इस बार के लोकसभा चुनाव प्रचार में जो हलकापन देखने में आया उसे छिछोरापन कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी. हद तो यह भी थी कि राजद नेता तेजस्वी यादव के मांसमछली खाने तक को मुद्दा बनाने की कोशिश की गई. आम लोगों की दिलचस्पी पहले से ही इस आम चुनाव में नहीं थी, ऊपर से घटिया चुनावप्रचार ने उसे और उकता कर रख दिया. पहले ही चरण के कम मतदान से विपक्ष और खासतौर से सत्तारूढ़ भाजपा सहित सभी पार्टियां कम मतदान से सकते में आ गई थीं. लिहाजा, वोटर को लुभाने और मतदान बढ़ाने के लिए क्याक्या हथकंडे व टोटके नहीं अपनाए गए, यह बहुत जल्दी भूलने वाली बात नहीं है.

भाजपा को जब समझ आ गया कि धर्म, हिंदुत्व और राममंदिर का कार्ड उम्मीद के मुताबिक नहीं चल रहा है तो उस ने बारबार मुद्दे बदले. उस के पास उपलब्धियों के नाम पर गिनाने को कुछ खास नहीं था तो इंडी गठबंधन के पास भी उसे घेरने के लिए आकर्षक मुद्दे नहीं थे. बेमन से वोट करते लोग चौकन्ने तब हुए जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यह कहना शुरू किया कि भाजपा अगर तीसरी बार सत्ता में आई तो संविधान नष्ट कर देगी.

इस से ऐसा लगा मानो जानेअनजाने में उन्होंने नरेंद्र मोदी और भाजपा की दुखती रग पर हाथ रख दिया है. जिस का न केवल अतीत बल्कि भविष्य से भी गहरा संबंध है. इस के बाद आरक्षण पर घमासान मचा. दोनों ही गठबंधन पूरे प्रचार में एकदूसरे पर आरक्षण खत्म करने और संविधान बदलने का आरोप लगाते रहे.

400 पार का नारा लगा रहे नरेंद्र मोदी की बौखलाहट तब देखने लायक थी जिन्हें एक झटके में घुटनों के बल आते बारबार यह सफाई देना पड़ी थी कि मोदी तो छोड़िए खुद बाबासाहेब आंबेडकर भी आ कर कहें तो भी कोई संविधान नहीं बदल सकता. उन्होंने कांग्रेस पर भीमराव आंबेडकर के अपमान और पीठ पर छुरा भोकने का भी आरोप लगाया और 21 मई को तो पूरे नेहरू खानदान को लपेटे में यह कहते ले लिया कि हम नहीं बल्कि ये लोग बारबार संविधान में संशोधन करते रहे हैं. बकौल मोदी, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान की पहली प्रति डस्टबिन में डाल दी थी क्योंकि उस पर धार्मिक चित्र लगे थे. इमरजैंसी के दौरान भी संविधान को डस्टबिन में डाल दिया गया था. इन आरोपों के जवाब में राहुल गांधी भी अपनी रट पर कायम रहे.

यह सब इतनी तेजी से हुआ कि गैरसवर्णों यानी आरक्षित वर्ग में खासी हलचल मच गई जिस के लिए संविधान उतना ही अहम होता है जितना कि सवर्णों के लिए रामायण और गीता होते हैं. जब एक पब्लिक मीटिंग में नरेंद्र मोदी संविधान की तुलना तमाम धर्मग्रंथों से कर बैठे तो आरक्षित वर्ग का शक और घबराहट दोनों और गहरा उठे.
अब जब सबकुछ सामने है तो तय है कि यह बहस या मुद्दा चुनाव के बाद ही खत्म नहीं हो जाने वाला. यह भी साबित हो गया कि सरकार किसी की भी हो, वह संविधान को खत्म करना तो दूर की बात है उस से बहुत ज्यादा छेड़छाड़ करने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाएगी. यह बहुत जरूरी भी था कि संविधान को ले कर दोनों दलों और गठबंधनों का रुख सार्वजनिक तौर पर सपष्ट हो कि भले ही जरूरत के मुताबिक इस में मामूली फेरबदल होता रहे लेकिन इस की नींव और बुनियादी ढांचे से कोई छेड़छाड़ नहीं की जाएगी.

संविधान को ले कर हुए आरोपप्रत्यारोपों को केवल सियासी नजरिए से देखना एक नादानी वाली बात होगी. वजह, इस ने भारतीय समाज में वो बदलाव किए हैं जिन की कल्पना भी आजादी के पहले कोई नहीं कर सकता था. लेकिन एक निराशाजनक बात जो आज भी साफसाफ नजर आती है वह यह है कि संविधान भारतीय समाज की पौराणिक मानसिकता नहीं बदल पाया. भारतीय संविधान की मिसाल दुनियाभर में दी जाती है लेकिन भारत में उतनी नहीं जितनी कि दी जानी चाहिए. मुमकिन है इस की वजह इतनी भर हो कि सवर्णों की नजर में इस दस्तावेज का गैरजरूरी होना हो और गैरसवर्णों की नजर में खुद के लिए एक रक्षाकवच जो उन के अधिकारों की हिफाजत करने के साथ समानता, स्वतंत्रता, न्याय वगैरह का अधिकार देता है.

संविधान का बनना और उस का लागू होना आसान काम नहीं था क्योंकि एक बहुत बड़ा वर्ग, जो मुख्यधारा में था, इस के विरोध में था. इस वर्ग का अंगरेजों से भी पहले समाज पर राज चलता था यानी उन की हुकूमत चलती थी. जाहिर है, यह वर्ग सनातनियों का था जिन का इकलौता मकसद आज भी देश को हिंदू राष्ट्र बनाना है. हालांकि हिंदू राष्ट्र के हिमायती और पैरोकार अब डगमगाते दिख रहे हैं लेकिन उन्होंने अपनी जिद या कोशिशें छोड़ दी हों, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं. लेकिन ऐसा कहने की बहुत वजहें हैं कि उन के पास इस के सिवा दूसरा कोई काम या मकसद है ही नहीं.

संविधान बनाने वाली टीम में तरहतरह की विचारधारा वाले लोग, मसलन कांग्रेसी, वामपंथी समाजवादी, कम्युनिस्ट और मध्यमार्गी वगैरह शामिल थे लेकिन कट्टर हिंदूवादियों ने खुद को इस से दूर रखा था.

40 के दशक में महात्मा गांधी, भीमराव आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे दर्जनों नेता विदेशों से पढ़ कर आए थे, लिहाजा उन में, अपनेअपने आइडियों से ही सही, देश को नए तरीके से गढ़ने का जज्बा था. उन के दिमाग में नए दौर की रोशनी थी. कुलजमा उन में आदमी को आदमी समझने का सलीका और तमीज थी.

जब संविधान को लिखने और संपादित करने की बात आई तो इस के केंद्र में 2 नेता ही प्रमुखता से रह गए. पहले थे डाक्टर भीमराव आंबेडकर और दूसरे जवाहरलाल नेहरू. हालांकि संविधान को तैयार करने में मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, डाक्टर राधाकृष्णन, के एम मुंशी, वल्लभभाई पटेल, राजकुमारी अमृत कौर, सी राजगोपालाचारी, जे बी कृपलानी, हंसा मेहता, बी आर राजन, अल्लादी कृष्णा स्वामी अयंगर वगैरह की भूमिकाएं भी गौण नहीं थीं लेकिन इन दोनों (आंबेडकर और नेहरू) जितनी अहम न थीं. ये दोनों विकट के प्रतिभावान, महत्त्वाकांक्षी और बदलाव के हिमायती थे. जबकि, दोनों में भारी वैचारिक और राजनीतिक मतभेद भी थे जिन्हें उन्होंने संविधान निर्माण में आड़े नहीं आने दिया.

धोतीकुरता और तिलकधारी नेताओं की भीड़ में ये दोनों अलग ही दिखते थे. ये सूटबूट वाले नेता थे जिन में फर्क यह भी था कि आंबेडकर धर्म सहित दूसरे विषयों पर रिसर्च और तर्क ज्यादा करते थे जबकि नेहरू सीधे निष्कर्ष देते थे. इस मिजाज के चलते एक वक्त में उन के भी अर्धतानाशाह हो जाने की पूरी गुंजाइश थी लेकिन वह लोकतांत्रिक और संवैधानिक दबाव ही था जिस ने उन्हें जरूरत से ज्यादा छूट नहीं दी.

अहम लड़ाई सनातनियों से थी (और है)

 

1945 आतेआते यह स्पष्ट हो चुका था कि अंगरेज भारत छोड़ देंगे लेकिन भारत को भगवान भरोसे नहीं छोड़ जाएंगे. इस के लिए भारत को एक संविधान और चुनी गई सरकार के अलावा मानवाधिकारों और कानून सहित वे तमाम गारंटियां लोगों को देनी होंगी जो यूरोपीय देशों में दी जाने लगी थीं. यानी, एक व्यवस्थित लोकतांत्रिक देश बनना होगा. तब शीर्ष भारतीय नेताओं ने अपने वैचारिक और सैद्धांतिक मतभेद त्यागते एकजुट हो कर तय किया कि जैसे भी हो आजादी ले ली जाए. ऐसा हुआ भी जिस में पाकिस्तान बनने की कहानी भी शामिल है जिस का अफसाना इतना भर है कि मुसलमान अलग देश चाहते थे लेकिन उन में हिंदुओं की तरह धार्मिक और जातिगत मतभेद तब नहीं थे.

40 का दशक दुनियाभर में उथलपुथल से भरा था. भारत में यह कुछ ज्यादा थी क्योंकि कोई भी इस बाबत आश्वस्त नहीं था कि आजादी अगर मिली तो वह बहुत ज्यादा दिनों तक कायम रह पाएगी. इस हताशा और निराशा के पीछे छिपी वजहें थीं धर्म और घोषित ब्राह्मण राज, जिस में दलितों (तब पिछड़े भी दलितों यानी शूद्रों में शुमार किए जाते थे), आदिवासियों और सवर्ण औरतों की स्थिति जानवरों व गुलामों सरीखी थी. यह स्थिति लंबे समय तक रही और कमोबेश आज भी है.

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समाज और परिवारों को अपने संविधान यानी धर्मग्रंथों, उस में भी खासतौर से मनु स्मृति, से हांकने वालों से 40 के दशक में कोई लड़ पाया था तो वे आंबेडकर और नेहरू ही थे, जिन के विचार धर्म के बारे में बहुत स्पष्ट थे. थोड़े से में भी इन के विचारों को देखें तो समझ आता है कि एक दफा अंगरेजों से लड़ कर उन के खिलाफ जनसमर्थन तैयार करना आसान काम था बनिस्बत इन देसी शासकों के.

1936 में लिखी अपनी आत्मकथा ‘टुवर्ड्स फ्रीडम’ के पेज 240-41 पर जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है, “भारत और दूसरी जगहों पर जिसे धर्म कहा जाता है कम से कम जिसे संगठित धर्म कहा जाता है उस के तमाशे ने मुझे हमेशा आतंकित किया है और मैं ने बारबार उस की भर्त्सना की है और उन से मुक्ति की बात की है. लगभग हमेशा ही उस ने वहम और प्रतिक्रिया, हठधर्मिता और कट्टरता, अंधश्रद्धा, शोषण और निहित स्वार्थी हितों को बचाए रखने की हिमायत की है.”

आंबेडकर ज्यादा आक्रामक थे

जवाहरलाल नेहरू के मुकाबले भीमराव आंबेडकर हिंदू धर्म में पसरे भेदभाव छुआछूत, शोषण और पितृसत्ता के खिलाफ ज्यादा मुखर थे. ऐसा इसलिए कि शूद्र होने के नाते उन्होंने धार्मिक और जातिगत अत्याचारों को बहुत नजदीक से देखा और भुगता भी था. उन्होंने इस ‘बीमारी’ का निदान ही नहीं, बल्कि उपचार भी किया जो संविधान की शक्ल में सामने आया भी. यह और बात है कि बीमारी कैंसर सरीखी है जो आज भी मुंहबाए खड़ी है.

अपने आखिरी दिनों में 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में आंबेडकर ने हिंदू धर्म छोड़ कर बौद्ध धर्म अपना लिया था. तब उन के साथ लगभग 5 लाख हिंदू बौद्ध हो गए थे. यह उतनी अहम बात नहीं है जितनी यह कि हिंदू धर्म और हिंदू राष्ट्र के बारे में उन की राय, चिंतन या दर्शन, कुछ भी कह लें, क्या था. बिलाशक वह आज भी प्रासंगिक और मौजूद है जिस की छाप संविधान पर दिखती भी है.

तब उन्होंने 22 प्रतिज्ञाओं की घोषणा की थी जिन के मुताबिक वे और उन के अनुयाई किसी हिंदू देवीदेवता का पूजनपाठ नहीं करेंगे; व्रत, उपवास, श्राद्धकर्म नहीं करेंगे और ब्राह्मण से किसी भी तरह का धार्मिक कर्मकांड नहीं कराएंगे वगैरहवगैरह. इस के पहले 25 दिसंबर, 1927 को उन्होंने महाराष्ट्र के कोलाबा (अब रायगढ़) में ब्राह्मणवादियों के संविधान मनुस्मृति की प्रतियां जलाते समय कहा था कि भारतीय समाज में जो कानून चल रहा है वह मनुस्मृति पर आधारित है. यह एक ब्राह्मण पुरुष सत्तात्मक भेदभाव वाला कानून है, इसे जला कर खत्म किया जाना चाहिए.

उन्होंने यह काम जानबूझ कर बाकायदा वैदिक तौरतरीकों से ही किया था. मनुस्मृति जलाने के लिए एक वेदी बनाई गई थी जिस में चंदन की लकड़ियां डाली गई थीं. वेदी के आसपास 3 बैनर लगे थे जिन पर लिखा था- ‘मनुस्मृतिदहन भूमि’, ‘छुआछूत का नाश हो’ और तीसरे पर लिखा था- ‘ब्राह्मणवाद को दफन करो’.

मनुस्मृति के पेज एकएक कर फाड़े गए थे और उन की आहुतियां ठीक वैसे ही दी गई थीं जैसे यज्ञ और हवन में हवन सामग्री की दी जाती है. कहींकहीं आज भी दलित समुदाय के लोग और संगठन 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दिवस समारोहपूर्वक मनाते हैं, जिस पर स्वाभाविक तौर पर बवाल मचता है.

इस का फर्क क्या पड़ा, यह और बात है लेकिन तब आंबेडकर ने बड़े दिलचस्प तर्क दिए थे. मसलन, गांधी ने विदेशी वस्त्रों की होली क्यों जलाई थी, न्यूयौर्क में मिस मेयो की मदर इंडिया पुस्तक को क्यों जलाया गया था, साइमन कमीशन का बहिष्कार क्यों किया गया था आदि. मनुस्मृति का दहन उस का विरोध जताने का तरीका है और मनुस्मृति को पूजने वाले जातिव्यवस्था के समर्थक हैं. महार जाति में पैदा हुए भीमराव बचपन से विभिन्न ज्यादतियों के शिकार, साक्षी और भुक्तभोगी भी थे लेकिन उन की भड़ास इस बार इसलिए फूटी थी क्योंकि एक तालाब से दलितों को पानी भरने से दबंगों ने रोका था जो उन दिनों देशभर में आएदिन की बात थी.

 

लेकिन यह भड़ास बहुत तार्किक थी. उन्होंने तब मनुस्मृति जलाने की तुलना फ़्रांस की सामाजिक क्रांति से करते हुए कहा था कि लुईस 16वें ने 24 जनवरी, 1789 को जनप्रतिनिधियों की मीटिंग बुलाई थी जिस में राजा और रानी मारे गए थे, उच्चवर्ग के लोगों को परेशान किया गया था और कुछ मारे भी गए थे. बाकी भाग गए और अमीर लोगों की संपत्ति जब्त कर ली गई थी. इस से फ्रांस में 15 साल का लंबा गृहयुद्ध चला था.

लोगों ने इस क्रांति के महत्त्व को नहीं समझा है. यह क्रांति केवल फ़्रांस के लोगों की खुशहाली की शुरुआत नहीं थी बल्कि इस से पूरे यूरोप और दुनिया में क्रांति आ गई थी. उन्होंने पेट्रोशियंज का उदाहरण भी दिया था कि कैसे धर्म के नाम पर प्लेबियंस को बेवकूफ बनाया गया था.

यह सोचना ही अपनेआप में दुष्कर है कि ब्राह्मणों के दबदबे वाले उस दौर में उन्होंने अंतरजातीय शादियों की जरूरत पर यह कहते जोर दिया था कि जातिप्रथा को इसी से तोड़ा जा सकता है. हालांकि, इस दिशा में कुछ खास नहीं हुआ है. 1955 के हिंदू विवाह कानून में विवाह में जाति की शर्त को समाप्त ही कर दिया गया. दलित सवर्णों में रोटीबेटी के संबंध अपवादस्वरूप ही देखने को मिलते हैं और उन में से भी आधे धार्मिक और जातिगत पूर्वाग्रहों के चलते आधे रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. लेकिन आज किसी की हिम्मत नहीं कि वह पब्लिक ट्रांसपोर्ट में बराबर वाले की जाति पूछ कर उस से उठने को कह सके. इस का यह मतलब नहीं कि आंबेडकर की कोशिशें और सुझाव अव्यावहारिक थे बल्कि यह है कि ब्राह्मणों और दूसरे कुछ सवर्णों ने वक्त रहते इस खतरे को भांप लिया था और होशियार हो गए थे. उन का खुला विरोध हर स्तर पर तब भी हुआ था और आज भी होता रहता है. जातपांत, छुआछुत, धार्मिक और दीगर भेदभाव अगर पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं तो दरके तो हैं.

 

ऐसा क्या है मनुस्मृति में

असल में सारे फसाद की जड़ भीमराव आंबेडकर मनुस्मृति को ही मानते थे हालांकि दूसरे धर्मग्रंथों से भी वे नाखुश थे. लेकिन वे मनुस्मृति की तरह उन आदेशों और निर्देशों का संकलन नहीं थे जिन्हें कानून का दर्जा दे दिया गया था. जगहजगह शूद्रों को प्रताड़ित करने की बात मनुस्मृति में अधिकारपूर्वक कही गई है और जगहजगह ही ब्राह्मण को महज जाति की बिना पर पूजनीय, भगवान का दूत या प्रतिनिधि बताया गया है.

शिक्षित तो शिक्षित, अशिक्षत दलित भी जानतासमझता है कि ब्राह्मणों के पास एक ऐसी किताब है जिस में यह सब लिखा हुआ है और यह भगवान ने लिखवाया है कि छोटी और नीच जाति में पैदा होना पिछले जन्म के पापों का फल है जिस की सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी. ब्राह्मण की गुलामी ढोना और मुफ्त में सेवा करना इन में से एक है जिस से पाप कटते हैं और अगर ऐसा नहीं किया तो अगले जन्म में कुत्ता, सूअर या किसी दूसरे पशु योनि में जन्म लेना पड़ेगा.

लेकिन सवर्ण महिलाओं को आज तक यह एहसास नहीं कि उन की शूद्रों सरीखी पारिवारिक और सामाजिक हैसियत की वजह भी यही मनुस्मृति है. दूसरे धर्मग्रंथों में तो उस की टुकड़ेटुकड़े नकलभर है जिसे सवर्ण महिलाएं,  बड़ी श्रद्धा और भक्तिभाव से रोज बांचती हैं, पूजापाठ करती हैं और व्रतउपवास भी करती हैं. ये हैरत और तरस खाने वाली बात है. एक बड़ा फर्क उन में और शूद्रों में शुरू से ही यह रहा है कि वे पीरियड्स के दिनों को छोड़ कर अछूत नहीं मानी जातीं और शूद्र उन की तरह धार्मिक आयोजनों की कलश यात्राओं में सिर पर भार ढोती नजर नहीं आतीं. यानी, शूद्र फिर भी बदतर होने के पैमाने पर सवर्ण महिलाओं से कहीं बेहतर स्थिति में हैं. बकौल मनुस्मृति:

  • महिला को किसी भी स्थिति में स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए; उसे बचपन में पिता, युवावस्था में भाई और शादी के बाद पति के संरक्षण में रहना चाहिए.
  • स्त्रियां दूसरे पुरुषों को आकृष्ट करने और संभोग करने के लिए हमेशा आतुर रहती हैं.
  • स्त्रियों में 8 अवगुण हमेशा रहते हैं, इसलिए उन पर भरोसा नहीं करना चाहिए.
  • पति चाहे जैसा भी हो, पत्नी को देवता की तरह उस की पूजा करनी चाहिए.
  • पति चाहे दुराचारी हो, व्यभिचारी हो और सभी गुणों से रहित हो, तब भी स्त्री को हमेशा पति की सेवा देवता की तरह करते रहना चाहिए.
  • स्त्री को संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है, वगैरह वगैरह.

बदहाल हैं महिलाएं  

संविधान के संरक्षण में मौजूदा यानी तथाकथित आधुनिक महिला की जिंदगी में कोई खास बदलाव आए नहीं हैं सिवा इस के कि उसे शिक्षा का अधिकार मिल गया है, वह भी इसलिए कि वह नौकरी या व्यवसाय कर पैसा कमा सके और जोजो बदलाव दिखते हैं वे बनावटी हैं. महिला इसी में खुश और संतुष्ट है कि उसे मेकअप करने की आजादी है, गहने पहनने का शौक पूरा हो रहा है और थोड़ीबहुत आजादी घूमनेफिरने की मिल गई है. अगर संविधान न होता तो यह भी न मिलता जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान में औरतों को नहीं मिल रहा.

हकीकत तो यह है कि आज की भारतीय महिला, जो खुद के आधुनिक होने की गलतफहमी पाल बैठी है, दिनभर कोल्हू के बैल की तरह खटती रहती है. सुबह के नाश्ते से ले कर डिनर तक वह कोई 12-14 घंटे काम करती है जिस के एवज में उसे मिलता है तो, बस, एक अदृश्य तिरस्कार और त्याग का उपदेश जो बचपन से ही उस के दिलोदिमाग में भर दिया जाता है कि तुम्हें ही घर और बाकी सब संभालना है. यह इसलिए हो रहा है कि वह संवैधानिक अधिकारों की जगह पौराणिक उत्तरदायित्व को सीने से लगाए बैठी है.

घर के पुरुष जगह पर बैठेबैठे उस पर हुक्म चलाते रहते हैं कि चाय, नाश्ता, खाना लगाओ और तो और, वे पानी तक अपने हाथ से भर कर नहीं पीते. बिरले ही घर होंगे जहां पुरुष बिस्तर ठीक करते हों. कामकाजी महिलाओं पर तो दोहरा भार है. दफ्तर के साथसाथ उन्हें घर के सारे कामकाज करने पड़ते हैं. लेकिन फिर भी कोई पुरुष एक पत्नी को इसलिए छोड़ नहीं सकता की वह पौराणिक पंडों की कही बातें पूरी नहीं कर रही. यह संविधान की सुरक्षा है.

बात यहीं खत्म नहीं होती. पति और बेटे की सलामती के लिए उसे करवाचौथ और संतान सप्तमी जैसे ढेरों व्रत रखना पड़ते हैं. यानी, मनुस्मृति, कुछ डिस्काउंट और संशोधनों के साथ ही सही, लागू है और महिलाओं ने इसे शूद्रों की तरह भाग्य और नियति मान लिया है. पर उस के लिए धर्म को बुरी तरह बेचा गया है. इस बारे में रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी एक कविता में कहा है जो आज भी प्रासंगिक है-

  • हे प्रभु आप ने स्त्री को अपने भाग्य पर विजय प्राप्त करने का अधिकार क्यों नहीं दिया
  • उसे सिर झुका कर इंतजार क्यों करना पड़ता है, सड़क के किनारे थके हुए धैर्य के साथ इंतजार करते हुए.

बिलाशक संविधान महिलाओं को कई हक देता है लेकिन वे उतने ही अमल में आते दिखाई देते हैं जितने कि शूद्रों के हक, लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि चूंकि संविधान सफल नहीं हो पाया है, इसलिए इसे बदल देना चाहिए. यह मांग अकसर तरहतरह से सनातनी लोग संविधान निर्माण के समय से ही उठाते रहे हैं जो, दरअसल, मनुस्मृति को दोबारा थोपने की साजिश है.

जिन किन्हीं ने संविधान के दिए अधिकारों की अवहेलना देख कर भेदभाव फैलाते और वर्णव्यवस्था की हिमायत करते इन धर्मग्रंथों का विरोध किया उन्हें जान से मारने तक की धमकियां मिलीं. इन में एनसीपी के नेता छगन भुजबल भी शामिल हैं जिन्होंने मनुस्मृति के खिलाफ इतनाभर कहा था कि भारत में हम संविधान के मार्गदर्शन में रहना चाहते हैं न कि मनुस्मृति के तहत. उन्हें धमकी मिली थी कि अगर आप मनुस्मृति का विरोध बंद नहीं करते हैं तो आप का हश्र भी दाभोलकर और पानसरे जैसा होगा.
ऐसी ही धमकी एक दलित पत्रकार और न्यूज वैबसाइट ‘मूक नायक’ की फाउंडर मीना कोटवाल को भी मिली थी जिन्होंने मनुस्मृति जलाते हुए अपना एक वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर किया था.

बेहद दिलचस्प बात यह है कि आखिर क्यों छगन भुजबल और मीना कोटवाल जैसों को जान से मारने की धमकी दी जाती है जबकि उन के बराबर ही मनुस्मृति को समारोहपूर्वक जलाने का गुनाह करने वाले भीमराव आंबेडकर को देशभर में घंटेघड़ियाल बजा कर सनातनी न केवल भगवान की तरह पूज रहे हैं बल्कि उन के बनाए संविधान की दुहाई भी दे रहे हैं?

यह दोहरापन, दरअसल, बुद्ध को भी विष्णु अवतार घोषित कर देने वाले सनातनियों की एक नपीतुली साजिश है कि जितना ज्यादा हो सके, दलितों को भी पूजापाठी बना दो चाहे वे आंबेडकर की ही पूजा क्यों न करें जिस से संविधान में लिखी बातें उसी किताब में कैद हो कर रह जाएं. पहले उन्हें प्रताड़ित कर गुलाम बनाया जाता था, अब गले लगाने का और पूजापाठ का हक दे कर आखिरकर पाखंड पुराना ही रचा जा रहा है. नहीं तो आरएसएस और हिंदू महासभा सहित तमाम सनातनियों ने संविधान की भ्रूणहत्या करने की कोशिशों में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी. इस में सवर्ण तबका तब की तरह आज भी उन के साथ है और सवर्ण औरतें इस की भारी कीमत भी अदा कर रही हैं.

 

संविधान ने दी महिलाओं को मजबूती

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 14 की व्याख्या करते हुए कहा कि औरतों को सेना में परमानैंट कमीशन का अधिकार है. और्केस्ट्रा बैंड में कितनी औरतें नाचेंगी जैसे मनमाने सरकारी आदेश को संविधान के तहत कूड़े में फेंक दिया गया. रेप के मामलों में टू फिंगर टैस्ट संविधान के खिलाफ माना गया क्योंकि यह बलात्कार की पीडि़ता की डिगनिटी के खिलाफ है और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है.

संविधान के अनुच्छेद 14 ने ही अविवाहित युवतियों को गर्भपात कराने का कानूनी हक दिया वरना उन्हें अपनी जिंदगी क्रूर दाइयों के हवाले करनी पड़ती थी. अनुच्छेद 21 ने ही एक औरत को अपनी मरजी से ऊंची या नीची जाति वाले पुरुष से विवाह का हक दिया. इसी अनुच्छेद ने पत्नी पर पति के मालिक होने के हक से मुक्ति दिलाई जो भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में पत्नी के प्रेमी को सजा दिलाने का हक रखता था.

संविधान ने ही औरतों को पति के बराबर एक बच्चे के अभिभावक बनने का हक दिलाया है. संविधान के अनुच्छेदों 15 व 21 के कारण कार्यस्थल पर औरतों को छेड़छाड़ से मुक्ति के प्रावधानों का संरक्षण मिला है. संविधान ने ही एक एयरहोस्टेस को शादी के बाद भी नौकरी पर बने रहने का हक दिया जबकि तब सरकारी कंपनी एयर इंडिया का नियम था कि विवाहित युवतियां यह नौकरी नहीं कर सकतीं.

क्यों जारी है विरोध

संविधान पर मौजूदा चुनावीप्रचार और बहस सहित आरोपप्रत्यारोप कोई नई बात नहीं है जिन का निष्कर्ष यही निकलता है कि धार्मिक शासन की मंशा रखने वाले ही इस का विरोध, बदलाव या फिर इसे नष्ट कर सकते हैं. कांग्रेस की मंशा इस में कुछ बदलावों की हमेशा से ही रही है जो उस ने कुछ देश के और कुछ अपनी मनमानी के लिए किए. यहां यह याद रखना बेहद जरूरी है कि संविधान बनाने का हक उसे देश की जनता ने ही दिया था. संविधान सभा के लिए जो सभा निर्वाचित की गई थी उस में उसे तीनचौथाई बहुमत मिला था, इसलिए कांग्रेस संविधान नष्ट करेगी, यह सोचना उतना ही बेमानी है जितना यह कि आरएसएस या भाजपा कभी मनुस्मृति नष्ट करेंगे.

धर्म समर्थक तो संविधान चाहते ही नहीं थे क्योंकि उन के सिर पर तो अनंतकाल से मनुस्मृति रखी हुई थी और आज भी है लेकिन उतने खुलेतौर पर रखने की हिम्मत भाजपाई नहीं जुटा पाए जितनी कि ‘इंडिया’ के दलों ने संविधान को सीने से लगा कर चुनावप्रचार किया. संविधान के बारे में हिंदूवादियों की राय तो सावरकर ने वक्त रहते ही प्रगट कर दी थी जिस का उल्लेख प्रभात प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘वुमेन इन मनुस्मृति’ सावरकर समग्र के वाल्यूम-4 के पृष्ठ 416 पर इन शब्दों में मिलता है-

“भारत के संविधान के बारे में सब से बुरी बात तो यह है कि इस में कुछ भी भारतीय नहीं है…वेदों के बाद मनुस्मृति हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए सर्वाधिक पूजनीय है जो प्राचीनकाल से ही हमारे रीतिरिवाज, संस्कृति, विचार व कर्म का आधार बनी हुई है. इस ग्रंथ ने सदियों से हमारी आध्यात्मिक व पारलौकिक उन्नति का पथ प्रशस्त किया है. यहां तक कि आज भी करोड़ों भारतीय अपने जीवन और व्यवहार में मनुस्मृति की मान्यताओं का अनुपालन कर रहे हैं. मनुस्मृति हिंदू लौ है.”

जब तत्कालीन हिंदू ह्रदय सम्राट, हिंदूमहासभा के मुखिया ने बेबाकी से अपनी राय प्रदर्शित कर दी तो भला आरएसएस क्यों खामोश रहता. उस ने 30 नवंबर, 1949 को अंगरेजी के अपने मुखपत्र आर्गेनाइजर की अपनी संपादकीय में लिखा-

“लेकिन हमारे संविधान में प्राचीन भारत के विशिष्ट संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है. मनु ने जो कानून बनाया वह यूनानी और फारसी दार्शनिकों से बहुत पहले बनाया. मनुस्मृति में स्पष्टतया वह कानून व्यवस्था आज की तारीख में दुनियाभर के लिए विशेष आदर का विषय है क्योंकि उस में स्वाभाविक आज्ञापालन और निश्चितता बोध के गोपनीय सूत्र हैं. लेकिन हमारे संविधान विशेषज्ञों का ध्यान उधर नहीं गया.”

इस पर किसी ने गौर नहीं किया, उलटे, दुनियाभर में आरएसएस की आलोचना उस की संकीर्णता के बाबत होने लगी. अंगरेजी लेखक द्वय पी बाचेटा और शहनाज जे रोउसे ने अपनी किताब ‘जैंडर इन द हिंदू नैशन: आरएसएस वुमेन एज आइडियोलौग्स’ में लिखा भी है कि- “आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल लिखा जिस का मकसद हिंदू पर्सनल लौ में सुधार करना और महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार व अन्य अधिकारों की गारंटी करना था. आरएसएस हिंदू कोड विरोधी बिल का हिस्सा था. गोलवलकर ने घोषणा की कि महिलाओं को बराबरी का अधिकार मिलने से पुरुषों के लिए भारी मनोवैज्ञानिक संकट खड़ा हो जाएगा, जो मानसिक रोग व अवसाद का कारण बनेगा.”

धर्म वालों की बौखलाहट

सहज समझा जा सकता है कि संविधान और फिर हिंदू कोड बिल से सनातनी किस हद तक बौखला कर अनर्गल अनापशनाप बातें करने लगे थे जबकि संविधान उन से कुछ छीन नहीं रहा था सिवा इस के कि अब ब्राह्मण राज और मनुस्मृति का कोई वैधानिक मूल्य या महत्त्व नहीं रह गया है. अब जो भी होगा, संविधान और कानून के मुताबिक होगा और सभी इसे मानने के लिए बाध्य होंगे. तब वाराणसी के एक संत राम राज पार्टी के मुखिया करपात्री महाराज ने तो साफ कह दिया था कि मैं एक अछूत का लिखा संविधान नहीं मानूंगा. इस संत ने हिंदू कोड बिल के विरोध में आसमान सिर पर उठा लिया था.

11 दिसंबर, 1949 को भी आरएसएस ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली के जरिए हिंदू कोड बिल का विरोध किया था. एक वक्ता ने तो इसे हिंदुओं के लिए एटम बम तक करार दिया था. इस दिन हिंदू कोड बिल मुर्दाबाद के नारे भी संघियों ने लगाए थे और भीमराव आंबेडकर के पुतले भी जलाए थे. आज वही आरएसएस और उस की राजनीतिक संतान भाजपा अगर संविधान को कांग्रेस से बचाने पर तुल ही गए हैं तो इस से बड़ा मजाक और क्या होगा जबकि हर कभी संविधान को ले कर उन की कसक, बेचैनी, व्यथा, जिसे बकौल गोलवलकर, अवसाद कहना ज्यादा सटीक रहेगा, तरहतरह से सामने आती रहती है जिसे नफरत भी कहा जा सकता है. कुछ चर्चित उदाहरण देखें-

3 अप्रैल, 2016 को उत्तर प्रदेश भाजपा महिला मोरचा की मुखिया मधु मिश्रा ने अलीगढ़ में ब्राह्मण महासभा के होली मिलन समारोह में दलितों की तरफ इशारा करते कहा था, “आज तुम्हारे सिर पर बैठ कर संविधान के सहारे जो राज कर रहे हैं, याद करो वो कभी तुम्हारे जूते साफ करते थे, आज तुम्हारे हुजूर हो गए हैं.”
मधु मिश्रा ने इस सभा में और भी काफीकुछ बकबास की थी जिस से भाजपा का संघी चेहरा उजागर हुआ था. उसे ढकने के लिए भाजपा ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर चेहरे पर घूंघट डालने की कोशिश की थी.

इन सनातनियों के मन में कितनी नफरत दलित, आदिवासी और मुसलमानों के प्रति भरी है, अगर इस का संकलन किया जाए तो 19वां पुराण तैयार हो जाएगा. लेकिन मोदी राज के दौरान कुछ न भूलने वाले और नाकाबिले माफी अहम वाकेयों का जिक्र जरूरी है जो यह साबित करते हैं कि हम 70-75 सालों में शिक्षित तो हो गए लेकिन सभ्य नहीं हो पाए. हम में से कुछ इंसानियत के सही और लोकतांत्रिक माने क्यों नहीं स्वीकार पा रहे? क्यों वे कुछ यानी भगवा गैंग के छोटेबड़े मैंबर दलितों और मुसलमानों से नफरत करने और उसे जताने का हक कानूनी तौर पर चाहते हैं? क्यों ये लोग संवैधानिक आरक्षण खत्म कर देना चाहते हैं? और इस बाबत अब वे दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को यह कहते डराने व भड़काने लगे हैं कि तुम्हारे हिस्से का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे दिया जाएगा. दरअसल, इन लोगों को नफरत समानता और बराबरी से है जो संविधान ने दी है, सो, ये लोग, बकौल गोलवलकर, मानसिक रोगियों जैसा बरताव करने से खुद को आज भी रोक नहीं पाते.

तभी तो फरीदाबाद में 2 दलित बच्चों, 11 महीने की दिव्या और ढाई साल के वैभव को जला दिए जाने पर उन्हें न बचा पाने की अपनी सरकार की नाकामी ढकते केंद्रीय मंत्री वी के सिंह ने 22 अक्तूबर, 2015 को कहा था कि कोई अगर कुत्तों पर पत्थर फेंके तो उस के लिए क्या सरकार जिम्मेदार है. यानी, उन के मुताबिक मनुस्मृति में गलत नहीं लिखा कि दलित पशुतुल्य हैं और संविधान में गलत लिखा है कि सब बराबर हैं. साल 2002 में झझ्झर में जब गौकशी के आरोप में 5 दलित युवकों को विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने मार डाला था तब आचार्य गिरिराज किशोर ने कहा था, हमारे शास्त्रों के हिसाब से गौ का जीवन बहुमूल्य है. संविधान ऐसे दलितों का रक्षक है.

संविधान पर ही पुनर्विचार क्यों

हिंदूवादियों की मंशा अगर संविधान बदलने की न होती तो वे इस पर पुनर्विचार की बात न करते. इस बार का बवाल तब मचना शुरू हुआ था जब भाजपा सांसदों अनंत हेगड़े और रंजन गोगोई ने आम चुनाव में लोकसभा की 400 सीटें जीत कर संविधान में बदलाव किए जाने की बात कही थी. इस के पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष विवेक देवराय ने 15 अगस्त, 2023 को कहा था कि अब धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, समानता, न्याय और बंधुत्व जैसे शब्दों का कोई मतलब नहीं है, संविधान औपनिवेशिक विरासत है इसलिए इसे हटा कर नया संविधान लिखा जाना चाहिए. यह बेहद खतरनाक मंशा है जिस का उम्मीद के मुताबिक राजनीतिक विरोध हुआ.

इस के पहले सितंबर 2017 में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी हैदराबाद में कहा था कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित हैं और जरूरत है कि आजादी के 70 साल बाद इस पर गौर किया जाए. इस के पहले 24 जनवरी, 2016 को तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी अहमदाबाद में कहा था कि अब आरक्षण पर पुनर्विचार होना चाहिए. उस वक्त भी विपक्षी दल उन सहित पूरी भगवा गैंग पर यह कहते टूट पड़े थे कि ये लोग अपने हिडन एजेंडे को थोपने की कोशिश कर रहे हैं. सीपीआई एम के महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा था, ‘आरएसएस चाहता है कि हमारा भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य न रह कर, उन के उद्देश्य के मुताबिक, एक हिंदू राष्ट्र के रूप में बदल जाए.’

जबकि जरूरत इस बात की है कि भगवा गैंग मनुस्मृति जैसे भेदभाव फैलाते धर्मग्रंथों पर पुनर्विचार करे कि दरअसल हिंदुओं को वर्ण, जाति और गोत्र में बांटा तो इन्होंने ही है, संविधान ने तो उन्हें, खासतौर से दलितों, आदिवासियों, औरतों और किसानों को, उन के वाजिब हक दिए हैं (देखें बौक्स) जो एक लोकतंत्र की बुनियाद और खूबी सहित खूबसूरती भी हैं. इसे नष्ट करना या मनमरजी से बदलना अब आसान काम नहीं रह गया है क्योंकि यह संविधान अब आम आदमी की शक्ति है जो धर्मग्रंथों की तरह भ्रमित नहीं करती, भाग्य और चमत्कारों का झांसा दे कर ठगी नहीं करती. आम आदमी की ही भाषा में दो टूक कहा जाए तो इस से जो टकराएगा वह चूरचूर हो जाएगा.

लेकिन ऐसा होगा नहीं

ऐसा लगता है कि संविधान बनने से ले कर भगवा गैंग उस में बदलाव की बात कर वक्त ही काट रहा है जिस से उसे कहने को एक काम और ब्राह्मणों को दानदक्षिणा मिलती रहे. भगवा गैंग का मकसद किसी से छिपा नहीं है कि उस का काम सिर्फ और सिर्फ हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना है, जो बिना भारी बहुमत हासिल करने के बाद भी दुष्कर काम है. लेकिन इस के बाद भी भीमराव आंबेडकर की ही हिंदू राष्ट्र को ले कर दी गई इस चेतावनी को याद रखा जाना चाहिए कि हिंदू राष्ट्र अगर बना तो वह वंचितों यानी दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और सवर्णों की महिलाओं के लिए बड़ी आपदा साबित होगा. हिंदूवादी अब अंगरेजों से भी ज्यादा क्रूर साबित होंगे. वे अपने धर्म, ईश्वर और पाखंडों के जरिए इन का शोषण करेंगे.

उन की एक और यह नसीहत भी याद रखनी जरूरी है कि यदि हम संविधान को सुरक्षित रखना चाहते हैं, जिस में जनता की जनता के लिए और जनता द्वारा बनाई गई सरकार का सिद्धांत प्रतिष्ठापित किया गया है, तो हमें यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि हम हमारे रास्ते में खड़ी बुराइयों, जिन के कारण लोग जनता द्वारा बनाई सरकार के बजाय जनता के लिए बनी सरकार को प्राथमिकता देते हैं, की पहचान करने और उन्हें मिटाने में ढिलाई नहीं करेंगे.

 

 संविधान ने दिया दलितों को सम्मान

हम मंदिरों में किसी को भी जाने की सलाह नहीं देंगे लेकिन सार्वजनिक स्थान होने के नाते किसी को केवल हिंदू मंदिर में न जाने दिया जाए, यह पौराणिक भेदभाव सदियों चला आ रहा है जिसे संविधान के अनुच्छेद 25 (2) ने समाप्त कर दिया. संविधान की बदौलत दलितों को 1955 के अनटचेबिलिटी कानून से अछूत होने के बिल्ले से मुक्ति मिली.

अनुसूचित जातियों के लिए 1989 का कानून भी संविधान के संरक्षण के कारण बना जिस में पब्लिक प्रौपर्टी पर किसी को निम्नजाति में जन्म लेने के कारण रोका नहीं जा सकता था. संविधान ने तो दलित, अछूतों के मंदिरों में पुजारी बनने के रास्ते भी खोल डाले हालांकि पुजारी बन कर वे दलितों या सवर्णों का कोई भला नहीं करने वाले थे.
यह न भूलें कि अनुसूचित जातियों व जनजातियों को आरक्षण संविधान ने दिलाया जो सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में आज भी लागू है. आरक्षण विरोधी इसे हटाने के लिए ही संविधान के बदलने की बात कर रहें. सदियों से समाज द्वारा कुचले लोग मुट्ठीभर नौकरियों व स्कूलों में सीटों पर कुछ को मंजूर नहीं हैं.
संविधान दलितों, पिछड़ों की एक बड़ी ताकत है जिसे कमजोर करने की कोशिश पिछले सालों में कौंट्रैक्ट नौकरियां या लेटरल अपौयंटमैंट के जरिए कम करने की कोशिश भारतीय जनता पार्टी सरकार द्वारा की जा रही है.

यह दिया था संविधान ने

दरअसल, संविधान ने वह सबकुछ दे दिया था जो धर्म ने छीन रखा था. दलितों और औरतों को बराबरी का हक न तो तब मनुवादियों को हजम हो रहा था, न आज हो रहा है. इस पर राजनीति और सरकारी नौकरियों में जातिगत आरक्षण की व्यवस्था से तो उन के कलेजे पर सांप लोटने लगे थे.

संविधान के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 12 से 35) ही धर्म का दबदबा तोड़ने के लिए काफी थे, जिन में समता, समानता, संस्कृति और शोषण के विरुद्ध अधिकारों ने ही मनुस्मृति के श्लोकों को ध्वस्त कर दिया था. दलितों को आम नागरिक की तरह अधिकारों का दिया जाना भी सवर्णों को रास नहीं आया था.

अनुच्छेद (15) ने तो और भी कहर ढाया था कि जो यह निर्देश देता है कि धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर या इन में से किसी एक आधार पर राज्य भेदभाव नहीं करेगा. सार्वजनिक स्थलों पर सुविधाओं के सभी के लिए उपयोग की बात भी इसी में वर्णित है. अनुच्छेद 15 (4) में पहले संशोधन के तहत जातिगत आरक्षण दिया गया जिसे ले कर हर कभी विवादफसाद होते रहते हैं. सवर्ण हर कभी योग्यता का राग आलापा करते हैं जो महज जाति की बिना पर नौकरियों पर अपना हक समझते थे.
दलितों के बाद सब से शोषित तबके महिलाओं को मतदान का अधिकार (अनुच्छेद 326) के तहत मिला तो उन में एक अलग आत्मविश्वास पैदा हुआ जो उन्हें उन के अस्तित्व का आभास कराता हुआ था कि हम भी कुछ हैं. इस की खास बात यह थी कि यह अधिकार अमेरिकी महिलाओं को 133 साल बाद मिला था, तो भारत में संविधान बनते ही मिल गया था.

पुरुषों के समान अधिकार मिलना भी महिलाओं के लिए एक सरप्राइज गिफ्ट था लेकिन सनातनियों ने जम कर बवाल उस वक्त काटा जब हिंदू कोड बिल वजूद में आया- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956. इस के तहत हिंदू विवाह अधिनयम, हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षता अधिनयम, और हिंदू दत्तक भरणपोषण अधिनियम से महिलाओं को उन के वास्तविक हक मिले जिन में अंतरजातीय विवाह को कानूनी मान्यता, द्वि विवाह को अपराध घोषित करना, महिलाओं को भी तलाक का अधिकार सहित दूसरे कई अधिकार मिले तो धर्म के ठेकेदार और हिंदूवादी सड़कों पर आ कर कहने व चिल्लाने लगे थे कि इस से हमारा धर्म भृष्ट हो रहा है, संस्कृति नष्ट हो रही है. इसलिए, इन्हें वापस लिया जाए.

यह तिलमिलाहट बेवजह नहीं थी क्योंकि यह बिल, जो टुकड़ोंटुकड़ों में पारित हुआ, पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर निर्णायक प्रहार था जिस ने संपन्न परिवारों की महिलाओं को हर स्तर पर बराबरी का दर्जा देते उन के पैरों में जकड़ी धार्मिक बेड़ियों से उन्हें आजाद कराया. आज वही संपन्न महिलाएं धर्म की रक्षक भी बनी बैठी हैं क्योंकि उन्हें बताया ही नहीं जाता कि जो संविधान ने दिया है वह किस तरह का हीरा है.

बिलाशक इस के, उम्मीद के मुताबिक, नतीजे नहीं निकले हैं तो इस के लिए भी धर्म की साजिश जिम्मेदार है जिस की समाज पर पकड़ इतनी मजबूत है कि विधवा विवाह अभी भी अपवादस्वरूप ही होते हैं. उन की तरह तलाकशुदा महिलाओं को भी मनहूस करार दे दिया जाता है. महिलाओं की दूसरी शादी आसानी से नहीं होती और परित्यक्ताओं को शक की निगाह से देखा जाता है. लेकिन कुछ नहीं हुआ है, यह कहना भी निराशाजनक बात होगी. जो हुआ है उस में प्रमुख यह है कि अब पुरुष पहले की तरह एक पत्नी के रहते दूसरी शादी नहीं कर सकते, नहीं तो सवर्ण महिला पहले इसी दहशत में पति को परमेश्वर का दर्जा देते पूजती रहती थी कि वह न जाने कब ढोलधमाके के साथ दूसरी, तीसरी, चौथी या पांचवीं ले आए और उसे घर के किसी कोने की कोठरी में धकेल दे या फिर बाहर ही निकाल दे क्योंकि उसे रोकनेटोकने वाला कोई नहीं था. उलटे, इस बाबत प्रोत्साहन देने के लिए एक पूरी सेना साथ देती थी.

लेकिन अब ऐसा नहीं है. संविधान सभी को न्याय की गारंटी देता है. कोई भी पीड़ित थाने और अदालत जा कर न्याय हासिल कर सकता है. मनुस्मृति की दुहाई देने वाले दुखी इसीलिए भी रहते हैं कि अब गरीब, दलित और महिलाओं की हिफाजत संवैधानिक कानूनों के तहत होती है. पहले यह काम राजा, जमींदार, जाति का मुखिया या पुजारी किया करते थे. यही ज्यूडीशियरी मनमाने फैसले धर्मग्रंथों में वर्णित कानूनों के तहत जाति और जैंडर के आधार पर देती थी.

भीमराव आंबेडकर का मानना था कि धर्म, दरअसल, आदेशों और निर्देशों का एक ऐसा संकलन है जिस में कमजोरों और औरतों को न्याय के नाम पर सताया जाता है, उन का शोषण किया जाता है. खूबी तो यह भी है कि संविधान दोषी को भी अपना पक्ष रखने का अधिकार देता है. पौराणिक काल की न्यायव्यवस्था में अपने पक्ष रखने और साक्ष्यों को कोई जगह नहीं थी राजा, मंत्री और ऋषिमुनि जो फैसला दे देते थे उसे मानना एक बाध्यता थी. यानी, वही निचली अदालत से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक थे जिन में कैदियों के भी कोई अधिकार नहीं थे लेकिन अब हैं. भले ही कुछ कानून अंगरेजों ने बनाए लेकिन सभी के लिए भेदभाव रहित न्याय संविधान ने सुनिश्चित किया.

संविधान बनाने वाले कितने दूरदर्शी थे, इस का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने किसानों के अधिकारों का भी पूरापूरा खयाल रखा. आजादी के वक्त 80 फीसदी लोग गांवों में बसते थे और इन में से भी कोई 70 फीसदी मजदूर थे. जमीनों पर कब्जा दबंगों का हुआ करता था. शोषण और अत्याचार के हाल तो ये थे कि जमींदार छोटी जाति वालों से बैल की तरह काम लेते थे और उन्हें जिंदा रहने लायक ही खाना देते थे. 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘मदर इंडिया’ की तरह गांवगांव में सूदखोर लाला सुखीलाल हुआ करते थे जो किसानों के अशिक्षित होने का नाजायज फायदा ब्याज पर ब्याज की शक्ल में उठाते थे ब्रिटिश हुकूमत के पहले. गरीब किसानों की जमीन राजा और दबंग जब चाहे, जैसे चाहे हड़प लेते थे.

संविधान के अनुच्छेद 300 (ए) के तहत सरकार भी आसानी से किसानों की जमीन नहीं ले सकती. हालांकि सब से पहले 1894 में ब्रिटिश सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 बनाया था लेकिन राजशाही और जमींदारी के दौर में यह बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं हो पाया था. नए प्रावधानों के तहत भूमि अधिग्रहण का पहला स्टैप किसान को नोटिस देना है और जमीन की जरूरत है ही, इसे भी सरकार को बताना पड़ेगा और कीमत भी बाजारभाव के मुताबिक तय होगी. नोटिस हर जगह जरूरी है. सरकार नागरिक से कभी भी, कुछ भी नहीं छीन सकती. यह और बात है कि क़ानूनी खामी के चलते बुलडोजर कल्चर भी देश में पनप रहा है जिस के अधिकतर शिकार वही लोग होते हैं जो मनुवादियों को हमेशा से खटकते रहे हैं.

इन सब से भी ज्यादा क्रांति और बदलाव शिक्षा के क्षेत्र में संविधान के जरिए आए जिस के चलते अब हर कोई पढ़ रहा है वरना तो मनुस्मृति जैसे धर्मग्रंथ तो पढ़ने का हक सिर्फ ब्राह्मणों को ही देते थे. कोई और अगर पढ़ता था तो वह अपराधी माना जाता था और राजा को उसे मौत की सजा तक देने का हक धर्म ने दे रखा था. भीमराव आंबेडकर दलितों और महिलाओं के शोषण और पिछड़ेपन की वजह उन्हें न पढ़ने देने की साजिश को ही मानते थे, इसलिए उन्होंने कहा था कि शिक्षा शेरनी का दूध है, इसे जो पिएगा वो दहाड़ेगा.

संविधान का अनुच्छेद 21 (ए) सभी को शिक्षा की गारंटी देता है. 46वें संशोधन के तहत साल 2002 में 6 से ले कर 14 साल तक के सभी बच्चों को शिक्षा मूल अधिकार के तौर पर दी जाने लगी है, वह भी निशुल्क. इस से जाहिर है, हाहाकारी बदलाव आया है बावजूद इस हकीकत के कि अभी भी सौ फीसदी बच्चे नहीं पढ़ पा रहे हैं. दलितों के पढ़ने को ले कर सवर्ण तबका हमेशा ही एतराज जताता रहा है जो संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के आगे कसमसा कर रह जाता है.

स्वास्थ सेवाएं भी सभी के लिए उपलब्ध हैं वरना तो एक दौर था जब वैद्य सिर्फ सवर्णों का ही इलाज करते थे क्योंकि अछूत शूद्र को छूने से उन्हें पाप लगता था. अब अस्पतालों की सहज उपलब्धता से सभी को इलाज मिल रहा है. हालत यह है कि हजारों की तादाद में दलित डाक्टर ब्राह्मणों को जन्दगी दे रहे हैं. इस से किसी का धर्म भृष्ट नहीं हो रहा.

ऐसी कई बातों से बदलाव भारतीय समाज में हो रहे हैं तो सिर्फ संविधान की वजह से, जिस पर आएदिन बखेड़ा खड़ा किया जाने लगा है.

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