराई तक पैठ बना ली है कि हताशा और निराशा का इलाज कराने के लिए मैंटल हैल्थ वाले अस्पताल और डाक्टर के पास इलाज की जगह पूजापाठ और मंदिरों में जाते हैं. वे दवा की जगह अंगूठी और रत्नों में इलाज खोजने लगते हैं.
जैसेजैसे बेरोजगारी बढ़ेगी, कामधंधे नहीं होंगे, बीमारियां बढ़ेंगी, मुकदमेझगड़े होंगे, हताशा और निराशा बढ़ेगी; वैसेवैसे धर्म के प्रति आस्था की ओर लोग धकेले जाएंगे. निराशहताश लोगों को यही हल दिखाई देगा. वे मंदिरमंदिर भटकेंगे और भगवान से आशीर्वाद में नौकरी मांगेंगे.