जो चीज पुरुषों के लिए जायज ठहरा दी गई, महिलाओं के लिए उस की मनाही है. जानेमाने समाजवादी चिंतक व सांसद रहे डा. राम मनोहर लोहिया ने नारियों को जब सब से विवश दलित की कोटि में रखा था तो जरूर उन की दृष्टि में नारी जाति की परवशता का स्पष्ट खाका मौजूद रहा होगा. देश की स्वतंत्रता के समय से आज तक नारी को समान अधिकार दिलाने के लिए उन की सामाजिक दशा सुधारने की दिशा में अनगिनत आंदोलन और नारों की गूंज कभी मंद न पड़ी मगर परिणाम वही ढाक के तीन पात.

किसी भी दैनिक समाचारपत्र, टीवी चैनल, पत्रिका के पन्ने पलटिए, सब से अधिक चर्चा और खबर नारी उत्पीड़न और शोषण की ही होती है. समाज के निर्माण और उत्थान में आधे से अधिक का सतत योगदान करने वाली इस सत्ता के प्रति हमारे तथाकथित सभ्य समाज की वह कौन सी कुंठा है जिस के कारण तमाम तरह के सरकारी, गैरसरकारी प्रयासों के बाद भी आज तक नारी की दिशा में एवं उन के प्रति हमारी दृष्टि से समुचित सुधार शुरू नहीं किए जा सके हैं. आज तो उलटी गिनती शुरू हो गई है.

‘यत्र नार्यस्त पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’ जैसे थोथे व आधेअधूरे संस्कृत श्लोक का सहारा ले कर चाहे जो कह दिया जाए, असल में नारियों को जूतियों की तरह बदल देने की आदत आज भी वैसी ही है. समकालीन समाज में और तथाकथित आज के हमारे सभ्य समाज में नारियों की दशा में जो भी सकारात्मक परिवर्तन हुआ है वह आधुनिक शिक्षा के बल पर हुआ है पर आज व्हाट्सऐप संस्कृति सूई उलटी घुमा रही है.

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