उत्तर कोरिया के ताजा मिसाइल परीक्षण ने कई अनदेखे-अनजाने खतरों को जन्म दिया है. पहला- किम जोंग उन ने यह दिखा दिया कि वह अमेरिका की धरती पर परमाणु हथियारों के साथ हमला करने की क्षमता रखता है. दूसरे- इस ‘उपलब्धि’ ने रॉकेट मैन (अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दिया नाम) की कल्पना को वास्तविकता का जामा पहना दिया. तीसरे- उत्तर कोरिया चीन का ‘भस्मासुर’ साबित हुआ, जिसे चीन जान तो रहा है, मान नहीं रहा. अंतिम- ये कि किम की कारस्तानियों और वाशिंगटन की विरोधाभासी प्रतिक्रियाओं ने इस इलाके को परमाणु पाउडर बिछे एक ऐसे मैदान में तब्दील कर दिया है, जहां जान-बूझकर या अनजाने में अचानक उठी एक चिनगारी भी विनाशकारी साबित हो सकती है.

परमाणु हथियार से लैस और फितरत से भी खतरनाक उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिका, चीन और दक्षिण कोरिया की चिंता समझी जा सकती है. दरअसल यह पूरे संकट का प्रतीक मात्र है. ताजा संकट तो महज उस विसंगति की नवीनतम और विस्तारित अभिव्यक्ति मात्र है, जिसके बीज 1950 के कोरिया युद्ध में तलाशे जा सकते हैं. युद्ध तो 1953 में युद्धविराम के साथ समाप्त हो गया, पर बिना किसी शांति समझौते के. यानी टकराव के बीज नष्ट नहीं हुए और यही मौजूदा तनाव की असल जड़ है.

कोरियाई युद्ध के नतीजे के तौर पर स्वाभाविक रूप से दोनों कैंपों के अलग-अलग उद्देश्य बन चुके थे. 1971-72 के चीन-अमेरिका के बीच हुए समझौते और शीत युद्ध के खात्मे के बावजूद मतभेद समाप्त नहीं हुए और इसने पूर्वोत्तर एशिया में परमाणु चुनौतियों के समाधान की राह में रोड़े अटकाए. अमेरिका कोरियाई प्रायद्वीप में चीन-सोवियत धुरी को कमजोर करना, इलाके को परमाणु हथियारों से मुक्त रखना चाहता था. उसने एक परस्पर रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर कर, दक्षिण कोरिया में फौजें तैनात कर दीं और उन्हें परमाणु कवच दे दिया.

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