इस्लामाबाद सार्क शिखर सम्मेलन से अलग रहने की भारत की घोषणा के बाद जिस तरह श्रीलंका उसके साथ खड़ा हुआ, उस पर श्रीलंका के राजनीतिक दलों व संगठनों के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रतिक्रियाएं हुई हैं. श्रीलंका का यह कदम स्वाभाविक ही था. जाहिर सी बात है कि उसके इस रुख पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ.

भारत एक ऐसा देश है, जिसकी दोस्ती छोड़ने के बारे में श्रीलंका कभी सोचना भी नहीं चाहेगा, क्योंकि भारत की दोस्ती छोड़ने का मतलब है श्रीलंका पर सांस्कृतिक ही नहीं, आर्थिक तौर पर भी खासा बुरा असर. 1985 में सार्क की स्थापना दक्षिण एशियाई देशों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास व सहयोग की भावना से हुई थी. मकसद तो इन देशों के बीच आपसी सौहार्द को बढ़ाना और एक-दूसरे की समस्याओं को समझना व सुलझाना था, लेकिन सच तो यही है कि आज तक यह मकसद हासिल नहीं हुआ. दरअसल, सार्क की दो बड़ी शक्तियां भारत और पाकिस्तान इस बिंदु पर हमेशा पीछे रहे और इसका कारण कश्मीर की समस्या रही.

इस बार का सार्क सम्मेलन तो कई सवालों में घिर गया. श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने हाल ही में अनायास ही नहीं कहा था कि सार्क का भविष्य अब बदरंग दिखने लगा है. उनका मानना है कि सार्क जैसे मंच का भविष्य तब तक अंधकारमय है, जब तक कि इसमें शामिल देश विभिन्न मुद्दों पर एकमत नहीं होते. उनका मानना है कि यदि यही गति कायम रहती है, तो श्रीलंका किसी और विकल्प की ओर देखने को बाध्य होगा.

श्रीलंका इस वक्त दोराहे पर है कि उस भारत के साथ जाए, जो हमेशा उसके लिए बड़े भाई की भूमिका में रहा है. या फिर एक वाइल्ड कार्ड खेलकर पाकिस्तान के साथ जाने की सोचे. तीसरा रास्ता तटस्थ रहने का है, जो वह चाहेगा नहीं. लेकिन यह भी सच है कि देर-सबेर उसे एक पक्ष तो पकड़ना ही होगा. सार्क का बहिष्कार इस दिशा में पहला कदम है. प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे और राष्ट्रपति एम सिरीसेना को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा. विक्रमसिंघे तो विकल्प की बात कह भी चुके हैं.

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